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एकादश समुल्लास खण्ड-6

(प्रश्न) किसी प्रकार की मूर्त्तिपूजा करनी करानी नहीं और जो अपने आर्य्यावर्त्त में पञ्चदेवपूजा शब्द प्राचीन परम्परा से चला आता है उस का यही पञ्चायतनपूजा जो कि शिव, विष्णु, अम्बिका, गणेश और सूर्य्य की मूर्त्ति बनाकर पूजते हैं; यह पञ्चायतनपूजा है वा नहीं?

(उत्तर) किसी प्रकार की मूर्त्तिपूजा न करना किन्तु ‘मूर्त्तिमान्’ जो नीचे कहेंगे उन की पूजा अर्थात् सत्कार करना चाहिये। वह पञ्चदेवपूजा, पञ्चायतनपूजा शब्द बहुत अच्छा अर्थ वाला है परन्तु विद्याहीन मूढों ने उसके उत्तम अर्थ को छोड़ कर निकृष्ट अर्थ पकड़ लिया। जो आजकल शिवादि पांचों की मूर्त्तियां बनाकर पूजते हैं उन का खण्डन तो अभी कर चुके हैं। पर जो सच्ची पञ्चायतन वेदोक्त और वेदानुकूलोक्त देवपूजा और मूर्त्तिपूजा है वह सुनो-

मा नो वधीः पितरं मोत मातरम् ।।१।। यजु०।।
आचार्यऽउपनयमानो ब्रह्मचारिणमिच्छते ।।२।।
अतिथिर्गृहानुपगच्छेत् ।।३।। अथर्व०।।
अचर्त प्रार्चत प्रिय मेधासो अचर्त ।।४।। ऋग्वेदे०।।
त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि।।५।। -तैनिरीयोप०।।
कतम एको देव इति स ब्रह्म त्यदित्याचक्षते।।६।। -शतपथ प्रपाठ० ५। ब्राह्मण ७। कण्डिका १०।।
मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव।।७।। -तैनिरीयोप०।।
पितृभिर्भ्रातृभिश्चैता पतिभिर्देवरैस्तथा ।
पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभि ।।८।।
पूज्यो देववत्पतिः।।९।। मनुस्मृतौ।।

प्रथम माता मूर्त्तिमती पूजनीय देवता, अर्थात् सन्तानों को तन, मन, धन से सेवा करके माता को प्रसन्न रखना, हिसा अर्थात् ताड़ना कभी न करना। दूसरा पिता सत्कर्त्तव्य देव। उस की भी माता के समान सेवा करनी।।१।। तीसरा आचार्य जो विद्या का देने वाला है उस की तन, मन, धन से सेवा करनी।।२।।

चौथा अतिथि जो विद्वान्, धािर्मक, निष्कपटी, सब की उन्नति चाहने वाला जगत् में भ्रमण करता हुआ, सत्य उपदेश से सब को सुखी करता है उस की सेवा करें।।३।।

पांचवां स्त्री के लिये पति और पुरुष के लिये स्वपत्नी पूजनीय है।।८।। ये पांच मूर्त्तिमान् देव जिन के संग से मनुष्यदेह की उत्पत्ति, पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश की प्राप्ति होती हैं ये ही परमेश्वर को प्राप्ति होने की सीढ़ियां हैं। इन की सेवा न करके जो पाषाणादि मूर्त्ति पूजते हैं वे अतीव पामर, नरकगामी तथा वेदविरोधी हैं।

(प्रश्न) माता पिता आदि की सेवा करें और मूर्त्तिपूजा भी करें तब तो कोई दोष नहीं?

