एकादश समुल्लास खण्ड-3
(प्रश्न) क्या व्यास जी ने जो शारीरक सूत्र बनाये हैं उन में भी जीव ब्रह्म की एकता दीखती है? देखो-
सम्पद्याऽऽविर्भाव स्वेन शब्दात्।।१।।
ब्राह्मेण जैमिनिरुपन्यासादिभ्य ।।२।।
चिति तन्मात्रेण तदात्मकत्वादित्यौडुलोमि ।।३।।
एवमप्युपन्यासात् पूर्वभावादविरोधं बादरायण ।।४।।
अत एव चानन्याधिपति ।।५।।
अर्थात् जीव अपने स्वरूप को प्राप्त होकर प्रकट होता है जो कि पूर्व ब्रह्मस्वरूप था क्योंकि स्व शब्द से अपने ब्रह्मस्वरूप का ग्रहण होता है।।१।।
‘अयमात्मा अपहतपाप्मा’ इत्यादि उपन्यास ऐश्वर्य प्राप्ति पर्य्यन्त हेतुओं से ब्रह्मस्वरूप से जीव स्थित होता है ऐसा जैमिनि आचार्य्य का मत है।।२।।
और औडुलोमि आचार्य्य तदात्मकस्वरूप निरूपणादि बृहदारण्यक के हेतुरूप के वचनों से चैतन्यमात्र स्वरूप से जीव मुक्ति में स्थित रहता है।।३।।
व्यास जी इन्हीं पूर्वोक्त उपन्यासादि ऐश्वर्यप्राप्तिरूप हेतुओं से जीव का ब्रह्मस्वरूप होने में अविरोध मानते हैं।।४।।
योगी ऐश्वर्यसहित अपने ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त होकर अन्य अधिपति से रहित अर्थात् स्वयम् आप अपना और सब का अधिपतिरूप ब्रह्मस्वरूप से मुक्ति में स्थित रहता है।।५।।
(उत्तर) इन सूत्रें का अर्थ इस प्रकार का नहीं किन्तु इन का यथार्थ अर्थ यह है। सुनिये! जब तक जीव अपने स्वकीय शुद्धस्वरूप को प्राप्त, सब मलों से रहित होकर पवित्र नहीं होता तब तक योग से ऐश्वर्य को प्राप्त होकर अपने अन्तर्यामी ब्रह्म को प्राप्त होके आनन्द में स्थित नहीं हो सकता।।१।। इसी प्रकार जब पापादि रहित ऐश्वर्ययुक्त योगी होता है तभी ब्रह्म के साथ मुक्ति के आनन्द को भोग सकता है। ऐसा जैमिनि आचार्य का मत है।।२।।
जब अविद्यादि दोषों से छूट शुद्ध चैतन्यमात्र स्वरूप से जीव स्थिर होता है तभी ‘तदात्मकत्व’ अर्थात् ब्रह्मस्वरूप के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होता है।।३।।
जब ब्रह्म के साथ ऐश्वर्य और शुद्ध विज्ञान को जीते ही जीवन्मुक्त होता है तब अपने निर्मल पूर्व स्वरूप को प्राप्त होकर आनन्दित होता है ऐसा व्यासमुनि जी का मत है।।४।।
जब योगी का सत्य संकल्प होता है तब स्वयं परमेश्वर को प्राप्त हो कर मुक्तिसुख को पाता है। वहां स्वाधीन स्वतन्त्र रहता है। जैसा संसार में एक प्रधान दूसरा अप्रधान होता है वैसा मुक्ति में नहीं। किन्तु सब मुक्त जीव एक से रहते हैं।।५।। जो ऐसा न हो तो-
नेतरोऽनुपपत्ते ।।१।।
भेदव्यपदेशाच्च।।२।।
विशेषणभेदव्यपदेशाभ्यां च नेतरौ।।३।।
अस्मिन्नस्य च तद्योगं शास्ति।।४।।
अन्तस्तद्धर्मोपदेशात्।।५।।
भेदव्यपदेशाच्चान्य ।।६।।
गुहां प्रविष्टावात्मानौ हि तद्दर्शनात्।।७।।
अनुपपत्तेस्तु न शारीर ।।८।।
अन्तर्याम्यधिदैवादिषु तद्धर्मव्यपदेशात्।।९।।
