एकादश समुल्लास खण्ड-11
(प्रश्न) कुपात्र और सुपात्र का लक्षण क्या है?
(उत्तर) जो छली, कपटी, स्वार्थी, विषयी, काम, क्रोध, लोभ, मोह से युक्त, परहानि करने वाले लम्पटी, मिथ्यावादी, अविद्वान्, कुसंगी, आलसी; जो कोई दाता हो उसके पास बारम्बार मांगना, धरना देना, ना किये पश्चात् भी हठता से मांगते ही जाना, सन्तोष न होना, जो न दे उस की निन्दा करना, शाप और गालिप्रदानादि देना। अनेक वार जो सेवा करे और एक वार न करे तो उस का शत्रु बन जाना, ऊपर से साधु का वेश बना लोगों को बहकाकर ठगना और अपने पास पदार्थ हो तो भी मेरे पास कुछ भी नहीं है कहना, सब को फुसला फुसलू कर स्वार्थ सिद्ध करना, रात दिन भीख मांगने ही में प्रवृत्त रहना, निमन्त्रण दिये पर यथेष्ट भंगादि मादक द्रव्य खा पीकर बहुत सा पराया पदार्थ खाना, पुनः उन्मत्त होकर प्रमादी होना, सत्य-मार्ग का विरोध और झूठ-मार्ग में अपने प्रयोजनार्थ चलना, वैसे ही अपने चेलों को केवल अपनी ही सेवा करने का उपदेश करना, अन्य योग्य पुरुषों की सेवा करने का नहीं, सद्विद्यादि प्रवृत्ति के विरोधी, जगत् के व्यवहार अर्थात् स्त्री, पुरुष, माता, पिता, सन्तान, राजा, प्रजा इष्टमित्रें में अप्रीति कराना कि ये सब असत्य हैं और जगत् भी मिथ्या है। इत्यादि दुष्ट उपदेश करना आदि कुपात्रें के लक्षण हैं। और जो ब्रह्मचारी, जितेन्द्रिय, वेदादि विद्या के पढ़ने पढ़ाने हारे, सुशील, सत्यवादी, परोपकारप्रिय, पुरुषार्थी, उदार, विद्या धर्म की निरन्तर उन्नति करनेहारे, धर्मात्मा, शान्त, निन्दा स्तुति में हर्ष शोकरहित, निर्भय, उत्साही, योगी, ज्ञानी, सृष्टिक्रम, वेदाज्ञा, ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभावानुकूल वर्त्तमान करनेहारे, न्याय की रीति युक्त, पक्षपातरहित, सत्योपदेश और सत्यशास्त्रें के पढ़ने पढ़ानेहारे के परीक्षक, किसी की लल्लो पत्तो न करें, प्रश्नों के यथार्थ समाधानकर्त्ता, अपने आत्मा के तुल्य अन्य का भी सुख, दुःख, हानि, लाभ समझने वाले, अविद्यादि क्लेश, हठ, दुराग्रहाऽभिमानरहित, अमृत के समान अपमान और विष के समान मान को समझने वाले, सन्तोषी, जो कोई प्रीति से जितना देवे उतने ही से प्रसन्न, एक वार आपत्काल में मांगे भी न देने वा वर्जने पर भी दुःख वा बुरी चेष्टा न करना, वहां से झट लौट जाना, उस की निन्दा न करना, सुखी पुरुषों के साथ मित्रता, दुखियों पर करुणा, पुण्यात्माओं से आनन्द और पापियों से उपेक्षा अर्थात् रागद्वेषरहित रहना, सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, निष्कपट, ईर्ष्याद्वेषरहित, गम्भीराशय, सत्पुरुष, धर्म से युक्त और सर्वथा दुष्टाचार से रहित अपने तन मन धन को परोपकार करने में लगाने वाले, पराये सुख के लिये अपने प्राणों को भी समिर्पतकर्त्ता इत्यादि शुभलक्षणयुक्त सुपात्र होते हैं। परन्तु दुिर्भक्षादि आपत्काल में अन्न, जल, वस्त्र और औषधि पथ्य स्थान के अधिकारी सब प्राणीमात्र हो सकते हैं।
(प्रश्न) दाता कितने प्रकार के होते हैं?