(उत्तर) पाषाणादि मूर्त्तिपूजा तो सर्वथा छोड़ने और मातादि मूर्त्तिमानों की सेवा करने ही में कल्याण है। बड़े अनर्थ की बात है कि साक्षात् माता आदि प्रत्यक्ष सुखदायक देवों को छोड़ के अदेव पाषाणादि में शिर मारना स्वीकार किया। इसको लोगों ने इसीलिये स्वीकार किया है कि जो माता पितादि के सामने नैवेद्य वा भेंट पूजा धरेंगे तो वे स्वयं खा लेंगे और भेंट पूजा ले लेंगे तो हमारे मुख वा हाथ में कुछ न पड़ेगा। इससे पाषाणादि की मूर्त्ति बना, उस के आगे नैवेद्य धर, घण्टानाद टं टं पूं पूं और शखं बजा, कोलाहल कर, अंगूठा दिखला अर्थात् ‘त्वमङ्गुष्ठं गृहाण भोजनं पदार्थं वाऽहं ग्रहिष्यामि’ जैसे कोई किसी को छले वा चिढ़ावे कि तू घण्टा ले और अंगूठा दिखलावे उस के आगे से सब पदार्थ ले आप भोगे, वैसी ही लीला इन पूजारियों अर्थात् पूजा नाम सत्कर्म के शत्रुओं की है। ये लोग चटक मटक, चलक झलक मूर्त्तियों को बना ठना, आप ठगों के तुल्य बन ठन के विचारे निर्बुद्धि अनाथों का माल मारके मौज करते हैं। जो कोई धार्मिक राजा होता तो इन पाषाणप्रियों को पत्थर तोड़ने, बनाने और घर रचने आदि कामों में लगाके खाने पीने को देता; निर्वाह कराता।

(प्रश्न) जैसे स्त्री की पाषाणादि मूर्ति देखने से कामोत्पत्ति होती है वैसी वीतराग शान्त की मूर्त्ति देखने से वैराग्य और शान्ति की प्राप्ति क्यों न होगी?

(उत्तर) नहीं हो सकती। क्योंकि उस मूर्त्ति के जड़त्व धर्म आत्मा में आने से विचारशक्ति घट जाती है। विवेक के विना न वैराग्य और वैराग्य के विना विज्ञान, विज्ञान के विना शान्ति नहीं होती। और जो कुछ होता है सो उनके संग, उपदेश और उनके इतिहासादि के देखने से होता है क्योंकि जिस का गुण वा दोष न जानके उस की मूर्त्तिमात्र देखने से प्रीति नहीं होती। प्रीति होने का कारण गुणज्ञान है। ऐसे मूर्त्तिपूजा आदि बुरे कारणों ही से आर्य्यावर्त्त में निकम्मे पुजारी भिक्षुक आलसी पुरुषार्थ रहित क्रोड़ों मनुष्य हुए हैं। सब संसार में मूढ़ता उन्हीं ने फैलाई है। झूठ छल भी बहुत सा फैला है।

(प्रश्न) देखो! काशी में ‘औरंगजेब’ बादशाह को ‘लाटभैरव’ आदि ने बड़े-बड़े चमत्कार दिखलाये थे। जब मुसलमान उन को तोड़ने गये और उन्होंने जब उन पर तोप गोला आदि मारे तब बड़े-बड़े भमरे निकल कर सब फौज को व्याकुल कर भगा दिया।

(उत्तर) यह पाषाण का चमत्कार नहीं किन्तु वहां भमरे के छत्ते लग रहे होंगे। उन का स्वभाव ही क्रूर है। जब कोई उन को छेड़े तो वे काटने को दौड़ते हैं। और जो दूध की धारा का चमत्कार होता था वह पुजारी जी की लीला थी।

(प्रश्न) देखो! महादेव म्लेच्छ को दर्शन न देने के लिये कूप में और वेणीमाधव एक ब्राह्मण के घर में जा छिपे। क्या यह भी चमत्कार नहीं है?

(उत्तर) भला जिस के कोटपाल, कालभैरव, लाटभैरव आदि भूत प्रेत और गरुड़ आदि गणों ने मुसलमानों को लड़के क्यों न हटाये? जब महादेव और विष्णु की पुराणों में कथा है कि अनेक त्रिपुरासुर आदि बड़े भयंकर दुष्टों को भस्म कर दिया तो मुसलमानों को भस्म क्यों न किया? इस से यह सिद्ध होता है कि वे बिचारे पाषाण क्या लड़ते लड़ाते? जब मुसलमान मन्दिर और मूर्त्तियों को तोड़ते-फोड़ते हुए काशी के पास आए तब पूजारियों ने उस पाषाण के लिंग को कूप में डाल और वेणीमाधव को ब्राह्मण के घर में छिपा दिया। जब काशी में कालभैरव के डर के मारे यमदूत नहीं जाते और प्रलय समय में भी काशी का नाश होने नहीं देते तो म्लेच्छों के दूत क्यों न डराये? और अपने राज के मन्दिरों का क्यों नाश होने दिया? यह सब पोपमाया है।

(प्रश्न) गया में श्राद्ध करने से पितरों का पाप छूट कर वहां के श्राद्ध के पुण्य प्रभाव से पितर स्वर्ग में जाते और पितर अपना हाथ निकाल कर पिण्ड लेते हैं। क्या यह भी बात झूठी है?