शारीरश्चोभयेऽपि हि भेदेनैनमधीयते।।१०।। -व्यासमुनिकृतवेदान्तसूत्रणि।।
ब्रह्म से इतर जीव सृष्टिकर्त्ता नहीं है क्योंकि इस अल्प, अल्पज्ञ सामर्थ्यवाले जीव में सृष्टिकर्तृत्व नहीं घट सकता। इससे जीव ब्रह्म नहीं।।१।।
‘रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति’ यह उपनिषत् का वचन है। जीव और ब्रह्म भिन्न हैं क्योंकि इन दोनों का भेद प्रतिपादन किया है। जो ऐसा न होता तो रस अर्थात् आनन्दस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त होकर जीव आनन्दस्वरूप होता है यह प्राप्तिविषय ब्रह्म और प्राप्त होने वाले जीव का निरूपण नहीं घट सकता। इसलिये जीव और ब्रह्म एक नहीं।।२।।
दिव्यो ह्यमूर्त्त पुरुष स बाह्याभ्यन्तरो ह्यज ।
अप्राणो ह्यमना शुभ्रो ह्यक्षरात्परत पर ।। -मुण्डकोपनिषदि।।
दिव्य, शुद्ध, मूर्त्तिमत्त्वरहित, सब में पूर्ण, बाहर-भीतर निरन्तर व्यापक, अज, जन्म-मरण शरीरधारणादि रहित, श्वास प्रश्वास, शरीर और मन के सम्बन्ध से रहित, प्रकाशस्वरूप इत्यादि परमात्मा के विशेषण और अक्षर नाशरहित प्रकृति से परे अर्थात् सूक्ष्म जीव उससे भी परमेश्वर परे अर्थात् ब्रह्म सूक्ष्म है। प्रकृति और जीवों से ब्रह्म का भेद प्रतिपादनरूप हेतुओं से प्रकृति और जीवों से ब्रह्म भिन्न है।।३।। इसी सर्वव्यापक ब्रह्म में जीव का योग वा जीव में ब्रह्म का योग प्रतिपादन करने से जीव और ब्रह्म भिन्न हैं, क्योंकि योग भिन्न पदार्थों का हुआ करता है।।४।।
इस ब्रह्म के अन्तर्यामी आदि धर्म कथन किये हैं और जीव के भीतर व्यापक होने से व्याप्य जीव ब्रह्म से भिन्न है क्योंकि व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध भी भेद में संघटित होता है।।५।।
जैसे परमात्मा जीव से भिन्नस्वरूप है वैसे इन्द्रिय, अन्तःकरण, पृथिवी आदि भूत, दिशा, वायु सूर्यादि दिव्यगुणों के योग से देवता वाच्य विद्वानों से भी परमात्मा भिन्न है।।६।।
‘गुहां प्रविष्टौ सुकृतस्य लोके’ इत्यादि उपनिषदों के वचनों से जीव और परमात्मा भिन्न हैं। वैसा ही उपनिषदों में बहुत ठिकाने दिखलाया है।।७।।
‘शरीरे भव शारीर ’ शरीरधारी जीव ब्रह्म नहीं है क्योंकि ब्रह्म के गुण, कर्म, स्वभाव जीव में नहीं घटते।।८।।
(अधिदैव) सब दिव्य मन आदि इन्द्रियादि पदार्थों (अविमभूत) पृथिव्यादि भूत (अध्यात्म) सब जीवों में परमात्मा अन्तर्यामीरूप से स्थित है क्योंकि उसी परमात्मा के व्यापकत्वादि धर्म सर्वत्र उपनिषदों में व्याख्यात हैं।।९।।
शरीरधारी जीव ब्रह्म नहीं है क्योंकि ब्रह्म से जीव का भेद स्वरूप से सिद्ध है।।१०।।
