एकादश समुल्लास खण्ड-7
(प्रश्न) देखो! सोमनाथ जी पृथिवी के ऊपर रहता था और बड़ा चमत्कार था क्या यह भी मिथ्या बात है?
(उत्तर) हां मिथ्या है। सुनो! ऊपर नीचे चुम्बक पाषाण लगा रक्खे थे। उसके आकर्षण से वह मूर्त्ति अधर खड़ी थी। जब ‘महमूद गजनवी’ आकर लड़ा तब यह चमत्कार हुआ कि उस का मन्दिर तोड़ा गया और पुजारी भक्तों की दुर्दशा हो गई और लाखों फौज दश सहस्र फौज से भाग गई। जो पोप पुजारी पूजा, पुरश्चरण, स्तुति, प्रार्थना करते थे कि ‘हे महादेव! इस म्लेच्छ को तू मार डाल, हमारी रक्षा कर, और वे अपने चेले राजाओं को समझाते थे ‘कि आप निश्चिन्त रहिये। महादेव जी, भैरव अथवा वीरभद्र को भेज देंगे। वे सब म्लेच्छों को मार डालेंगे वा अन्धा कर देंगे। अभी हमारा देवता प्रसिद्ध होता है। हनुमान्, दुर्गा और भैरव ने स्वप्न दिया है कि हम सब काम कर देंगे।’ वे विचारे भोले राजा और क्षत्रिय पोपों के बहकाने से विश्वास में रहे। कितने ही ज्योतिषी पोपों ने कहा कि अभी तुम्हारी चढ़ाई का मुहूर्त्त नहीं है। एक ने आठवां चन्द्रमा बतलाया, दूसरे ने योगिनी सामने दिखलाई। इत्यादि बहकावट में रहे। जब म्लेच्छों की फौज ने आकर घेर लिया तब दुर्दशा से भागे, कितने ही पोप पुजारी और उन के चेले पकड़े गये। पुजारियों ने यह भी हाथ जोड़ कर कहा कि तीन क्रोड़ रुपया ले लो मन्दिर और मूर्त्ति मत तोड़ो। मुसलमानों ने कहा कि हम ‘बुत्परस्त’ नहीं किन्तु ‘बुतशिकन् अर्थात् मूिऱ्त्तपूजक नहीं किन्तु मूर्त्तिभञ्जक हैं। जा के झट मन्दिर तोड़ दिया। जब ऊपर की छत टूटी तब चुम्बक पाषाण पृथक् होने से मूर्त्ति गिर पड़ी। जब मूर्त्ति तोड़ी तब सुनते हैं कि अठारह करोड़ के रत्न निकले। जब पुजारी और पोपों पर कोड़ा पड़े तो रोने लगे। कहा कि कोष बतलाओ। मार के मारे झट बतला दिया। तब सब कोष लूट मार कूट कर पोप और उन के चेलों को ‘गुलाम’ बिगारी बना, पिसना पिसवाया, घास खुदवाया, मल मूत्रदि उठवाया और चना खाने को दिये। हाय! क्यों पत्थर की पूजा कर सत्यानाश को प्राप्त हुए? क्यों परमेश्वर की भक्ति न की? जो म्लेच्छों के दांत तोड़ डालते और अपना विजय करते। देखो! जितनी मूर्त्तियाँ हैं उतनी शूरवीरों की पूजा करते तो भी कितनी रक्षा होती? पुजारियों ने इन पाषाणों की इतनी भक्ति की किन्तु मूर्त्ति एक भी उन के शिर पर उड़ के न लगी। जो किसी एक शूरवीर पुरुष की मूर्त्ति के सदृश सेवा करते तो वह अपने सेवकों को यथाशक्ति बचाता और उन शत्रुओं को मारता।
(प्रश्न) द्वारिका जी के रणछोड़ जी जिस ने ‘नर्सीमहिता’ के पास हुण्डी भेज दी और उस का ऋण चुका दिया इत्यादि बात भी क्या झूठ है?