(उत्तर) सर्वथा झूठ। जो वहां पिण्ड देने का वही प्रभाव है तो जिन पण्डों को पितरों के सुख के लिए लाखों रुपये देते हैं उन का व्यय गयावाले वेश्यागमनादि पाप में करते हैं वह पाप क्यों नहीं छूटता? और हाथ निकलता आज कल कहीं नहीं दीखता; विना पण्डों के हाथों के। यह कभी किसी धूर्त्त ने पृथिवी में गुफा खोद उस में एक मनुष्य बैठा दिया होगा। पश्चात् उस के मुख पर कुछ बिछा, पिण्ड दिया होगा और उस कपटी ने उठा लिया होगा। किसी आंख के अन्धे गांठ के पूरे को इस प्रकार ठगा हो तो आश्चर्य नहीं। वैसे ही वैजनाथ को रावण लाया था; यह भी मिथ्या बात है।

(प्रश्न) देखो! कलकत्ते की काली और कामाक्षा आदि देवी को लाखों मनुष्य मानते हैं। क्या यह चमत्कार नहीं है?

(उत्तर) कुछ भी नहीं। वे अन्धे लोग भेड़ के तुल्य एक के पीछे दूसरे चलते हैं। कूप खाड़े में गिरते हैं; हट नहीं सकते। वैसे ही एक मूर्ख के पीछे दूसरे चलकर मूर्त्तिपूजा रूप गढ़े में फंसकर दुःख पाते हैं।

(प्रश्न) भला यह तो जाने दो परन्तु जगन्नाथ जी में प्रत्यक्ष चमत्कार है। एक कलेवर बदलने के समय चन्दन का लकड़ा समुद्र में से स्वयमेव आता है। चूल्हे पर ऊपर-ऊपर सात हण्डे धरने से ऊपर-ऊपर के पहले-पहले पकते हैं। और जो कोई वहां जगन्नाथ की परसादी न खावे तो कुष्ठी हो जाता है और रथ आप से आप चलता पापी को दर्शन नहीं होता है। इन्द्रदमन के राज्य में देवताओं ने मन्दिर बनाया है। कलेवर बदलने के समय एक राजा, एक पण्डा, एक बढ़ई मर जाने आदि चमत्कारों को तुम झूठ न कर सकोगे?