इत्यादि शारीरक सूत्रें से भी स्वरूप से ब्रह्म और जीव का भेद सिद्ध है। वैसे ही वेदान्तियों का उपक्रम और उपसंहार भी नहीं घट सकता, क्योंकि ‘उपक्रम’ अर्थात् आरम्भ ब्रह्म से और ‘उपसंहार’ अर्थात् प्रलय भी ब्रह्म ही में करते हैं। जब दूसरा कोई वस्तु नहीं मानते तो उत्पत्ति और प्रलय भी ब्रह्म के धर्म हो जाते हैं। और उत्पत्ति विनाशरहित ब्रह्म का प्रतिपादन वेदादि सत्यशास्त्रें में किया है। वह नवीन वेदान्तियों पर कोप करेगा। क्योंकि निर्विकार, अपरिणामी, शुद्ध, सनातन निर्भ्रान्तत्वादि विशेषणयुक्त ब्रह्म में विकार, उत्पत्ति और अज्ञान आदि का सम्भव किसी प्रकार नहीं हो सकता। तथा उपसंहार (प्रलय) के होने पर भी ब्रह्म, कारणात्मक जड़ और जीव बराबर बने रहते हैं। इसलिये उपक्रम और उपसंहार की भी इन वेदान्तियों की कल्पना झूठी है। ऐसी अन्य बहुत सी अशुद्ध बातें हैं कि जो शास्त्र और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध हैं। इस के पश्चात् कुछ जैनियों और कुछ शंकराचार्य के अनुयायी लोगों के उपदेश के संस्कार आर्यावर्त्त में फैले थे आपस में खण्डन मण्डन भी चलता था। शंकराचार्य के तीन सौ वर्ष के पश्चात् उज्जैन नगरी में विक्रमादित्य राजा कुछ प्रतापी हुआ। जिस ने सब राजाओं के मध्य प्रवृत्त हुई लड़ाई को मिटा कर शान्ति स्थापन की। तत्पश्चात् भर्तृहरि राजा काव्यादि शास्त्र और अन्य में भी कुछ-कुछ विद्वान् हुआ। उसने वैराग्यवान् होकर राज्य को छोड़ दिया। विक्रमादित्य के पाँच सौ वर्ष के पश्चात् राजा भोज हुआ। उसने थोड़ा सा व्याकरण और काव्यालंकरादि का इतना प्रचार किया कि जिस के राज्य में कालिदास बकरी चराने वाला भी रघुवंश काव्य का कर्त्ता हुआ। राजा भोज के पास जो कोई अच्छा श्लोक बना कर ले जाता था उस को बहुत सा धन देते थे और प्रतिष्ठा होती थी। उस के पश्चात् राजाओं श्रीमानों ने पढ़ना ही छोड़ दिया। यद्यपि शंकराचार्य्य के पूर्व वाममार्गियों के पश्चात् शैव आदि सम्प्रदायस्थ मतवादी भी हुए थे परन्तु उन का बहुत बल नहीं था। महाराजा विक्रमादित्य से लेके शैवों का बल बढ़ता आया। शैवों में पाशुपतादि बहुत सी शाखा हुई थीं; जैसी वाममार्गियों में दश महाविद्यादि की शाखा हैं। लोगों ने शंकराचार्य को शिव का अवतार ठहराया। उन के अनुयायी संन्यासी भी शैवमत में प्रवृत्त हो गये और वाममार्गियों को भी मिलते रहे। वाममार्गी, देवी जो शिव जी की पत्नी है उसके उपासक और शैव महादेव के उपासक हुए। ये दोनों रुद्राक्ष और भस्म अद्यावधि धारण करते हैं परन्तु जितने वाममार्गी वेदविरोधी हैं वैसे शैव नहीं हैं।
धिक् धिक् कपालं भस्मरुद्राक्षविहीनम्।।१।।
रुद्राक्षान् कण्ठदेशे दशनपरिमितान्मस्तके विशती द्वे,
षट् षट् कर्णप्रदेशे करयुगलगतान् द्वादशान्द्वादशैव ।
बाह्वोरिन्दो कलाभि पृथगिति गदितमेकमेवं शिखायां,
वक्षस्यष्टाऽधिकं य कलयति शतकं स स्वयं नीलकण्ठ ।।२।।