(उत्तर) तीन प्रकार के-उनम, मध्यम और निकृष्ट। उत्तम दाता उस को कहते हैं जो देश काल और पात्र को जानकर सत्यविद्या, धर्म की उन्नतिरूप परोपकारार्थ देवे। मध्यम वह है जो कीर्ति वा स्वार्थ के लिए दान करे। नीच वह है कि अपना वा पराया कुछ उपकार न कर सके किन्तु वेश्यागमनादि वा भांड भाटों आदि को देवे, देते समय तिरस्कार अपमानादि कुचेष्टा भी करे, पात्र कुपात्र का कुछ भी भेद न जाने किन्तु ‘सब अन्न बारह पसेरी’ बेचने वालों के समान विवाद लड़ाई, दूसरे धर्मात्मा को दुःख देकर सुखी होने के लिये दिया करे, वह अधम दाता है। अर्थात् जो परीक्षापूर्वक विद्वान् धर्मात्माओं का सत्कार करे वह उत्तम और जो कुछ परीक्षा करे वा न करे परन्तु जिस में अपनी प्रशंसा हो उस को मध्यम और जो अन्धाधुन्ध परीक्षारहित निष्फल दान दिया करे वह नीच दाता कहाता है।
(प्रश्न) दान के फल यहां होते हैं वा परलोक में?
(उत्तर) सर्वत्र होते हैं।
(प्रश्न) स्वयं होते हैं वा कोई फल देने वाला है?
(उत्तर) फल देने वाला ईश्वर है। जैसे कोई चोर डाकू स्वयं बन्दीघर में जाना नहीं चाहता, राजा उस को अवश्य भेजता है, धर्मात्माओं के सुख की रक्षा करता, भुगाता, डाकू आदि से बचाकर उन को सुख में रखता है वैसे ही परमात्मा सब को पाप पुण्य के दुःख और सुखरूप फलों को यथावत् भुगाता है।
(प्रश्न) जो ये गरुड़पुराणादि ग्रन्थ हैं वेदार्थ वा वेद की पुष्टि करने वाले हैं वा नहीं?
(उत्तर) नहीं, किन्तु वेद के विरोधी और उलटे चलते हैंे तथा तन्त्र भी वैसे ही हैं। जैसे कोई मनुष्य एक का मित्र सब संसार का शत्रु हो, वैसा ही पुराण और तन्त्र का मानने वाला पुरुष होता है क्योंकि एक दूसरे से विरोध कराने वाले ये ग्रन्थ हैं। इन का मानना किसी विद्वान् का काम नहीं किन्तु इन को मानना अविद्वत्ता है। देखो! शिवपुराण में त्रयोदशी, सोमवार, आदित्यपुराण में रवि; चन्द्रखण्ड में सोमग्रह वाले मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर, राहु, केतु के; वैष्णव एकादशी; वामन की द्वादशी; नृसिह वा अनन्त की चतुर्दशी; चन्द्रमा की पौर्णमासी; दिक्पालों की दशमी; दुर्गा की नौमी; वसुओं की अष्टमी; मुनियों की सप्तमी; कार्तिक स्वामी की षष्ठी; नाग की पंचमी; गणेश की चतुर्थी; गौरी की तृतीया; अश्विनीकुमार की द्वितीया; आद्यादेवी की प्रतिपदा और पितरों की अमावास्या पुराणरीति से ये दिन उपवास करने के हैं। और सर्वत्र यही लिखा है कि जो मनुष्य इन वार और तिथियों में अन्न, पान ग्रहण करेगा वह नरकगामी होगा। अब पोप और पोप जी के चेलों को चाहिये कि किसी वार अथवा किसी तिथि में भोजन न करें क्योंकि जो भोजन वा पान किया तो नरकगामी होंगे। अब ‘निर्णयसिन्धु’, ‘धर्मसिन्धु’, ‘व्रतार्क’ आदि ग्रन्थ जो कि प्रमादी लोगों के बनाये हैं उन्हीं में एक-एक व्रत की ऐसी दुर्दशा की है कि जैसे एकादशी को शैव, दशमी विद्धा, कोई द्वादशी में एकादशी व्रत करते हैं अर्थात् क्या बड़ी विचित्र पोपलीला है कि भूखे मरने में भी वाद विवाद ही करते हैं। जो एकादशी का व्रत चलाया है उस में अपना स्वार्थपन ही है और दया कुछ भी नहीं। वे कहते हैं-