(उत्तर) जिस ने बारह वर्ष पर्यन्त जगन्नाथ की पूजा की थी वह विरक्त हो कर मथुरा में आया था; मुझ से मिला था। मैंने इन बातों का उत्तर पूछा था। उस ने ये सब बातें झूठ बतलाईं। किन्तु विचार से निश्चय यह है-जब कलेवर बदलने का समय आता है तब नौका में चन्दन की लकड़ी ले समुद्र में डालते हैं वह समुद्र की लहरियों से किनारे लग जाती है। उस को ले सुतार लोग मूर्त्तियां बनाते हैं। जब रसोई बनती है तब कपाट बन्द करके रसोइयों के विना अन्य किसी को न जाने, न देखने देते हैं। भूमि पर चारों ओर छः और बीच में एक चक्राकार चूल्हे बनाते हैं। उन हण्डों के नीचे घी, मट्टी और राख लगा छः चूल्हों पर चावल पका, उनके तले मांज कर, उस बीच के हण्डे में उसी समय चावल डाल छः चूल्हों के मुख लोहे के तवों से बांध कर, दर्शन करने वालों को जो कि धनाढ्य हों, बुला के दिखलाते हैं। ऊपर-ऊपर के हण्डों से चावल निकाल, पके हुए चावलों को दिखला, नीचे के कच्चे चावल निकाल दिखा के उन से कहते हैं कि कुछ हण्डे के लिये रख दो। आंख के अन्धे गांठ के पूरे रुपया अशर्फी धरते और कोई-कोई मासिक भी बांध देते हैं। शूद्र नीच लोग मन्दिर में नैवेद्य लाते हैं। जब नैवेद्य हो चुकता है तब वे शूद्र नीच लोग झूठा कर देते हैं। पश्चात् जो कोई रुपया देकर हण्डा लेवे उस के घर पहुंचाते और दीन गृहस्थ और साधु सन्तों को लेके शूद्र और अन्त्यज पर्य्यन्त एक पंक्ति में बैठ झूंठा एक दूसरे का भोजन करते हैं। जब वह पंक्ति उठती है तब उन्हीं पत्तलों पर दूसरे को बैठाते जाते हैं। महा अनाचार है। और बहुतेरे मनुष्य वहाँ जाकर, उन का झूंठा न खाके, अपने हाथ बना खाकर चले आते हैं, कुछ भी कुष्ठादि रोग नहीं होते। और उस जगन्नाथपुरी में भी बहुत से परसादी नहीं खाते। उन को भी कुष्ठादि रोग नहीं होते। और उस जगन्नाथपुरी में भी बहुत से कुष्ठी हैं, नित्यप्रति झूंठा खाने से भी रोग नहीं छूटता। और यह जगन्नाथ में वाममार्गियों ने भैरवीचक्र बनाया है क्योंकि सुभद्रा, श्री कृष्ण और बलदेव की बहिन लगती है। उसी को दोनों भाइयों के बीच में स्त्री और माता के स्थान बैठाई है। जो भैरवीचक्र न होता तो यह बात कभी न होती। और रथ के पहिये के साथ कला बनाई है। जब उन को सूधी घुमाते हैं घूमती है, तब रथ चलता है। जब मेले के बीच में पहुंचता है तभी उस की कील को उल्टी घुमा देने से रथ खड़ा रह जाता है। पुजारी लोग पुकारते हैं दान देओ, पुण्य करो, जिस से जगन्नाथ प्रसन्न होकर अपना रथ चलावें, अपना धर्म रहै। जब तक भेंट आती जाती है तब तक ऐसे ही पुकारते जाते हैं। जब आ चुकती है तब एक व्रजवासी अच्छे कपड़े दुसाला ओढ़ कर आगे खड़ा रहके हाथ जोड़ स्तुति करता है कि ‘हे जगन्नाथ स्वामिन्! आप कृपा करके रथ को चलाइये, हमारा धर्म रक्खो’ इत्यादि बोल के साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर रथ पर चढ़ता है। उसी समय कील को सूधा घुमा देते हैं और जय-जय शब्द बोल, सहस्रों मनुष्य रस्सा खीचते हैं, रथ चलता है। जब बहुत से लोग दर्शन को जाते हैं तब इतना बड़ा मन्दिर है कि जिस में दिन में भी अन्धेरा रहता है और दीपक जलाना पड़ता है। उन मूर्त्तियों के आगे पड़दे खैंच कर लगाने के पर्दे दोनों ओर रहते हैं। पण्डे पुजारी भीतर खड़े रहते हैं। जब एक ओर वाले ने पर्दे को खींचा, झट मूर्त्ति आड़ में आ जाती है। तब सब पण्डे पुजारी पुकारते हैं-तुम भेंट धरो, तुम्हारे पाप छूट जायेंगे, तब दर्शन होगा। शीघ्र करो। वे बिचारे भोले मनुष्य धूर्त्तों के हाथ लूटे जाते हैं। और झट पर्दा दूसरा खैंच लेते हैं तभी दर्शन होता है। तब जय शब्द बोल के प्रसन्न होकर धक्के खाके तिरस्कृत हो चले आते हैं। इन्द्रदमन वही है कि जिस के कुल के लोग अब तक कलकत्ते में हैं। वह धनाढ्य राजा और देवी का उपासक था। उसने लाखों रुपये लगा कर मन्दिर बनवाया था। इसलिये कि आर्यावर्त्त देश के भोजन का बखेड़ा इस रीति से छुड़ावें। परन्तु वे मूर्ख कब छोड़ते हैं? देव मानो तो उन्हीं कारीगरों को मानो कि जिन शिल्पियों ने मन्दिर बनाया। राजा, पण्डा और बढ़ई उस समय नहीं मरते परन्तु वे तीनों वहां प्रधान रहते हैं। छोटों को दुःख देते होंगे। उन्होंने सम्मति करके (उसी समय अर्थात् कलेवर बदलने के समय वे तीनों उपस्थित रहते हैं; मूर्त्ति का हृदय पोला रक्खा है। उस में सोने के सम्पुट में एक सालगराम रखते हैं कि जिस को प्रतिदिन धोकर चरणामृत बनाते हैं। उस पर रात्री की शयन आर्त्ती में उन लोगों ने विष का तेजाब लपेट दिया होगा। उस को धोके उन्हीं तीनों को पिलाया होगा कि जिस से वे कभी मर गये होंगे। मरे तो इस प्रकार और भोजनभट्टों ने प्रसिद्ध किया होगा कि जगन्नाथ जी अपने शरीर बदलने के समय तीनों भक्तों को भी साथ ले गये। ऐसी झूंठी बातें पराये धन ठगने के लिये बहुत सी हुआ करती हैं।

(प्रश्न) जो रामेश्वर में गंगोत्तरी के जल चढ़ाते समय लिंग बढ़ जाता है क्या यह भी बात झूंठी है?

