एकादश समुल्लास खण्ड-13
(प्रश्न) कबीरपन्थी तो अच्छे हैं?
(उत्तर) नहीं।
(प्रश्न) क्यों अच्छे नहीं? पाषाणादि मूर्त्तिपूजा का खण्डन करते हैं। कबीर साहब फूलों से उत्पन्न हुए और अन्त में भी फूल हो गये। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव का जन्म जब नहीं था तब भी कबीर साहब थे। बड़े सिद्ध; ऐसे कि जिस बात को वेद पुराण भी नहीं जान सकता उस को कबीर जानते हैं। सच्चा रास्ता है सो कबीर ही ने दिखलाया है। इनका मन्त्र ‘सत्यनाम कबीर’ आदि है।
(उत्तर) पाषाणादि को छोड़ पलंग, गद्दी, तकिये, खड़ाऊं, ज्योति अर्थात् दीप आदि का पूजना पाषाणमूर्त्ति से न्यून नहीं। क्या कबीर साहब भुनुगा था वा कलियां था जो फूलों से उत्पन्न हुआ? और अन्त में फूल हो गया? यहां जो बात सुनी जाती है वही सच्ची होगी कि कोई जुलाहा काशी में रहता था। उसके लड़के बालक नहीं थे। एक समय थोड़ी सी रात्री थी। एक गली में चला जाता था तो देखा सड़क के किनारे में एक टोकनी में फूलों के बीच में उसी रात का जन्मा बालक था। वह उस को उठा ले गया; अपनी स्त्री को दिया; उस ने पालन किया। जब वह बड़ा हुआ तब जुलाहे का काम करता था। किसी पण्डित के पास संस्कृत पढ़ने के लिये गया। उस ने उस का अपमान किया। कहा कि हम जुलाहे को नहीं पढ़ाते। इसी प्रकार कई पण्डितों के पास फिरा परन्तु किसी ने न पढ़ाया। तब ऊटपटांग भाषा बनाकर जुलाहे आदि नीच लोगों को समझाने लगा। तंबूरे लेकर गाता था; भजन बनाता था। विशेष पण्डित, शास्त्र, वेदों की निन्दा किया करता था। कुछ मूर्ख लोग उस के जाल में फंस गये। जब मर गया तब लोगों ने उस को सिद्ध बना लिया। जो-जो उसने जीते जी बनाया था उस को उस के चेले पढ़ते रहे। कान को मूंद के जो शब्द सुना जाता है उस को अनहद शब्द सिद्धान्त ठहराया। मन की वृत्ति को ‘सुरति’ कहते हैं। उस को उस शब्द सुनने में लगाना उसी को सन्त और परमेश्वर का ध्यान बतलाते हैं। वहां काल नहीं पहुँचता। बर्छी के समान तिलक और चन्दनादि लकड़े की कण्ठी बांधते हैं। भला विचार देखो कि इस में आत्मा की उन्नति और ज्ञान क्या बढ़ सकता है? यह केवल लड़कों के खेल के समान लीला है।
(प्रश्न) पंजाब देश में नानक जी ने एक मार्ग चलाया है। क्योंकि वे भी मूर्त्ति का खण्डन करते थे। मुसलमान होने से बचाये। वे साधु भी नहीं हुए किन्तु गृहस्थ बने रहे। देखो! उन्होंने यह मन्त्र उपदेश किया है इसी से विदित होता है कि उन का आशय अच्छा था-
ओं सत्यनाम कर्त्ता पुरुष निर्भो निर्वैर अकालमूर्त्त अजोनि सहभं गुरु प्रसाद जप आदिसच जुगादि सच है भी सच नानक होसी भी सच।।
(ओ३म्) जिस का सत्य नाम है वह कर्त्ता पुरुष भय और वैररहित अकाल मूर्त्ति जो काल में और जोनि में नहीं आता; प्रकाशमान है उसी का जप गुरु की कृपा से कर। वह परमात्मा आदि में सच था; जुगों की आदि में सच; वर्त्तमान में सच; और होगा भी सच।