एकादश्यामन्ने पापानि वसन्ति।।
जितने पाप हैं वे सब एकादशी के दिन अन्न में वसते हैं। इस पोप जी से पूछना चाहिये कि किस के पाप उस में बसते हैं? तेरे वा तेरे पिता आदि के? जो सब के पाप एकादशी में जा बसें तो एकादशी के दिन किसी को दुःख न रहना चाहिये। ऐसा तो नहीं होता किन्तु उलटा क्षुधा आदि से दुःख होता है। दुःख पाप का फल है। इस से भूखे मरना पाप है। इस का बड़ा माहात्म्य बनाया है जिस की कथा बांच के बहुत ठगे जाते हैं। उस में एक गाथा है कि- ब्रह्मलोक में एक वेश्या थी। उस ने कुछ अपराध किया। उस को शाप हुआ। तू पृथिवी पर गिर। उस ने स्तुति की कि मैं पुनः स्वर्ग में क्योंकर आ सकूँगी? उस ने कहा जब कभी एकादशी के व्रत का फल तुझे कोई देगा तभी तू स्वर्ग में आ जायेगी। वह विमान सहित किसी नगर में गिर पड़ी। वहाँ के राजा ने उस से पूछा कि तू कौन है। तब उस ने सब वृत्तान्त कह सुनाया और कहा कि जो कोई मुझे एकादशी का फल अर्पण करे तो फिर भी स्वर्ग को जा सकती हूं। राजा ने नगर में खोज कराया। कोई भी एकादशी का व्रत करने वाला न मिला। किन्तु एक दिन किसी शूद्र स्त्री पुरुष में लड़ाई हुई थी। क्रोध से स्त्री दिन रात भूखी रही थी। दैवयोग से उस दिन एकादशी ही थी। उस ने कहा कि मैंने एकादशी जानकर तो नहीं की; अकस्मात् उस दिन भूखी रह गई थी। ऐसे राजा के भृत्यों से कहा। तब तो वे उस को राजा के सामने ले आये। उस से राजा ने कहा कि तू इस विमान को छू। उस ने छूआ तो उसी समय विमान ऊपर को उड़ गया। यह तो विना जाने एकादशी के व्रत का फल है। जो जानके करे तो उस के फल का क्या पारावार है!!! वाह रे आंख के अन्धे लोगो! जो यह बात सच्ची हो तो हम एक पान का बीड़ा जो कि स्वर्ग में नहीं होता; भेजना चाहते हैं। सब एकादशी वाले अपना-अपना फल दे दो। जो एक पानबीड़ा ऊपर को चला जायेगा तो पुनः लाखों क्रोड़ों पान वहां भेजेंगे और हम भी एकादशी किया करेंगे और जो ऐसा न होगा तो तुम लोगों को इस भूखे मरनेरूप आपत्काल से बचावेंगे। इन चौबीस एकादशियों के नाम पृथक्-पृथक् रक्खे हैं। किसी का ‘धनदा’ किसी का ‘कामदा’ किसी का ‘पुत्रदा’ किसी का ‘निर्जला’। बहुत से दरिद्र, बहुत से कामी और बहुत से निर्वंशी लोग एकादशी करके बूढ़े हो गये और मर भी गये परन्तु धन, कामना और पुत्र प्राप्त न हुआ औेर ज्येष्ठ महीने के शुक्लपक्ष में कि जिस समय एक घड़ी भर जल न पावे तो मनुष्य