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एकादश समुल्लास खण्ड-2

(प्रश्न) अश्वमेध, गोमेध, नरमेध आदि शब्दों का अर्थ क्या है?

(उत्तर) इन का अर्थ तो यह है कि-

राष्ट्रं वा अश्वमेध । अन्नँ्हि गौ ।
अग्निर्वा अश्व । आज्यं मेध ।।
शतपथब्राह्मणे।।

घोड़े, गाय आदि पशु तथा मनुष्य मार के होम करना कहीं नहीं लिखा। केवल वाममार्गियों के ग्रन्थो में ऐसा अनर्थ लिखा है। किन्तु यह भी बात वाममार्गियों ने चलाई। और जहाँ-जहाँ लेख है वहाँ-वहाँ भी वाममार्गियों ने प्रक्षेप किया है। देखो ! राजा न्याय धर्म से प्रजा का पालन करे, विद्यादि का देनेहारा और यजमान द्वारा अग्नि में घी आदि का होम करना अश्वमेध, अन्न, इन्द्रियां, किरण, पृथिवी आदि को पवित्र रखना गोमेध; जब मनुष्य मर जाय तब उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना नरमेध कहाता है।

(प्रश्न) यज्ञकर्त्ता कहते हैं कि यज्ञ करने से यजमान और पशु स्वर्गगामी तथा होम करके फिर पशु को जीता करते थे। यह बात सच्ची है वा नहीं ?

(उत्तर) नहीं। जो स्वर्ग को जाते हों तो ऐसी बात कहने वाले को मार के होम कर स्वर्ग में पहुंचाना चाहिये वा उस के प्रिय माता, पिता, स्त्री और पुत्रदि को मार होम कर स्वर्ग में क्यों नहीं पहुंचाते? वा वेदी में से पुनः क्यों नहीं जिला लेते हैं?

(प्रश्न) जब यज्ञ करते हैं तब वेदों के मन्त्र पढ़ते हैं। जो वेदों में न होता तो कहां से पढ़ते?

(उत्तर) मन्त्र किसी को कहीं पढ़ने से नहीं रोकता क्योंकि वह एक शब्द है। परन्तु उन का अर्थ ऐसा नहीं है कि पशु को मारके होम करना। जैसे-‘अग्नये स्वाहा’ इत्यादि मन्त्रें का अर्थ अग्नि में हवि, पुष्ट्यादिकारक घृतादि उत्तम पदार्थों के होम करने से वायु, वृष्टि, जल शुद्ध होकर जगत् को सुखकारक होते हैं। परन्तु इन सत्य अर्थों को वे मूढ़ नहीं समझते थे क्योंकि जो स्वार्थबुद्धि होते हैं। वे केवल अपने स्वार्थ करने के दूसरा कुछ भी नहीं जानते; मानते। जब इन पोपों का ऐसा अनाचार देखा और दूसरा मरे का तर्पण श्राद्धादि करने को देख कर एक महाभयंकर वेदादि शास्त्रें का निन्दक बौद्ध वा जैन मत प्रचलित हुआ है। सुनते हैं कि एक इसी देश में गोरखपुर का राजा था। उस से पोपों ने यज्ञ कराया। उस की प्रिय राणी का समागम घोड़े के साथ कराने से उसके मर जाने पर पश्चात् वैराग्यवान् होकर अपने पुत्र को राज्य दे, साधु हो, पोपों की पोल निकालने लगा। इसी की शाखारूप चारवाक और आभाणक मत भी हुआ था। उन्होंने इस प्रकार के श्लोक बनाये हैं-

पशुश्चेन्निहत स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति।
स्वपिता यजमानेन तत्र कथं न हिस्यते।।

मृतानामिह जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम्।
गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थं पाथेयकल्पनम्।।