(उत्तर) नानक जी का आशय तो अच्छा था परन्तु विद्या कुछ भी नहीं थी। हां! भाषा उस देश की जो कि ग्रामों की है उसे जानते थे। वेदादि शास्त्र और संस्कृत कुछ भी नहीं जानते थे। जो जानते होते तो ‘निर्भय’ शब्द को ‘निर्भो’ क्यों लिखते? और इस का दृष्टान्त उन का बनाया संस्कृती स्तोत्र है। चाहते थे कि मैं संस्कृत में भी ‘पग अड़ाऊं’ परन्तु विना पढ़े संस्कृत कैसे आ सकता है? हां उन ग्रामीणों के सामने कि जिन्होंने संस्कृत कभी सुना भी नहीं था ‘संस्कृती’ बना कर संस्कृत के भी पण्डित बन गये होंगे। यह बात अपने मान प्रतिष्ठा और अपनी प्रख्याति की इच्छा के बिना कभी न करते। उन को अपनी प्रतिष्ठा की इच्छा अवश्य थी। नहीं तो जैसी भाषा जानते थे कहते रहते और यह भी कह देते कि मैं संस्कृत नहीं पढ़ा। जब कुछ अभिमान था तो मान प्रतिष्ठा के लिये कुछ दम्भ भी किया होगा। इसीलिये उन के ग्रन्थ में जहां तहां वेदों की निन्दा और स्तुति भी है; क्योंकि जो ऐसा न करते तो उन से भी कोई वेद का अर्थ पूछता, जब न आता तब प्रतिष्ठा नष्ट होती। इसीलिये पहले ही अपने शिष्यों के सामने कहीं-कहीं वेदों के विरुद्ध बोलते थे और कहीं-कहीं वेद के लिये अच्छा भी कहा है। क्योंकि जो कहीं अच्छा न कहते तो लोग उन को नास्तिक बनाते। जैसे-
वेद पढ़त ब्रह्मा मरे चारों वेद कहानि ।
सन्त कि महिमा वेद न जानी।।
ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर।।
क्या वेद पढ़ने वाले मर गये और नानक जी आदि अपने को अमर समझते थे। क्या वे नहीं मर गये? वेद तो सब विद्याओं का भण्डार है परन्तु जो चारों वेदों को कहानी कहे उस की सब बातें कहानी हैं। जो मूर्खों का नाम सन्त होता है वे विचारे वेदों की महिमा कभी नहीं जान सकते। जो नानक जी वेदों ही का मान करते तो उन का सम्प्रदाय न चलता, न वे गुरु बन सकते थे क्योंकि संस्कृत विद्या तो पढ़े ही नहीं थे तो दूसरे को पढ़ा कर शिष्य कैसे बना सकते थे? यह सच है कि जिस समय नानक जी पंजाब में हुए थे उस समय पंजाब संस्कृत विद्या से सर्वथा रहित मुसलमानों से पीड़ित था। उस समय उन्होंने कुछ लोगों को बचाया। नानक जी के सामने कुछ उन का सम्प्रदाय वा बहुत से शिष्य नहीं हुए थे। क्योंकि अविद्वानों में यह चाल है कि मरे पीछे उन को सिद्ध बना लेते हैं, पश्चात् बहुत सा माहात्म्य करके ईश्वर के समान मान लेते हैं। हां! नानक जी बड़े धनाढ्य और रईस भी नहीं थे परन्तु उन के चेलों ने ‘नानकचन्द्रोदय’ और ‘जन्मशाखी’ आदि में बड़े सिद्ध और बड़े-बड़े ऐश्वर्य वाले थे; लिखा है। नानक जी ब्रह्मा आदि से मिले; बड़ी बातचीत की, सब ने इन का मान्य किया। नानक जी के विवाह में बहुत से घोड़े, रथ, हाथी, सोने, चांदी, मोती, पन्ना, आदि रत्नों से सजे हुए और अमूल्य रत्नों का पारावार न था; लिखा है। भला ये गपोड़े नहीं तो क्या हैं? इस में इनके चेलों का दोष है, नानक जी का नहीं। दूसरा जो उन के पीछे उनके लड़के से उदासी चले। और रामदास आदि से निर्मले। कितने ही गद्दीवालों ने भाषा बनाकर ग्रन्थ में रक्खी है। अर्थात् इन का गुरु गोविन्दसिह जी दशमा हुआ। उन के पीछे उस ग्रन्थ में किसी की भाषा नहीं मिलाई गई किन्तु वहां तक के जितने छोटे-छोटे पुस्तक थे उन सब को