इत्यादि बहुत प्रकार के श्लोक इन लोगों ने बनाये और कहने लगे कि जिस के कपाल में भस्म और कण्ठ में रुद्राक्ष नहीं है उस को धिक्कार है। ‘तं त्यजेदन्त्यजं यथा’ उस को चाण्डाल के तुल्य त्याग करना चाहिये।।१।।
जो कण्ठ में ३२, शिर में ४०, छः छः कानों में, बारह-बारह करों में, सोलह-सोलह भुजाओ में, १ शिखा में और हृदय में १०८ रुद्राक्ष धारण करता है वह साक्षात् महादेव के सदृश् है।।२।। ऐसा ही शाक्त भी मानते हैं। पश्चात् इन वाममार्गी और शैवों ने सम्मति करके भग लिंग का स्थापन किया जिस को जलाधारी और लिंग कहते हैं और उस की पूजा करने लगे। उन निर्लज्जों को तनिक भी लज्जा न आई कि यह पामरपन का काम हम क्यों करते हैं? किसी कवि ने कहा है कि ‘स्वार्थी दोषं न पश्यति’ स्वार्थी लोग अपनी स्वार्थसिद्धि करने में दुष्ट कामों को भी श्रेष्ठ मान दोष को नहीं देखते हैं। उसी पाषाणादि मूिर्त और भग लिंग की पूजा में सारे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि सिद्धियां मानने लगे। जब राजा भोज के पश्चात् जैनी लोग अपने मन्दिरों में मूर्त्तिस्थापन करने और दर्शन, स्पर्शन को आने जाने लगे तब तो इन पोपों के चेले भी जैन मन्दिर में जाने आने लगे और उधर पश्चिम में कुछ दूसरों के मत और यवन लोग भी आर्य्यावर्त में आने जाने लगे। तब पोपों ने यह श्लोक बनाया-
न वदेद्यावनीं भाषां प्राणै कण्ठगतैरपि ।
हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम्।।
चाहे कितना ही दुःख प्राप्त हो और प्राण कण्ठगत अर्थात् मृत्यु का समय भी क्यों न आया हो तो भी यावनी अर्थात् म्लेच्छभाषा मुख से न बोलनी। और उन्मत्त हस्ती मारने को क्यों न दौड़ा आता हो और जैन के मन्दिर में जाने से प्राण बचता हो तो भी जैन मन्दिर में प्रवेश न करे। किन्तु जैन मन्दिर में प्रवेश कर बचने से हाथी के सामने जाकर मर जाना अच्छा है। ऐसे-ऐसे अपने चेलों को उपदेश करने लगे। जब उन से कोई प्रमाण पूछता था कि तुम्हारे मत में किसी माननीय ग्रन्थ का भी प्रमाण है? तो कहते थे कि हां है। जब वे पूछते थे कि दिखलाओ? तब मार्कण्डेय पुराणादि के वचन पढ़ते और सुनाते थे जैसा कि दुर्गापाठ में देवी का वर्णन लिखा है। राजा भोज के राज्य में व्यास जी के नाम से मार्कण्डेय और शिवपुराण किसी ने बना कर खड़ा किया था। उसका समाचार राजा भोज को होने से उन पण्डितों को हस्तच्छेदनादि दण्ड दिया और उन से कहा कि जो कोई काव्यादि ग्रन्थ बनावे तो अपने नाम से बनावे; ऋषि मुनियों के नाम से नहीं। यह बात राजा भोज के बनाये सञ्जीवनी नामक इतिहास में लिखी है कि जो ग्वालियर के राज्य ‘भिण्ड’ नामक नगर के तिवाड़ी ब्राह्मणों के घर में है। जिस को लखुना के रावसाहब और उन के गुमाश्ते रामदयाल चौबे जी ने अपनी आंखों से देखा है। उस में स्पष्ट लिखा