जो पशु मार कर अग्नि में होम करने से पशु स्वर्ग को जाता है तो यजमान अपने पिता आदि को मार के स्वर्ग में क्यों नहीं भेजते। जो मरे हुए मनुष्यों की तृप्ति के लिये श्राद्ध और तर्प्पण होता है तो विदेश में जाने वाले मनुष्य को मार्ग का खर्च खाने पीने के लिये बांधना व्यर्थ है। क्योंकि जब मृतक को श्राद्ध, तर्पण से अन्न, जल पहुंचता है तो जीते हुए परदेश में रहने वाले वा मार्ग में चलनेहारों को घर में रसोई बनी हुई का पत्तल परोस, लोटा भर के उस के नाम पर रखने से क्यों नहीं पहुँचता? जो जीते हुए दूर देश अथवा दश हाथ पर दूर बैठे हुए को दिया हुआ नहीं पहुंचता तो मरे हुए के पास किसी प्रकार नहीं पहुंच सकता। उन के ऐसे युक्तिसिद्ध उपदेशों को मानने लगे और उन का मत बढ़ने लगा। जब बहुत से राजा भूमिये उन के मत में हुए तब पोप जी भी उन की ओर झुके क्योंकि इन को जिधर गफ्फा अच्छा मिले वहीं चले जायें। झट जैन बनने चले। जैन में भी और प्रकार की पोप-लीला बहुत है सो १२वें समुल्लास में लिखेंगे। बहुतों ने इन का मत स्वीकार किया परन्तु कितने ही जो पर्वत, काशी, कन्नौज, पश्चिम, दक्षिण देश वाले थे उन्होंने जैनों का मत स्वीकार नहीं किया था। वे जैनी वेद का अर्थ न जानकर बाहर की पोपलीला को भ्रान्ति से वेद पर मानकर वेदों की भी निन्दा करने लगे। उस के पठनपाठन यज्ञोपवीतादि और ब्रह्मचर्य्यादि नियमों को भी नाश किया। जहां जितने पुस्तक वेदादि के पाये नष्ट किये। आर्य्यों पर बहुत सी राजसत्ता भी चलाई; दुःख दिया। जब उन को भय शंका न रही तब अपने मत वाले गृहस्थ और साधुओं की प्रतिष्ठा और वेदमार्गियों का अपमान और पक्षपात से दण्ड भी देने लगे। और आप सुख आराम और घमण्ड में आ फूलकर फिरने लगे। ऋषभदेव से लेके महावीर पर्यन्त अपने तीर्थंकरों की बड़ी-बड़ी मूर्त्तियाँ बना कर पूजा करने लगे अर्थात् पाषाणादि मूर्त्तिपूजा की जड़ जैनियों से प्रचलित हुई। परमेश्वर का मानना न्यून हुआ, पाषाणादि मूर्त्तिपूजा में लगे। ऐसा तीन सौ वर्ष पर्यन्त आर्यावर्त्त में जैनों का राज रहा। प्रायः वेदार्थज्ञान से शून्य हो गये थे। इस बात को अनुमान से अढ़ाई सहस्र वर्ष व्यतीत हुए होंगे। बाईस सौ वर्ष हुए कि एक शंकराचार्य द्रविड़देशोत्पन्न ब्राह्मण ब्रह्मचर्य से व्याकरणादि सब शास्त्रें को पढ़कर सोचने लगे कि अहह! सत्य आस्तिक वेद मत का छूटना और जैन नास्तिक मत का चलना बड़ी हानि की बात हुई है; इन को किसी प्रकार हटाना चाहिये। शंकराचार्य्य शास्त्र तो पढ़े ही थे परन्तु जैन मत के भी पुस्तक पढ़े थे और उन की युक्ति भी बहुत प्रबल थी। उन्होंने विचारा कि इन को किस प्रकार हटावें? निश्चय हुआ कि उपदेश और शास्त्रर्थ करने से ये लोग हटेंगे। ऐसा विचार कर उज्जैन नगरी में आये। वहां उस समय सुधन्वा राजा था, जो जैनियों के ग्रन्थ और कुछ संस्कृत भी पढ़ा था। वहाँ जाकर वेद का उपदेश करने लगे और राजा से मिल कर कहा कि आप संस्कृत और जैनियों के भी ग्रन्थों को पढ़े हो और जैन मत को मानते हो। इसलिये आपको मैं कहता हूं कि जैनियों के पण्डितों के साथ मेरा शास्त्रर्थ कराइये। इस प्रतिज्ञा पर, जो हारे सो जीतने वाले का मत स्वीकार कर ले। और आप भी जीतने वाले का मत स्वीकार कीजियेगा। यद्यपि सुधन्वा जैन मत में थे तथापि संस्कृत ग्रन्थ पढ़ने से उन की बुद्धि में कुछ विद्या का प्रकाश था। इस से उन के मन में अत्यन्त पशुता नहीं छाई थी। क्योंकि जो विद्वान् होता है वह सत्याऽसत्य की परीक्षा करके सत्य का ग्रहण और असत्य को छोड़ देता है। जब तक सुधन्वा राजा को बड़ा विद्वान् उपदेशक नहीं मिला था तब तक सन्देह में थे कि इन में कौन सा सत्य और कौन सा असत्य