(उत्तर) किसी साहूकार ने रुपये दे दिये होंगे। किसी ने झूठा नाम उड़ा दिया होगा कि श्री कृष्ण ने भेजे। जब संवत् १९१४ के वर्ष में तोपों के मारे मन्दिर मूर्त्तियां अंगरेजों ने उड़ा दी थीं तब मूर्त्ति कहां गई थीं? प्रत्युत बाघेर लोगों ने जितनी वीरता की और लड़े शत्रुओं को मारा परन्तु मूर्त्ति एक मक्खी की टांग भी न तोड़ सकी। जो श्रीकृष्ण के सदृश कोई होता तो इनके धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते। भला यह तो कहो कि जिस का रक्षक मार खाय उस के शरणागत क्यों न पीटे जायें?
(प्रश्न) ज्वालामुखी तो प्रत्यक्ष देवी है सब को खा जाती है। और प्रसाद देवें तो आधा खा जाती और आधा छोड़ देती है। मुसलमान बादशाहों ने उस पर जल की नहर छुड़वाई और लोहे के तवे जड़वाये थे तो भी ज्वाला न बुझी और न रुकी। वैसे हिगलाज भी आधी रात को सवारी कर पहाड़ पर दिखाई देती, पहाड़ को गर्जना कराती है। चन्द्रकूप बोलता और योनियन्त्र से निकलने से पुनर्जन्म नहीं होता, ठूमरा बांधने से पूरा महापुरुष कहाता। जब तक हिगलाज न हो आवे तब तक आधा महापुरुष बजता है। इत्यादि सब बातें क्या मानने योग्य नहीं?
(उत्तर) नहीं। क्योंकि वह ज्वालामुखी पहाड़ से आगी निकलती है। उस में पुजारी लोगों की विचित्र लीला है। जैसे बघार के घी के चमचे में ज्वाला आ जाती अलग करने से वा फूंक मारने से बुझ जाती और थोड़ा से घी को खा जाती, शेष छोड़ जाती है। उसी के समान वहां भी है। जैसे चूल्हे की ज्वाला में जो डाला जाय सब भस्म हो जाता, जंगल वा घर में लग जाने से सब को खा जाती है, इस से वहां क्या विशेष है? विना एक मन्दिर, कुण्ड और इधर उधर नल रचना के हिगलाज में न कोई सवारी होती और जो कुछ होता है वह सब पोप पुजारियों की लीला से दूसरा कुछ भी नहीं। एक जल और दलदल का कुण्ड बना रखा है, जिसके नीचे से बुद्बुदे उठते हैं। उस को सफल यात्र होना मूढ़ मानते हैं। योनि का यन्त्र उन लोगों ने धन हरने के लिये बनवा रखा है और ठुमरे भी उसी प्रकार पोपलीला के हैं। उस से महापुरुष हो तो एक पशु पर ठुमरे का बोझ लाद दें तो क्या महापुरुष हो जायगा? महापुरुष तो बड़े उत्तम धर्मयुक्त पुरुषार्थ से होता है।
(प्रश्न) अमृतसर का तालाब अमृतरूप, एक मुरेठी का फल आधा मीठा और एक भित्ती नमती और गिरती नहीं, रेवालसर में बेड़े तरते, अमरनाथ में आप से आप लिंग बन जाते, हिमालय से कबूतर के जोड़े आ के सब को दर्शन देकर चले जाते हैं, क्या यह भी मानने योग्य नहीं?