व्याकुल हो जाता है; व्रत करने वालों को महादुःख प्राप्त होता है। विशेष कर बंगाले में सब विधवा स्त्रियों की एकादशी के दिन बड़ी दुर्दशा होती है। इस निर्दयी कसाई को लिखते समय कुछ भी मन में दया न आई, नहीं तो निर्जला का नाम सजला और पौष महीने की शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम निर्जला रख देता तो भी कुछ अच्छा होता। परन्तु इस पोप को दया से क्या काम? ‘कोई जीवो वा मरो पोप जी का पेट पूरा भरो।’ गर्भवती वा सद्योविवाहिता स्त्री, लड़के वा युवा पुरुषों को तो कभी उपवास न करना चाहिये। परन्तु किसी को करना भी हो तो जिस दिन अजीर्ण हो क्षुधा न लगे, उस दिन शर्करावत् (शर्बत) वा दूध पीकर रहना चाहिये। जो भूख में नहीं खाते और विना भूख के भोजन करते हैं वे दोनों रोगसागर में गोते खा दुःख पाते हैं। इन प्रमादियों के कहने लिखने का प्रमाण कोई भी न करे। अब गुरु शिष्य मन्त्रेपदेश और मतमतान्तर के चरित्रें का वर्त्तमान कहते हैं-
मूर्त्तिपूजक सम्प्रदायी लोग प्रश्न करते हैं कि वेद अनन्त हैं। ऋग्वेद की २१, यजुर्वेद की १०१, सामवेद की १००० और अथर्ववेद की ९ शाखा हैं। इन में से थोड़ी सी शाखा मिलती हैं शेष लोप हो गई हैं। उन्हीं में पूजा और तीर्थों का प्रमाण होगा। जो न होता तो पुराणों में कहां से आता? जब कार्य देख कर कारण का अनुमान होता है तब पुराणों को देखकर मूर्त्तिपूजा में क्या शंका है?
(उत्तर) जैसे शाखा जिस वृक्ष की होती है उस के सदृश हुआ करती है; विरुद्ध नहीं। चाहै शाखा छोटी बड़ी हों परन्तु उन में विरोध नहीं हो सकता। वैसे ही जितनी शाखा मिलती हैं जब इन में पाषाणादि मूर्त्ति और जल स्थल विशेष तीर्थों का प्रमाण नहीं मिलता तो उन लुप्त शाखाओं में भी नहीं था। और चार वेद पूर्ण मिलते हैं उन से विरुद्ध शाखा कभी नहीं हो सकतीं और जो विरुद्ध हैं उन को शाखा कोई भी सिद्ध नहीं कर सकता। जब यह बात है तो पुराण वेदों की शाखा नहीं किन्तु सम्प्रदायी लोगों ने परस्पर विरुद्धरूप ग्रन्थ बना रखे हैं। वेदों को तुम परमेश्वरकृत मानते हो वा मनुष्यकृत? परमेश्वरकृत । जब परमेश्वरकृत मानते हो तो ‘आश्वलायनादि’ ऋषि मुनियों के नाम प्रसिद्ध ग्रन्थों को वेद क्यों मानते हो? जैसे डाली और पत्तों के देखने से पीपल, बड़ और आम्र आदि वृक्षों की पहिचान होती है वैसे ही ऋषि मुनियों के किये वेदांग, चारों ब्राह्मण, अंग; उपांग और उपवेद आदि से वेदार्थ पहिचाना जाता है। इसलिये इन ग्रन्थों को शाखा माना है। जो वेदों से विरुद्ध है उस का प्रमाण और अनुकूल का अप्रमाण नहीं हो सकता। जो तुम अदृष्ट शाखाओं में मूर्त्ति आदि के प्रमाण की कल्पना करोगे तो जब कोई ऐसा पक्ष करेगा कि लुप्त शाखाओं में वर्णाश्रम व्यवस्था उलटी अर्थात् अन्त्यज