है कि व्यास जी ने चार सहस्र चार सौ और उनके शिष्यों ने पांच सहस्र छः सौ श्लोकयुक्त अर्थात् सब दश सहस्र श्लोकों के प्रमाण भारत बनाया था। वह महाराजा विक्रमादित्य के समय में बीस सहस्र, महाराजा भोज कहते हैं कि मेरे पिता जी के समय में पच्चीस और मेरी आधी उमर में तीस सहस्र श्लोकयुक्त महाभारत का पुस्तक मिलता है। जो ऐसे ही बढ़ता चला तो महाभारत का पुस्तक एक ऊंट का बोझा हो जायेगा और ऋषि मुनियों के नाम से पुराणादि ग्रन्थ बनावेंगे तो आर्यावर्त्तीय लोग भ्रमजाल में पड़ वैदिकधर्मविहीन होके भ्रष्ट हो जायेंगे। इस से विदित होता है कि राजा भोज को कुछ-कुछ वेदों का संस्कार था। इन के भोजप्रबन्ध में लिखा है कि-
घट्येकया त्रफ़ोशदशैकमश्व सुकृत्रिमो गच्छति चारुगत्या ।
वायुं ददाति व्यजनं सुपुष्कलं विना मनुष्येण चलत्यजस्रम्।।
राजा भोज के राज्य में और समीप ऐसे-ऐसे शिाल्पी लोग थे कि जिन्होंने घोड़े के आकार एक यान यन्त्रकलायुक्त बनाया था कि जो एक कच्ची घड़ी में ग्यारह कोश और एक घण्टे में साढ़े सत्ताईस कोश जाता था। वह भूमि और अन्तरिक्ष में भी चलता था। और दूसरा पंखा ऐसा बनाया था कि विना मनुष्य के चलाये कलायन्त्र के बल से नित्य चला करता और पुष्कल वायु देता था। जो ये दोनों पदार्थ आज तक बने रहते तो यूरोपियन इतने अभिमान में न चढ़ जाते। जब पोप जी अपने चेलों को जैनियों से रोकने लगे तो भी मन्दिरों में जाने से न रुक सके और जैनियों की कथा में भी लोग जाने लगे। जैनियों के पोप इन पुराणियों के पोपों के चेलों को बहकाने लगे। तब पुराणियों ने विचारा कि इस का कोई उपाय करना चाहिये; नहीं तो अपने चेले जैनी हो जायेंगे। पश्चात् पोपों ने यही सम्मति की कि जैनियों के सदृश अपने भी अवतार, मन्दिर, मूर्त्ति और कथा के पुस्तक बनावें। इन लोगों ने जैनियों के चौबीस तीर्थंकरों के सदृश् चौबीस अवतार, मन्दिर और मूर्त्तियां बनाईं। और जैसे जैनियों के आदि और उत्तर-पुराणादि हैं वैसे अठारह पुराण बनाने लगे। राजा भोज के डेढ़ सौ वर्ष के पश्चात् वैष्णवमत का आरम्भ हुआ। एक शठकोप नामक कंजरवर्ण में उत्पन्न हुआ था, उस से थोड़ा सा चला। उस के पश्चात् मुनिवाहन भंगी-कुलोत्पन्न और तीसरा यावनाचार्य्य यवनकुलोत्पन्न आचार्य्य हुआ। तत्पश्चात् ब्राह्मण कुलज चौथा रामानुज हुआ उस ने अपना मत फैलाया। शैवों ने शिवपुराणादि, शाक्तों ने देवीभागवतादि वैष्णवों ने विष्णुपुराणादि बनाये। उन में अपना नाम इसलिये नहीं धरा कि हमारे नाम से बनेंगे तो कोई प्रमाण न करेगा। इसलिये व्यास आदि ऋषि मुनियों के नाम धरके पुराण बनाये। नाम भी इन का वास्तव में नवीन रखना चाहिये था परन्तु जैसे कोई दरिद्र अपने बेटे का नाम महाराजाधिराज और आधुनिक पदार्थ का नाम सनातन रख दे तो क्या आश्चर्य है?