है। जब शंकराचार्य्य की यह बात सुनी और बड़ी प्रसन्नता के साथ बोले कि हम शास्त्रर्थ कराके सत्याऽसत्य का निर्णय अवश्य करावेंगे। जैनियों के पण्डितों को दूर-दूर से बुलाकर सभा कराई। उसमें शंकराचार्य्य का वेदमत और जैनियों का वेदविरुद्ध मत था अर्थात् शंकराचार्य्य का पक्ष वेदमत का स्थापन और जैनियों का खण्डन और जैनियों का पक्ष अपने मत का स्थापन और वेद का खण्डन था। शास्त्रर्थ कई दिनों तक हुआ। जैनियों का मत यह था कि सृष्टि का कर्त्ता अनादि ईश्वर कोई नहीं। यह जगत् और जीव अनादि हैं। इन दोनों की उत्पत्ति और नाश कभी नहीं होता। इस से विरुद्ध शंकराचार्य्य का मत था कि अनादि सिद्ध परमात्मा ही जगत् का कर्त्ता है। यह जगत् और जीव झूठा है क्योंकि उस परमेश्वर ने अपनी माया से जगत् बनाया; वही धारण और प्रलय कर्त्ता है। और यह जीव और प्रपञ्च स्वप्नवत् है। परमेश्वर आप ही सब रूप होकर लीला कर रहा है। बहुत दिन तक शास्त्रर्थ होता रहा परन्तु अन्त में युक्ति और प्रमाण से जैनियों का मत खण्डित और शंकराचार्य्य का मत अखण्डित रहा। तब उन जैनियों के पण्डित और सुधन्वा राजा ने वेद मत को स्वीकार कर लिया; जैनमत को छोड़ दिया। पुनः बड़ा हल्ला गुल्ला हुआ और सुधन्वा राजा ने अन्य अपने इष्ट मित्र राजाओं को लिखकर शंकराचार्य्य से शास्त्रर्थ कराया। परन्तु जैन का पराजय समय होने से पराजित होते गये। पश्चात् शंकराचार्य्य के सर्वत्र आर्यावर्त्त देश में घूमने का प्रबन्ध सुधन्वादि राजाओं ने कर दिया और उन की रक्षा के लिये साथ में नौकर चाकर भी रख दिये। उसी समय से सब के यज्ञोपवीत होने लगे और वेदों का पठन-पाठन भी चला। दस वर्ष के भीतर सर्वत्र आर्यावर्त्त देश में घूम कर जैनियों का खण्डन और वेदों का मण्डन किया। परन्तु शंकराचार्य्य के समय में जैन विध्वंस अर्थात् जितनी मूर्त्तियां जैनियों की निकलती हैं। वे शंकराचार्य्य के समय में टूटी थीं और जो विना टूटी निकलती हैं वे जैनियों ने भूमि में गाड़ दी थीं कि तोड़ी न जायें। वे अब तक कहीं भूमि में से निकलती हैं। शंकराचार्य्य के पूर्व शैवमत भी थोड़ा सा प्रचरित था; उस का भी खण्डन किया। वाममार्ग का खण्डन किया। उस समय इस देश में धन बहुत था और स्वदेशभक्ति भी थी। जैनियों के मन्दिर शंकराचार्य्य और सुधन्वा राजा ने नहीं तुड़वाये थे क्योंकि उन में वेदादि की पाठशाला करने की इच्छा थी। जब वेदमत का स्थापन हो चुका और विद्या प्रचार करने का विचार करते ही थे। उतने में दो जैन ऊपर से कथनमात्र वेदमत और भीतर से कट्टर जैन अर्थात् कपटमुनि थे; शंकराचार्य्य उन पर अति प्रसन्न थे। उन दोनों ने अवसर पाकर शंकराचार्य्य को ऐसी विषयुक्त वस्तु खिलाई कि उन की क्षुधा मन्द हो गई। पश्चात् शरीर में फोड़े फुन्सी होकर छः महीने के भीतर शरीर छूट गया। तब सब निरुत्साही हो गये और जो विद्या का प्रचार होने वाला था वह भी न होने पाया। जो-जो उन्होंने शारीरक भाष्यादि बनाये थे उन का प्रचार शंकराचार्य्य के शिष्य करने लगे। अर्थात् जो जैनियों के खण्डन के लिये ब्रह्म सत्य जगत् मिथ्या और जीव ब्रह्म की एकता कथन की थी उस का उपदेश करने लगे। दक्षिण में शृंगेरी, पूर्व में भूगोवर्धन, उत्तर में जोशी और द्वारिका में शारदामठ बांध कर शंकराचार्य के शिष्य महन्त बन और श्रीमान् होकर आनन्द करने लगे क्योंकि शंकराचार्य्य के पश्चात् उन के शिष्यों की बड़ी प्रतिष्ठा होने लगी। अब इसमें विचारना चाहिये कि जो जीव ब्रह्म की एकता मिथ्या शंकराचार्य्य का निज मत था तो वह अच्छा मत नहीं और जो जैनियों के खण्डन के लिये उस मत का स्वीकार किया हो तो कुछ अच्छा है। नवीन वेदान्तियों का मत ऐसा है-