और शूद्र का नाम ब्राह्मणादि और ब्राह्मणादि का नाम शूद्र अन्त्यजादि, अगमनीयागमन, अकर्त्तव्य कर्त्तव्य, मिथ्याभाषणादि धर्म, सत्यभाषणादि अधर्म आदि लिखा होगा तो तुम उस को वही उत्तर दोगे जो कि हम ने दिया अर्थात् वेद औेर प्रसिद्ध शाखाओं में जैसा ब्राह्मणादि का नाम ब्राह्मणादि और शूद्रादि का नाम शूद्रादि लिखा है, वैसा ही अदृष्ट शाखाओं में भी मानना चाहिये नहीं तो वर्णाश्रम व्यवस्था आदि सब अन्यथा हो जायेंगे। भला जैमिनि, व्यास और पतञ्जलि के समय पर्य्यन्त तो सब शाखा विद्यमान थीं वा नहीं? यदि थीं तो तुम कभी निषेध न कर सकोगे और जो कहो कि नहीं थीं तो फिर शाखाओं के होने का क्या प्रमाण है? देखो! जैमिनि ने मीमांसा में सब कर्मकाण्ड, पतञ्जलि मुनि ने योगशास्त्र में सब उपासनाकाण्ड और व्यासमुनि ने शारीरक सूत्रें में सब ज्ञानकाण्ड वेदानुकूल लिखा है। उन में पाषाणादि मूर्त्तिपूजा वा प्रयागादि तीर्थों का नाम तक भी नहीं लिखा। लिखें कहां से? जो कहीं वेदों में होता तो लिखे विना कभी न छोड़ते। इसलिये लुप्त शाखाओं में भी इन मूर्त्तिपूजादि का प्रमाण नहीं था। ये सब शाखा वेद नहीं हैं क्योंकि इनमें ईश्वरकृत वेदों के प्रतीक धर के व्याख्या और संसारी जनों के इतिहासादि लिखे हैं इसलिये ये वेद कभी नहीं हो सकते। वेदों में तो केवल मनुष्यों को विद्या का उपदेश किया है। किसी मनुष्य का नाममात्र भी नहीं। इसलिए मूर्त्तिपूजा का सर्वथा खण्डन है। देखो! मूर्त्तिपूजा से श्रीरामचन्द्र, श्रीकृष्ण, नारायण और शिवादि की बड़ी निन्दा और उपहास होता है। सब कोई जानते हैं कि वे बड़े महाराजाधिराज और उनकी स्त्री सीता तथा रुक्मिणी, लक्ष्मी और पार्वती आदि महाराणियां थीं, परन्तु जब उन की मूर्त्तियां मन्दिर आदि में रख के पुजारी लोग उनके नाम से भीख मांगते हैं अर्थात् उन को भिखारी बनाते हैं कि आओ महाराज! राजा जी! सेठ! साहूकारो! दर्शन कीजिये, बैठिये, चरणामृत लीजिये, कुछ भेंट चढ़ाइये। महाराज! सीता-राम, कृष्ण-रुक्मिणी वा राधा-कृष्ण, लक्ष्मी-नारायण और महादेव-पार्वती जी को तीन दिन से बालभोग वा राजभोग अर्थात् जलपान वा खानपान भी नहीं मिला है। आज इन के पास कुछ भी नहीं है। सीता आदि को नथुनी आदि राणी जी वा सेठानी जी बनवा दीजिये। अन्न आदि भेजो तो राम-कृष्णादि को भोग लगावें। वस्त्र सब फट गये हैं। मन्दिर के कोने सब गिर पड़े हैं। ऊपर से चूता है और दुष्ट चोर जो कुछ था उसे उठा ले गये। कुछ ऊंदरों (चूहों) ने काट कूट डाले। देखिये? एक दिन ऊंदरों ने ऐसा अनर्थ किया कि इनकी आंख भी निकाल के भाग गये। अब हम चांदी की आंख न बना सके इसलिये कौड़ी की लगा दी है। रामलीला और रासमण्डल भी करवाते हैं। सीताराम, राधाकृष्ण नाच रहे हैं।