अब इन के आपस के जैसे झगड़े हैं; वैसे पुराणों में भी धरे हैं। देखो! देवीभागवत में ‘श्री’ नामा एक देवी स्त्री जो श्रीपुर की स्वामिनी लिखी है; उसी ने सब जगत् को बनाया और ब्रह्मा, विष्णु, महादेव को भी उसी ने रचा। जब उस देवी की इच्छा हुई तब उसने अपना हाथ घिसा। उस के हाथ में एक छाला हुआ। उस में से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। उस से देवी ने कहा कि तू मुझ से विवाह कर। ब्रह्मा ने कहा कि तू मेरी माता है मैं तुझ से विवाह नहीं कर सकता। ऐसा सुन कर माता को क्रोध चढ़ा और लड़के को भस्म कर दिया। और फिर हाथ घिस के उसी प्रकार दूसरा लड़का उत्पन्न किया। उस का नाम विष्णु रक्खा। उस से भी उसी प्रकार कहा। उसने न माना तो उस को भी भस्म कर दिया। पुनः उसी प्रकार तीसरे लड़के को उत्पन्न किया। उस का नाम महादेव रक्खा और उस से कहा कि मुझ से विवाह कर। महादेव बोला कि मैं तुझ से विवाह नहीं कर सकता। तू दूसरी स्त्री का शरीर धारण कर। वैसा ही देवी ने किया। तब महादेव बोला कि यह दो ठिकाने राख सी क्या पड़ी है? देवी ने कहा कि ये दोनों तेरे भाई हैं। इन्होंने मेरी आज्ञा न मानी इसलिये भस्म कर दिये। महादेव ने कहा कि मैं अकेला क्या करूँगा, इन को जिला दे और दो स्त्री और उत्पन्न कर, तीनों का विवाह तीनों से होगा। ऐसा ही देवी ने किया। फिर तीनों का तीनों के साथ विवाह हुआ। वाह रे! माता से विवाह न किया और बहिन से कर लिया। क्या इस को उचित समझना चाहिये? पश्चात् इन्द्रादि को उत्पन्न किया। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इन्द्र इन को पालकी के उठाने वाले कहार बनाया, इत्यादि गपोड़े लम्बे चौड़े मनमाने लिखे हैं। कोई उन से पूछे कि उस देवी का शरीर और उस श्रीपुर का बनाने वाला और देवी के पिता माता कौन थे? जो कहो कि देवी अनादि है तो जो संयोगजन्य वस्तु है वह अनादि कभी नहीं हो सकता। जो पुत्र माता से विवाह करने में डरे तो भाई बहिन के विवाह में कौन सी अच्छी बात निकलती है? जैसी इस देवीभागवत में महादेव, विष्णु और ब्रह्मादि की क्षुद्रता और देवी की बड़ाई लिखी है इसी प्रकार शिवपुराण में देवी आदि की बहुत क्षुद्रता लिखी है। अर्थात् ये सब महादेव के दास और महादेव सब का ईश्वर है। जो रुद्राक्ष अर्थात् एक वृक्ष के फल की गोठली और राख धारण करने से मुक्ति मानते हैं तो राख में लोटनेहारे गदहा आदि पशु और घुंघुंची आदि के धारण करने वाले भील कंजर आदि मुक्ति को जावें और सूअर, कुत्ते, गधा आदि पशु राख में लोटने वालों की मुक्ति क्यों नहीं होती?
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Three hundred years after Shankaracharya, Vikramaditya king in Ujjain city was somewhat glorious. One who erased the battle that ensued between all the kings and established peace. Thereafter, there were some scholars in Bhartrihari king Kavyadi Shastra and others. He left the kingdom with disinterest. Five hundred years after Vikramaditya, the king had feast. He preached a little grammar and Kavyalankaradi so much that the kingdom of Ragidvansha, which grazed the Kalidas goat, was also a poet.
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