(प्रश्न) जगत् स्वप्नवत्, रज्जू में सर्प, सीप में चांदी, मृगतृष्णिका में जल, गन्धर्वनगर इन्द्रजालवत् यह संसार झूठा है। एक ब्रह्म ही सच्चा है।

(सिद्धान्ती) झूठा तुम किस को कहते हो?

(नवीन वेदान्ती) जो वस्तु न हो और प्रतीत होवे।

(सिद्धान्ती) जो वस्तु ही नहीं उस की प्रतीति कैसे हो सकती है?

(नवीन०) अध्यारोप से।

(सिद्धान्ती) अध्यारोप किस को कहते हो?

(नवीन०) ‘वस्तुन्यवस्त्वारोपणमध्यास ’।।

‘अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपञ्च्यते’।।

पदार्थ कुछ और हो उस में अन्य वस्तु का आरोपण करना अध्यास, अध्यारोप और उस का निराकरण करना अपवाद कहाता है। इन दोनों से प्रपंच रहित ब्रह्म में प्रपंचरूप जगत् विस्तार करते हैं।

(सिद्धान्ती) तुम रज्जू को वस्तु और सर्प को अवस्तु मान कर इस भ्रमजाल में पड़े हो। क्या सर्प वस्तु नहीं है। जो कहो कि रज्जू में नहीं तो देशान्तर में और उसका संस्कारमात्र हृदय में है। फिर वह सर्प भी अवस्तु नहीं रहा । वैसे ही स्थाणु में पुरुष, सीप में चांदी आदि की व्यवस्था समझ लेना। और स्वप्न में भी जिनका भान होता है वे देशान्तर में हैं और उनके संस्कार आत्मा में भी हैं। इसलिये वह स्वप्न भी वस्तु में अवस्तु के आरोपण के समान नहीं।

(नवीन०) जो कभी न देखा, न सुना, जैसा कि अपना शिर कटा है और आप रोता है। जल की धारा ऊपर चली जाती है। जो कभी न हुआ था; देखा जाता है वह सत्य क्योंकर हो सके?

(सिद्धान्ती) यह भी दृष्टान्त तुम्हारे पक्ष को सिद्ध नहीं करता क्योंकि विना देखे सुने संस्कार नहीं होता। संस्कार के विना स्मृति और स्मृति के विना साक्षात् अनुभव नहीं होता। जब किसी से सुना वा देखा कि अमुक का शिर कटा और उसके भाई वा बाप आदि को लड़ाई में प्रत्यक्ष रोते देखा और फोहारे का जल ऊपर चढ़ते देखा वा सुना संस्कार उसी के आत्मा में होता है। जब यह जाग्रत के पदार्थ से अलग होके देखता है तब अपने आत्मा में उन्हीं पदार्थों को, जिन को देखा वा सुना होता देखता है। जब अपने ही में देखता है तब जानो अपना शिर कटा, आप रोता और ऊपर जाती जल की धारा को देखता है। यह भी वस्तु में अवस्तु के आरोपण के सदृश नहीं किन्तु जैसे नक्शा निकालने वाले पूर्व दृष्ट श्रुत वा किये हुओं को आत्मा में से निकाल कर कागज पर लिख देते हैं अथवा प्रतिबिम्ब का उतारने वाला बिम्ब को देख आत्मा में आकृति को धर बराबर लिख देता है। हां! इतना है कि कभी-कभी स्वप्न में स्मरणयुक्त प्रतीति जैसा कि अपने अध्यापक को देखता है और कभी बहुत देखने और सुनने में अतीत ज्ञान को साक्षात्कार करता है। तब स्मरण नहीं रहता कि जो मैंने उस समय देखा, सुना वा किया था उसी को देखता वा करता हूं। जैसा जागृत में स्मरण करता है वैसा स्वप्न में नहीं होता। देखो! इसलिये तुम्हारा अध्यास और आरोप का लक्षण झूठा है। और जो वेदान्ती लोग विवर्त्तवाद अर्थात् रज्जू में सर्पादि के भान होने का दृष्टान्त ब्रह्म में जगत् के भान होने में देते हैं; वह भी ठीक नहीं।