इकट्ठे करके जिल्द बंधवा दी। इन लोगों ने भी नानक जी के पीछे बहुत सी भाषा बनाई। कितनों ही ने नाना प्रकार की पुराणों की मिथ्या कथा के तुल्य बना दिये। परन्तु ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर बन के उस पर कर्म उपासना छोड़कर इन के शिष्य झुकते आये इस ने बहुत बिगाड़ कर दिया। नहीं, जो नानक जी ने कुछ भक्ति विशेष ईश्वर की लिखी थी उसे करते आते तो अच्छा था। अब उदासी कहते हैं हम बड़े, निर्मले कहते हैं हम बड़े, अकाली तथा सूतरहसाई कहते हैं कि सर्वोपरि हम हैं। इन में गोविन्दसिह जी शूरवीर हुए। जो मुसलमानों ने उनके पुरुषाओं को बहुत सा दुःख दिया था। उन से वैर लेना चाहते थे परन्तु इन के पास कुछ सामग्री न थी और इधर मुसलमानों की बादशाही प्रज्वलित हो रही थी। इन्होंने एक पुरश्चरण करवाया। प्रसिद्धि की कि मुझ को देवी ने वर और खड्ग दिया है कि तुम मुसलमानों से लड़ो; तुम्हारा विजय होगा। बहुत से लोग उन के साथी हो गये और उन्होंने; जैसे वाममार्गियों ने ‘पञ्च मकार’ चक्रांकितों ने ‘पञ्च संस्कार’ चलाये थे वैसे ‘पञ्च ककार’ चलाये। अर्थात् इनके पञ्च ककार युद्ध में उपयोगी थे। एक ‘केश’ अर्थात् जिस के रखने से लड़ाई में लकड़ी और तलवार से कुछ बचावट हो। दूसरा ‘कंगण’ जो शिर के ऊपर पगड़ी में अकाली लोग रखते हैं और हाथ में ‘कड़ा’ जिस से हाथ और शिर बच सकें। तीसरा ‘काछ’ अर्थात् जानु के ऊपर एक जांघिया कि जो दौड़ने और कूदने में अच्छा होता है बहुत करके अखाड़मल्ल और नट भी इस को धारण इसीलिये करते हैं कि जिस से शरीर का मर्मस्थान बचा रहै और अटकाव न हो। चौथा ‘कंगा’ कि जिस से केश सुधरते हैं। पांचवां ‘काचू’ कि जिस से शत्रु से भेंट भड़क्का होने से लड़ाई में काम आवे। इसीलिये यह रीति गोविन्दसिह जी ने अपनी बुद्धिमत्ता से उस समय के लिये की थी। अब इस समय में उन का रखना कुछ उपयोगी नहीं है। परन्तु अब जो युद्ध के प्रयोजन के लिये बातें कर्त्तव्य थीं उन को धर्म के साथ मान ली हैं।
मूर्त्तिपूजा तो नहीं करते किन्तु उस से विशेष ग्रन्थ की पूजा करते हैं, क्या यह मूर्त्तिपूजा नहीं है? किसी जड़ पदार्थ के सामने शिर झुकाना वा उस की पूजा करनी सब मूर्त्तिपूजा है। जैसे मूर्त्तिवालों ने अपनी दुकान जमाकर जीविका ठाड़ी की है वैसे इन लोगों ने भी कर ली है। जैसे पूजारी लोग मूर्त्ति का दर्शन कराते; भेंट चढ़वाते हैं वैसे नानकपन्थी लोग ग्रन्थ की पूजा करते; कराते; भेंट भी चढ़वाते हैं। अर्थात् मूर्त्तिपूजा वाले जितना वेद का मान्य करते हैं उतना ये लोग ग्रन्थसाहब वाले नहीं करते। हां! यह कहा जा सकता है कि इन्होंने वेदों को न सुना न देखा; क्या करें? जो सुनने और देखने में आवें तो बुद्धिमान् लोग जो कि हठी दुराग्रही नहीं हैं वे सब सम्प्रदाय वाले वेदमत में आ जाते हैं। परन्तु इन सब ने भोजन का बखेड़ा बहुत सा हटा दिया है। जैसे इस को हटाया वैसे विषयासक्ति दुरभिमान को भी हटाकर वेदमत की उन्नति करें तो बहुत अच्छी बात है।
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