(उत्तर) नहीं। उस तालाब का नाममात्र अमृतसर है। जब कभी जंगल होगा तब उस का जल अच्छा होगा। इस से उस का नाम अमृतसर धरा होगा। जो अमृत होता तो पुराणियों के मानने के तुल्य कोई क्यों मरता। भित्ती की कुछ बनावट ऐसी होगी जिससे नमती होगी और गिरती न होगी। रीठे कलम के पैबन्दी होंगे अथवा गपोड़ा होगा। रेवालसर में बेड़ा तरने में कुछ कारीगरी होगी। अमरनाथ में बर्फ के पहाड़ बनते हैं तो जल जम के छोटे लिंग का बनना कौन आश्चर्य है? और कबूतर के जोड़े पालित होंगे, पहाड़ की आड़ में से मनुष्य छोड़ते होंगे, दिखला कर टका हरते होंगे।
(प्रश्न) हरद्वार स्वर्ग का द्वार हर की पैड़ी में स्नान करे तो पाप छूट जाते हैं और तपोवन में रहने से तपस्वी होता। देवप्रयाग, गंगोत्तरी में गोमुख, उत्तरकाशी में गुप्तकाशी, त्रियुगी नारायण के दर्शन होते हैं। केदार और बदरीनारायण की पूजा छः महीने तक मनुष्य और छः महीने तक देवता करते हैें। महादेव का मुख नैपाल में पशुपति, चूतड़ केदार और तुंगनाथ में, जानु और पग अमरनाथ में। इन के दर्शन, स्पर्शन, स्नान करने से मुक्ति हो जाती है। वहां केदार और बदरी से स्वर्ग जाना चाहै तो जा सकता है। इत्यादि बातें कैसी हैं?
(उत्तर) हरद्वार उत्तर पहाड़ों में जाने का एक मार्ग का आरम्भ है। हर की पैड़ी एक स्नान के लिये कुण्ड की सीढ़ियों को बनाया है। सच पूछो तो ‘हाड़पैड़ी’ है क्योंकि देशदेशान्तर के मृतकों के हाड़ उस में पड़ा करते हैं। पाप कभी कहीं नहीं छूट सकते, बिना भोगे अथवा नहीं कटते। ‘तपोवन’ जब होगा तब होगा। अब तो ‘भिक्षुकवन’ है। तपोवन में जाने, रहने से तप नहीं होता किन्तु तप तो करने से होता है। क्योंकि वहाँ बहुत से दुकानदार झूठ बोलने वाले भी रहते हैं। ‘हिमवतः प्रभवति गंगा’ पहाड़ के ऊपर से जल गिरता है। गोमुख का आकार टका लेने वालों ने बनाया होगा और वही पहाड़ पोप का स्वर्ग है। वहाँ उत्तरकाशी आदि स्नान ध्यानियों के लिये अच्छा है परन्तु दुकानदारों के लिये वहां भी दुकानदारी है। देवप्रयाग पुराणों के गपोड़ों की लीला है अर्थात् जहां अलखनन्दा और गंगा मिली है इसलिये वहां देवता वसते हैं; ऐसे गपोड़े न मारें तो वहां कौन जाय? और टका कौन देवे? गुप्तकाशी तो नहीं है वह प्रसिद्ध काशी है। तीन युग की धूनी तो नहीं दीखती परन्तु पोपों की दश-बीस पीढ़ी की होगी। जैसी खाखियों की धूनी और पार्सियों की अग्यारी सदैव जलती रहती है। तप्तकुण्ड भी पहाड़ों के भीतर ऊष्मा गर्मी होती है उसमें तप कर जल आता है। उसके पास दूसरे कुण्ड में ऊपर का जल वा जहां गर्मी नहीं वहां का आता है; इस से ठण्डा है। केदार का स्थान वह भूमि बहुत अच्छी है। परन्तु वहां भी एक जमे हुए पत्थर पर पुजारी वा उनके चेलों ने मन्दिर बना रखा है। वहां महन्त पुजारी पण्डे आंख के अन्वमे गांठ के पूरों से माल लेकर विषयानन्द करते हैं। वैसे ही बदरीनारायण में ठग विद्यावाले बहुत से बैठे हैं। ‘रावल जी’ वहां के मुख्य हैं। एक स्त्री छोड़ अनेक स्त्री रख बैठे हैं। पशुपति एक मन्दिर और पञ्चमुखी मूर्त्ति का नाम धर रखा है। जब कोई न पूछे तभी ऐसी लीला बलवती होती है। परन्तु जैसे तीर्थ के लोग धूर्त धनहरे होते हैं वैसे पहाड़ी लोग नहीं होते। वहां की भूमि बड़ी रमणीय और पवित्र है।
(प्रश्न) विन्ध्याचल में विन्ध्येश्वरी काली अष्टभुजा प्रत्यक्ष सत्य है। विन्ध्येश्वरी तीन समय में तीन रूप बदलती है और उसके बाड़े में मक्खी एक भी नहीं होती। प्रयाग तीर्थराज वहां शिर मुण्डाये सिद्धि, गंगा यमुना के संगम में स्नान करने से इच्छासिद्धि होती है। वैसे ही अयोध्या कई बार उड़ कर सब बस्ती सहित स्वर्ग में चली गई। मथुरा सब तीर्थों से अधिक; वृन्दावन लीलास्थान और गोवर्द्धन व्रजयात्र बड़े भाग्य से होती है। सूर्यग्रहण में कुरुक्षेत्र में लाखों मनुष्यों का मेला होता है। क्या ये सब बातें मिथ्या हैं?