(नवीन) अधिष्ठान के विना अध्यस्त प्रतीत नहीं होता जैसे रज्जू न हो तो सर्प का भी भान नहीं हो सकता। जैसे रज्जू में सर्प तीन काल में नहीं परन्तु अन्धकार और कुछ प्रकाश के मेल में अकस्मात् रज्जू को देखने से सर्प का भ्रम होकर भय से कंपता है। जब उस को दीप आदि से देख लेता है उसी समय भ्रम और भय निवृत्त हो जाता है। वैसे ब्रह्म में जो जगत् की मिथ्या प्रतीति हुई है वह ब्रह्म के साक्षात्कार होने में उस जगत् की निवृत्ति और ब्रह्म की प्रतीति होती है। जैसी कि सर्प की निवृत्ति और रज्जू की प्रतीति होती है।

(सिद्धान्ती) ब्रह्म में जगत् का भान किसको हुआ?

(नवीन) जीव को।

(सिद्धान्ती) जीव कहां से हुआ?

(नवीन) अज्ञान से।

(सिद्धान्ती) अज्ञान कहां से हुआ और कहां रहता है?

(नवीन) अज्ञान अनादि और ब्रह्म में रहता है।

(सिद्धान्ती) ब्रह्म में ब्रह्म का अज्ञान हुआ वा किसी अन्य का और वह अज्ञान किस को हुआ?

(नवीन) चिदाभास को।

(सिद्धान्ती) चिदाभास का स्वरूप क्या है?

(नवीन) ब्रह्म। ब्रह्म को ब्रह्म का अज्ञान अर्थात् स्वरूप को आप ही भूल जाता है।

(सिद्धान्ती) उसके भूलने में निमित्त क्या है?

(नवीन) अविद्या।

(सिद्धान्ती) अविद्या सर्वव्यापी सर्वज्ञ का गुण है वा अल्पज्ञ का?

(नवीन) अल्पज्ञ का।

(सिद्धान्ती) तो तुम्हारे मत में विना एक अनन्त सर्वज्ञ चेतन के दूसरा कोई चेतन है वा नहीं? और अल्पज्ञ कहां से आया? हां! जो अल्पज्ञ चेतन ब्रह्म से भिन्न मानो तो ठीक है। जब एक ठिकाने ब्रह्म को अपने स्वरूप का अज्ञान हो तो सर्वत्र अज्ञान फैल जाय। जैसे शरीर में फोड़े की पीड़ा सब शरीर के अवयवों को निकम्मा कर देती है; इसी प्रकार ब्रह्म भी एकदेश में अज्ञानी और क्लेशयुक्त हो तो सब ब्रह्म भी अज्ञानी और पीड़ा के अनुभवयुक्त हो जाय।

(नवीन) यह सब उपाधि का धर्म है, ब्रह्म का नहीं।

(सिद्धान्ती) उपाधि जड़ है वा चेतन और सत्य वा असत्य।

(नवीन) अनिर्वचनीय है अर्थात् जिस को जड़ वा चेतन, सत्य वा असत्य नहीं कह सकते।

(सिद्धान्ती) यह तुम्हारा कहना ‘वदतो व्याघात ’ के तुल्य है क्योंकि कहते हो अविद्या है, जिस को जड़, चेतन, सत्, असत् नहीं कह सकते। यह ऐसी बात है कि जैसे सोने में पीतल मिला हो उस को सराफ के पास परीक्षा करावे कि यह सोना है वा पीतल। तब यही कहोगे कि इस को हम न सोना न पीतल कह सकते हैं किन्तु इस में दोनों धातु मिली हैं।

(नवीन) देखो! जैसे घटाकाश, मठाकाश, मेघाकाश और महदाकाशोपाधि अर्थात् घड़ा घर और मेघ के होने से भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं, वास्तव में महदाकाश ही है; ऐसे ही माया, अविद्या, समष्टि, व्यष्टि और अन्तःकरणों की उपाधियों से ब्रह्म अज्ञानियों को पृथक्-पृथक् प्रतीत हो रहा है; वास्तव में एक ही है। देखो! अग्रिम प्रमाण में क्या कहा है-

अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।। उपनिषद्

जैसे अग्नि लम्बे, चौड़े, गोल, छोटे, बड़े सब आकृति वाले पदार्थों में व्यापक होकर तदाकार दीखता और उन से पृथक् है; वैसे सर्वव्यापक परमात्मा अन्तःकरणों में व्यापक होके अन्तःकरणाऽऽकार हो रहा है परन्तु उन से अलग है।

(सिद्धान्ती) यह भी तुम्हारा कहना व्यर्थ है क्योंकि जैसे घट, मठ, मेघों और आकाश को भिन्न मानते हो वैसे कारणकार्य्यरूप जगत् और जीव को ब्रह्म से और ब्रह्म को इनसे भिन्न मान लो?