राजा और महन्त आदि उन के सेवक आनन्द में बैठे हैं। मन्दिर में सीता-रामादि खड़े और पुजारी वा महन्त जी आसन अथवा गद्दी पर तकिया लगाये बैठते हैं। महागरमी में भी ताला लगा भीतर बन्ध कर देते हैं और आप सुन्दर वायु में पलंग बिछाकर सोते हैं। बहुत से पूजारी अपने नारायण को डब्बी में बन्ध कर ऊपर से कपड़े आदि बांध गले में लटका लेते हैं जैसे कि वानरी अपने बच्चे को गले में लटका लेती है वैसे पूजारियों के गले में भी लटकते हैं। जब कोई मूर्त्ति को तोड़ता है तब हाय-हाय कर छाती पीट बकते हैं कि सीता-राम जी राधा-कृष्ण जी और शिव-पार्वती को दुष्टों ने तोड़ डाला! अब दूसरी मूर्त्ति मंगवा कर जो अच्छे शिल्पी ने संगमरमर की बनाई हो स्थापन कर पूजनी चाहिये।
नारायण को घी के विना भोग नहीं लगता। बहुत नहीं तो थोड़ा सा अवश्य भेज देना। इत्यादि बातें इन पर ठहराते हैं। और रासमण्डल वा रामलीला के अन्त में सीताराम वा राधाकृष्ण से भीख मंगवाते हैं। जहां मेला ठेला होता है वह छोकरे पर मुकुट धर कन्हैया बना मार्ग में बैठाकर भीख मंगवाते हैं। इत्यादि बातों को आप लोग विचार लीजिये कि कितने बड़े शोक की बात है! भला कहो तो सीतारामादि ऐसे दरिद्र और भिक्षुक थे? यह उन का उपहास और निन्दा नहीं तो क्या है? इस से बड़ी अपने माननीय पुरुषों की निन्दा होती है। भला जिस समय ये विद्यमान थे उस समय सीता, रुक्मिणी, लक्ष्मी और पार्वती को सड़क पर वा किसी मकान में खड़ी कर पूजारी कहते कि आओ इन का दर्शन करो और कुछ भेंट पूजा धरो तो सीता-रामादि इन मूर्खों के कहने से ऐसा काम कभी न करते और न करने देते। जो कोई ऐसा उपहास उन का करता है उस को विना दण्ड दिये कभी छोड़ते? हां जब उन्हों से दण्ड न पाया तो इन के कर्मों ने पूजारियों को बहुत सी मूर्त्तिविरोधियों से प्रसादी दिला दी और अब भी मिलती है और जब तक इस कुकर्म को न छोड़ेंगे तब तक मिलेगी। इस में क्या सन्देह है कि जो आर्य्यावर्त्त की प्रतिदिन महाहानि पाषाणादि मूर्त्तिपूजकों का पराजय इन्हीं कर्मों से होता है, क्योंकि पाप का फल दुःख है। इन्हीं पाषाणादि मूर्त्तियों के विश्वास से बहुत सी हानि हो गई। जो न छोड़ेंगे तो प्रतिदिन अधिक-अधिक होती जायगी, इन में से वाममार्गी बड़े भारी अपराधी हैं। जब वे चेला करते हैं तब साधारण को - दं दुर्गायै नम । भं भैरवाय नम । ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।।
इत्यादि मन्त्रें का उपदेश कर देते हैं और बंगाले में विशेष करके एकाक्षरी मन्त्रेपदेश करते हैं। जैसा-
ह्रीं, श्रीं, क्लीं।।
इत्यादि और धनाढ्यों का पूर्णाभिषेक करते हैं। ऐसे दश महाविद्याओं के मन्त्र-
ह्रां ह्रीं ह्रूं बगलामुख्यै फट् स्वाहा।।
कहीं-कहीं-
हूं फट् स्वाहा।।
और मारण, मोहन, उच्चाटन, विद्वेषण, वशीकरण आदि प्रयोग करते हैं।