(उत्तर) प्रत्यक्ष तो आंखों से तीनों मूर्त्तियां दीखती हैं कि पाषाण की मूर्त्तियां हैं। और तीन काल में तीन प्रकार के रूप होने का कारण पुजारी लोगों के वस्त्र आदि आभूषण पहिराने की चतुराई है और मक्खियां सहस्रों लाखों होती हैं; मैंने अपनी आंखों से देखा है।
प्रयाग में कोई नापित श्लोक बनानेहारा अथवा पोप जी को कुछ धन देके मुण्डन कराने का माहात्म्य बनाया वा बनवाया होगा। प्रयाग में स्नान करके स्वर्ग को जाता तो लौटकर घर में आता कोई भी नहीं दीखता किन्तु घर को सब आते हुए दीखते हैं। अथवा जो कोई वहां डूब मरता और उस का जीव भी आकाश में वायु के साथ घूम कर जन्म लेता होगा। तीर्थराज भी नाम टका लेने वालों ने धरा है। जड़ में राजा प्रजाभाव कभी नहीं हो सकता। यह बड़ी असम्भव बात है कि अयोध्या नगरी वस्ती, कुत्ते, गधे, भंगी, चमार, जाजरू सहित तीन बार स्वर्ग में चली गई। स्वर्ग में तो नहीं गई, वहीं की वहीं है परन्तु पोप जी के मुख गपोड़ों में अयोध्या स्वर्ग को उड़ गई। यह गपोड़ा शब्दरूप उड़ता फिरता है। ऐसी ही नैमिषारण्य आदि की भी पोपलीला जाननी। ‘मथुरा तीन लोक से निराली’ तो नहीं परन्तु उसमें तीन जन्तु बड़े लीला- धारी हैं कि जिन के मारे जल, स्थल और अन्तरिक्ष में किसी को सुख मिलना कठिन है। एक चौबे जो कोई स्नान करने जाय अपना कर लेने को खड़े रह कर बकते रहते हैं-‘लाओ यजमान। भांग मर्ची और लड्डू खावें, पीवें। यजमान की जै-जै मनावें।’ दूसरे जल में कछुवे काट ही खाते हैं, जिन के मारे स्नान करना भी घाट पर कठिन पड़ता है।
तीसरे आकाश के ऊपर लालमुख के बन्दर पगड़ी, टोपी, गहने और जूते तक भी नहीं छोड़ें, काट खावें, धक्के दे, गिरा मार डालें और ये तीनों पोप और पोप जी के चेलों के पूजनीय हैं। मनों चना आदि अन्न कछुवे और बन्दरों को चना गुड़ आदि और चौबों की दक्षिणा और लड्डुओं से उन के सेवक सेवा किया करते हैं। और वृन्दावन जब था तब था अब तो वेश्यावनवत् लल्ला लल्ली और गुरु चेली आदि की लीला फैल रही है। वैसे ही दीपमालिका का मेला गोवर्द्धन और व्रजयात्र में भी पोपों की बन पड़ती है। कुरुक्षेत्र में भी वही जीविका की लीला समझ लो। इन में जो कोई धार्मिक परोपकारी पुरुष है इस पोपलीला से पृथक् हो जाता है।
(प्रश्न) यह मूर्त्तिपूजा और तीर्थ सनातन से चले आते हैं; झूठे क्योंकर हो सकते हैं?