(नवीन) जैसा अग्नि सब में प्रविष्ट होकर देखने में तदाकार दीखता है। इसी प्रकार परमात्मा जड़ और जीव में व्यापक होकर आकारवाला, अज्ञानियों को आकारयुक्त दीखता है। वास्तव में ब्रह्म न जड़ और न जीव है। जैसे सहस्र जल के कूण्डे धरे हों उनमें सूर्य्य के सहस्रों प्रतिबिम्ब दीखते हैं; वस्तुतः सूर्य्य एक है। कूण्डों के नष्ट होने से जल के चलने वा फैलने से सूर्य्य न नष्ट होता है, न चलता और न फैलता। इसी प्रकार अन्तःकरणों में ब्रह्म का आभास जिस को चिदाभास कहते हैं; पड़ा है। जब तक अन्तःकरण है तभी तक जीव है। जब अन्तःकरण ज्ञान से नष्ट होता है तब जीव ब्रह्मस्वरूप है। इस चिदाभास को अपने ब्रह्मस्वरूप का अज्ञान कर्त्ता, भोक्ता सुखी, दुःखी; पापी, पुण्यात्मा, जन्म, मरण अपने में आरोपित करता है। तब तक संसार के बन्धनों से नहीं छूटता।

(सिद्धान्ती) यह दृष्टान्त तुम्हारा व्यर्थ है क्योंकि सूर्य आकार वाला; जल कूण्डे भी आकार वाले हैं। सूर्य्य जलकूण्डे से भिन्न और सूर्य से जल कूण्डे भिन्न हैं तभी प्रतिबिम्ब पड़ता है। यदि निराकार होते तो उन का प्रतिबिम्ब कभी न होता। और जैसे परमेश्वर निराकार, सर्वत्र आकाशवत् व्यापक होने से ब्रह्म से कोई पदार्थ वा पदार्थों से ब्रह्म पृथक् नहीं हो सकता और व्याप्यव्यापक सम्बन्ध से एक भी नहीं हो सकता। अर्थात् अन्वय व्यतिरेक भाव से देखने से व्याप्यव्यापक मिले हुए और सदा पृथक् रहते हैं। जो एक हो तो अपने में व्याप्यव्यापक भाव सम्बन्ध कभी नहीं घट सकता। सो बृहदारण्यक के अन्तर्यामी ब्राह्मण में स्पष्ट लिखा है और ब्रह्म का आभास भी नहीं पड़ सकता क्योंकि विना आकार के आभास का होना असम्भव है। जो अन्तःकरणोपाधि से ब्रह्म को जीव मानते हो सो तुम्हारी बात बालक के समान है क्योंकि अन्तःकरण चलायमान, खण्ड-खण्ड और ब्रह्म अचल और अखण्ड है। यदि तुम ब्रह्म और जीव को पृथक्-पृथक् न मानोगे तो इसका उत्तर दीजिये कि जहाँ-जहाँ अन्तःकरण चला जायगा वहाँ-वहाँ के ब्रह्म को अज्ञानी और जिस-जिस देश को छोड़ेगा वहाँ-वहाँ के ब्रह्म को ज्ञानी कर देवेगा वा नहीं? जैसे छाता प्रकाश के बीच में जहाँ-जहाँ जाता है वहाँ-वहाँ के प्रकाश को आवरणयुक्त और जहाँ-जहाँ से हटता है वहाँ-वहाँ के प्रकाश को आवरणरहित कर देता है। वैसे ही अन्तःकरण ब्रह्म को क्षण-क्षण में ज्ञानी, अज्ञानी, बद्ध और मुक्त करता जायगा। अखण्ड ब्रह्म के एक देश में आवरण का प्रभाव सर्वदेश में होने से सब ब्रह्म अज्ञानी हो जायगा क्योंकि वह चेतन है। और मथुरा में जिस अन्तःकरणस्थ ब्रह्म ने जो वस्तु देखी उसका स्मरण उसी अन्तःकरणस्थ से काशी में नहीं हो सकता क्योंकि ‘अन्यदृष्टमन्यो न स्मरतीति न्यायात्’ और के देखे का स्मरण और को नहीं होता। जिस चिदाभास ने मथुरा में देखा वह चिदाभास काशी में नहीं रहता किन्तु जो मथुरास्थ अन्तःकरण का प्रकाशक है वह काशीस्थ ब्रह्म नहीं होता। जो ब्रह्म ही जीव है, पृथक् नहीं तो जीव को सर्वज्ञ होना चाहिये। यदि ब्रह्म का प्रतिबिम्ब पृथक् है तो प्रत्यभिज्ञा अर्थात् पूर्व दृष्ट, श्रुत का ज्ञान किसी को नहीं हो सकेगा। जो कहो कि ब्रह्म एक है इसलिये स्मरण होता है तो एक ठिकाने अज्ञान वा दुःख होने से सब ब्रह्म को अज्ञान वा दुःख हो जाना चाहिये। और ऐसे-ऐसे दृष्टान्तों से नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव ब्रह्म को तुमने अशुद्ध अज्ञानी और बद्ध आदि दोषयुक्त कर दिया है और अखण्ड को खण्ड-खण्ड कर दिया।