सो मन्त्र से तो कुछ भी नहीं होता किन्तु क्रिया से सब कुछ करते है। जब किसी को मारने का प्रयोग करते हैं तब इधर कराने वाले से धन ले के आटे वा मिट्टी का पूतला जिस को मारना चाहते हैं उस का बना लेते हैं! उस की छाती, नाभि, कण्ठ में छुरे प्रवेश कर देते हैं। आंख, हाथ, पग में कीलें ठोकते हैं। उस के ऊपर भैरव वा दुर्गा की मूर्त्ति बना हाथ में त्रिशूल दे उस के हृदय पर लगाते हैं। एक वेदी बनाकर मांस आदि का होम करने लगते हैं और उधर दूत आदि भेज के उस को विष आदि से मारने का उपाय करते हैं जो अपने पुरश्चरण के बीच में उस को मार डाला तो अपने को भैरव देवी की सिद्धि वाले बतलाते हैं।
‘‘भैरवो भूतनाथश्च’’ इत्यादि का पाठ करते हैं।
मारय-मारय, उच्चाटय-उच्चाटय, विद्वेषय-विद्वेषय, छिन्धि-छिन्धि, भिन्धि-भिन्धि, वशीकुरु-वशीकुरु, खादय-खादय, भक्षय-भक्षय, त्रेटय-त्रेटय, नाशय-नाशय, मम शत्रून् वशीकुरु-वशीकुरु, हुं फट् स्वाहा।।
इत्यादि मन्त्र जपते, मद्य मांसादि यथेष्ट खाते-पीते, भृकुटी के बीच में सिन्दूर रेखा देते, कभी-कभी काली आदि के लिये किसी आदमी को पकड़ मार होम कर कुछ-कुछ उस का मांस खाते भी हैं। जो कोई भैरवीचक्र में जावे, मद्य मांस न पीवे, न खावे तो उस को मार होम कर देते हैं। उन में से जो अघोरी होता है वह मृत मनुष्य का भी मांस खाता है। अजरी बजरी करने वाले विष्ठा मूत्र भी खाते-पीते हैं। एक चोलीमार्ग और बीजमार्गी भी होते हैं। चोली मार्गवाले एक गुप्त स्थान वा भूमि में एक स्थान बनाते हैं । वहां सब की स्त्रियां, पुरुष, लड़का, लड़की, बहिन, माता, पुत्रवधू आदि सब इकट्ठे हो सब लोग मिलमिला कर मांस खाते, मद्य पीते, एक स्त्री को नंगी कर उस के गुप्त इन्द्रिय की पूजा सब पुरुष करते हैं और उस का नाम दुर्गादेवी धरते हैं। एक पुरुष को नंगा कर उस के गुप्त इन्द्रिय की पूजा सब स्त्रियां करती हैं। जब मद्य पी-पी के उन्मत्त हो जाते हैं तब सब स्त्रियों के छाती के वस्त्र जिसको चोली कहते हैं एक बड़ी मिट्टी की नांद में सब वस्त्र मिलाकर रखके एक-एक पुरुष उस में हाथ डाल के जिस के हाथ में जिस का वस्त्र आवे वह माता, बहिन, कन्या और पुत्रववमू क्यों न हो उस समय के लिये वह उस की स्त्री हो जाती है। आपस में कुकर्म करने और बहुत नशा चढ़ने से जूते आदि से लड़ते भिड़ते हैं। जब प्रातःकाल कुछ अन्धेरे में अपने-अपने घर को चले जाते हैं तब माता माता, कन्या कन्या, बहिन बहिन और पुत्रवधू पुत्रवधू हो जाती हैं। और बीजमार्गी स्त्री पुरुष के समागम कर जल में वीर्य डाल मिलाकर पीते हैं। ये पामर ऐसे कर्मों को मुक्ति के साधन मानते हैं। विद्या विचार सज्जनतादि रहित होते हैं।
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