(उत्तर) झूंठी! क्योंकि उस मन्दिर में भी दिन में अन्धेरा रहता है। दीपक रात दिन जला करते हैं। जब जल की धारा छोड़ते हैं तब उस जल में बिजुली के समान दीपक का प्रतिबिम्ब चलकता है और कुछ भी नहीं। न पाषाण घटे, न बढ़े, जितना का उतना रहता है। ऐसी लीला करके बिचारे निर्बुद्धियों को ठगते हैं।

(प्रश्न) रामेश्वर को रामचन्द्र ने स्थापन किया है। जो मूर्त्तिपूजा वेदविरुद्ध होती तो रामचन्द्र मूर्त्तिस्थापन क्यों करते और वाल्मीकि जी रामायण में क्यों लिखते?

(उत्तर) रामचन्द्र के समय में उस लिंग वा मन्दिर का नाम चिह्न भी न था किन्तु यह ठीक है कि दक्षिण देशस्थ रामनामक राजा ने मन्दिर बनवा, लिंग का नाम रामेश्वर धर दिया है। जब रामचन्द्र सीता जी को ले हनुमान् आदि के साथ लंका से चल आकाश मार्ग में विमान पर बैठ अयोध्या को आते थे तब सीता जी से कहा है कि-

अत्र पूर्वं महादेव प्रसादमकरोद्विभु ।
सेतुबन्ध इति विख्यातम्।।
- वाल्मीकि रा०। लंका कां०।।

हे सीते! तेरे वियोग से हम व्याकुल होकर घूमते थे और इसी स्थान में चातुर्मास किया था और परमेश्वर की उपासना ध्यान भी करते थे। वही जो सर्वत्र विभु (व्यापक) देवों का देव महादेव परमात्मा है उस की कृपा से हम को सब सामग्री यहां प्राप्त हुई। और देख! यह सेतु हम ने बांध कर लंका में आके, उस रावण को मार, तुझ को ले आये। इसके सिवाय वहां वाल्मीकि ने अन्य कुछ भी नहीं लिखा।

(प्रश्न) ‘रंग है कालियाकन्त को जिसने हुक्का पिलाया सन्त को’। दक्षिण में एक कालियाकन्त की मूर्त्ति है। वह अब तक हुक्का पिया करती है। जो मूर्त्ति झूंठी हो तो यह चमत्कार भी झूंठ हो जाय।

(उत्तर) झूंठी-झूंठी। यह सब पोपलीला है। क्योंकि वह मूर्त्ति का मुख पोला होगा। उसका छिद्र पृष्ठ में निकाल के भित्ती के पार दूसरे मकान में नल लगा होगा। जब पुजारी हुक्का भरवा पेंचवां लगा, मुख में नली जमा के,पड़दे डाल निकल आता होगा तभी पीछे वाला आदमी मुख से खींचता होगा तो इधर हुक्का गड़-गड़ बोलता होगा। दूसरा छिद्र नाक और मुख के साथ लगा होगा। जब पीछे फूंकें मार देता होगा तब नाक और मुख के छिद्रों से धुआं निकलता होगा उस समय बहुत से मूढों को धनादि पदार्थों से लूट कर धनरहित करते होंगे।

(प्रश्न) देखो! डाकोर जी की मूर्त्ति द्वारिका से भगत के साथ चली आई। एक सवा रत्ती सोने में कई मन की मूर्त्ति तुल गई। क्या यह भी चमत्कार नहीं?

(उत्तर) नहीं! वह भक्त मूर्त्ति को चोर ले आया होगा और सवा रत्ती के बराबर मूर्त्ति का तुलना किसी भंगड़ आदमी ने गप्प मारा होगा।

 

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If there is the same effect of giving the body there, then why do the Pandas who give lakhs of rupees for the happiness of the fathers, spend their money in the prostituted sin of Gaya? And nowadays, no one sees the hand; Without the hands of pandas. Some time a god might have dug a cave in the earth and put a human in it. After that, something would have been spread on its face, and the insidious person would have picked it up.

 

 


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