(नवीन) निराकार का भी आभास होता है जैसा कि दर्पण वा जलादि में आकाश का आभास पड़ता है। वह नीला वा किसी अन्य प्रकार गम्भीर गहरा दीखता है वैसा ब्रह्म का भी सब अन्तःकरणों में आभास पड़ता है।

(सिद्धान्ती) जब आकाश में रूप ही नहीं है तो उस को आंख से कोई भी नहीं देख सकता। जो पदार्थ दीखता ही नहीं वह दर्पण और जलादि में कैसे दीखेगा? गहरा वा छिदरा साकार वस्तु दीखता है; निराकार नहीं।

(नवीन) तो फिर जो यह ऊपर नीला सा दीखता है, वही आदर्श वा जल में भान होता है। वह क्या पदार्थ है?

(सिद्धान्ती) वह पृथिवी से उड़ कर जल, पृथिवी और अग्नि के त्रसरेणु हैं। जहां से वर्षा होती है वहां जल न हो तो वर्षा कहां से होवे? इसलिये जो दूर-दूर तम्बू के समान दीखता है वह जल का चक्र है। जैसे कुहिर दूर से घनाकार दीखता है और निकट से छिदिरा और डेरे के समान भी दीखता है वैसा आकाश में जल दीखता है।

(नवीन) क्या हमारे रज्जू, सर्प और स्वप्नादि के दृष्टान्त मिथ्या हैं?

(सिद्धान्ती) नहीं। तुम्हारी समझ मिथ्या है। सो हम ने पूर्व लिख दिया। भला यह तो कहो कि प्रथम अज्ञान किस को होता है?

(नवीन) ब्रह्म को।

(सिद्धान्ती) ब्रह्म अल्पज्ञ है वा सर्वज्ञ।

(नवीन) न सर्वज्ञ, न अल्पज्ञ। क्योंकि सर्वज्ञता और अल्पज्ञता उपाधि सहित में होती है।

(सिद्धान्ती) उपाधि से सहित कौन है?

(नवीन) ब्रह्म।

(सिद्धान्ती) तो ब्रह्म ही सर्वज्ञ और अल्पज्ञ हुआ तो तुमने सर्वज्ञ और अल्पज्ञ का निषेध क्यों किया था? जो कहो कि उपाधि कल्पित अर्थात् मिथ्या है तो कल्पक अर्थात् कल्पना करने वाला कौन है?

(नवीन) जीव ब्रह्म है वा अन्य?

(सिद्धान्ती) अन्य है। क्योंकि जो ब्रह्मस्वरूप है तो जिस ने मिथ्या कल्पना की वह ब्रह्म ही नहीं हो सकता। जिस की कल्पना मिथ्या है वह सच्चा कब हो सकता है?

(नवीन) हम सत्य और असत्य को झूठ मानते हैं और वाणी से बोलना भी मिथ्या है।

(सिद्धान्ती) जब तुम झूठ कहने और मानने वाले हो तो झूठे क्यों नहीं?

(नवीन) रहो। झूठ और सच हमारे ही में कल्पित है और हम दोनों के साक्षी अधिष्ठान हैं।

(सिद्धान्ती) जब तुम सत्य और झूठ के आधार हुए तो साहूकार और चोर के सदृश तुम्हीं हुए। इससे तुम प्रामाणिक भी नहीं रहे। क्योंकि प्रामाणिक वह होता है जो सर्वदा सत्य माने, सत्य बोले, सत्य करे, झूठ न माने, झूठ न बोले और झूठ कदाचित् न करे। जब तुम अपनी बात को आप ही झूठ करते हो तो तुम अनाप्त मिथ्यावादी हो।

(नवीन) अनादि माया जो कि ब्रह्म के आश्रय और ब्रह्म ही का आवरण करती है उस को मानते हो वा नहीं?

(सिद्धान्ती) नहीं मानते। क्योंकि तुम माया का अर्थ ऐसा करते हो कि जो वस्तु न हो और भासे है तो इस बात को वह मानेगा जिस के हृदय की आंख फूट गई हो। क्योंकि जो वस्तु नहीं उस का भासमान होना सर्वथा असम्भव है। जैसा बन्ध्या के पुत्र का प्रतिबिम्ब कभी नहीं हो सकता। और यह ‘सन्मूला सोम्येमा प्रजा ’ इत्यादि छान्दोग्य उपनिषत् के वचनों से विरुद्ध कहते हो?

(नवीन) क्या तुम वसिष्ठ, शंकराचार्य आदि और निश्चलदास पर्य्यन्त जो तुम से अधिक पण्डित हुए हैं उन्होंने लिखा है उस का खण्डन करते हो? हम को तो वसिष्ठ, शंकराचार्य और निश्चलदास आदि अधिक दीखते हैं।

(सिद्धान्ती) तुम विद्वान् हो वा अविद्वान्?

(नवीन) हम भी कुछ विद्वान् हैं।

(सिद्धान्ती) अच्छा तो वसिष्ठ, शंकराचार्य और निश्चलदास के पक्ष का हमारे सामने स्थापन करो; हम खण्डन करते हैं। जिस का पक्ष सिद्ध हो वही बड़ा है। जो उन की और तुम्हारी बात अखण्डनीय होती है तो तुम उन की युक्तियां लेकर हमारी बात का खण्डन क्यों न कर सकते? तब तुम्हारी और उन की बात माननीय होवे। अनुमान है कि शंकराचार्य आदि ने तो जैनियों के मत के खण्डन करने ही के लिये यह मत स्वीकार किया हो क्योंकि देश काल के अनुकूल अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिये बहुत से स्वार्थी विद्वान् अपने आत्मा के ज्ञान से विरुद्ध भी कर लेते हैं। और जो इन बातों को अर्थात् जीव ईश्वर की एकता, जगत् मिथ्या आदि व्यवहार सच्चा ही मानते थे तो उन की बात सच्ची नहीं हो सकती। और निश्चलदास का पाण्डित्य देखो ऐसा है ‘जीवो ब्रह्माऽभिन्नश्चेतनत्वात्’ उन्होंने ‘वृत्तिप्रभाकर’ में जीव ब्रह्म की एकता के लिये अनुमान लिखा है कि चेतन होने से जीव ब्रह्म से अभिन्न है। यह बहुत कम समझ पुरुष की बात के सदृश बात है। क्योंकि साधर्म्यमात्र से एक दूसरे के साथ एकता नहीं होती; वैधर्म्य भेदक होता है। जैसे कोई कहे कि ‘पृथिवी जलाऽभिन्ना जडत्वात्’ जड़ के होने से पृथिवी जल से अभिन्न है। जैसा यह वाक्य संगत कभी नहीं हो सकता वैसे निश्चलदास जी का भी लक्षण व्यर्थ है। क्योंकि जो अल्प, अल्पज्ञता और भ्रान्तिमत्त्वादि धर्म्म जीव में ब्रह्म से और सर्वगत सर्वज्ञता और निर्भ्रान्तित्वादि वैधर्म्य ब्रह्म में जीव से विरुद्ध है इस से ब्रह्म और जीव भिन्न-भिन्न हैं। जैसे गन्धवत्त्व कठिनत्व आदि भूमि के धर्म, रसवत्त्व द्रवत्वादि जल के धर्म से विरुद्ध होने से पृथिवी और जल एक नहीं हैं। वैसे जीव और ब्रह्म के वैधर्म्य होने से जीव और ब्रह्म एक न कभी थे, न हैं न कभी होंगे। इतने ही से निश्चलदासादि को समझ लीजिये कि उन में कितना पाण्डित्य था और जिस ने योगवासिष्ठ बनाया है वह कोई आधुनिक वेदान्ती था। न वाल्मीकि, वसिष्ठ और रामचन्द्र का बनाया वा कहा सुना है। क्योंकि वे सब वेदानुयायी थे वेद से विरुद्ध न बना सकते और न कह सुन सकते थे।

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Do not write anywhere to kill animals, animals and horses etc. Only the scriptures of the left-wingers have written such a meaning. But this was also done by the leftists. And wherever the article is there, the leftists have also launched there. Look! The king should obey the people with justice, the home of giver etc. in the fire by the giver of knowledge and keeping the ashwamedha, food, senses, rays, earth etc. sacred; When a person dies, then the burning of his body methodically is called Narimedha.

 

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