(उत्तर) तुम सनातन किस को कहते हो। जो सदा से चला आता है। जो यह सदा से होता तो वेद और ब्राह्मणादि ऋषिमुनिकृत पुस्तकों में इन का नाम क्यों नहीं? यह मूर्त्तिपूजा अढ़ाई तीन सहस्र वर्ष के इधर-इधर वाममार्गी और जैनियों से चली है। प्रथम आर्य्यावर्त्त में नहीं थी। और ये तीर्थ भी नहीं थे। जब जैनियों ने गिरनार, पालिटाना, शिखर, शत्रुञ्जय और आबू आदि तीर्थ बनाये, उन के अनुकूल इन लोगों ने भी बना लिये। जो कोई इनके आरम्भ की परीक्षा करना चाहें वे पण्डों की पुरानी से पुरानी बही और तांबे के पत्र आदि लेख देखें तो निश्चय हो जायेगा कि ये सब तीर्थ पाँच सौ अथवा सहस्र वर्ष से इधर ही बने हैं। सहस्र वर्ष के उधर का लेख किसी के पास नहीं निकलता, इस से आधुनिक हैं।
(प्रश्न) जो-जो तीर्थ वा नाम का माहात्म्य अर्थात् जैसे ‘अन्यक्षेत्रे कृतं पापं काशीक्षेत्रे विनश्यति ।’ इत्यादि बातें हैं वे सच्ची हैं वा नहीं? (उत्तर) नहीं। क्योंकि जो पाप छूट जाते हों तो दरिद्रों को धन, राजपाट; अन्धों को आंख मिल जाती; कोढ़ियों का कोढ़ आदि रोग छूट जाता; ऐसा नहीं होता। इसलिये पाप वा पुण्य किसी का नहीं छूटता।
(प्रश्न) गंगा गंगेति यो ब्रूयाद्योजनानां शतैरपि ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।।१।।
हरिर्हरति पापानि हरिरित्यक्षरद्वयम्।।२।।
प्रात काले शिवं दृष्ट्वा निशि पापं विनश्यति ।
आजन्मकृतं मध्याह्ने सायाह्ने सप्तजन्मनाम्।।३।।
इत्यादि श्लोक पोपपुराण के हैं। जो सैकड़ों सहस्रों कोश दूर से भी गंगा-गंगा कहै तो उस के सब पाप नष्ट होकर वह विष्णुलोक अर्थात् वैकुण्ठ को जाता है।।१।।
‘हरि’ इन दो अक्षरों का नामोच्चारण सब पाप को हर लेता है। वैसे ही राम, कृष्ण, शिव, भगवती आदि नामों का माहात्म्य है।।२।।
और जो मनुष्य प्रातःकाल में शिव अर्थात् लिंग वा उस की मूर्त्ति का दर्शन करे तो रात्रि में किया हुआ; मध्याह्न में दर्शन से जन्म भर का, सायंकाल में दर्शन करने से सात जन्मों का पाप छूट जाता है। यह दर्शन का माहात्म्य है।।३।।
क्या झूठा हो जायेगा?
(उत्तर) मिथ्या होने में क्या शंका? क्योंकि गंगा-गंगा वा हरे, राम, कृष्ण, नारायण, शिव और भगवती नामस्मरण से पाप कभी नहीं छूटता। जो छूटे तो दुःखी कोई न रहै। और पाप करने से कोई भी न डरे, जैसे आजकल पोपलीला में पाप बढ़ कर हो रहे हैं।
मूढ़ों को विश्वास है कि हम पाप कर नामस्मरण वा तीर्थयात्र करेंगे तो पापों की निवृत्ति हो जायेगी। इसी विश्वास पर पाप करके इस लोक और परलोक का नाश करते हैं, पर किया हुआ पाप भोगना ही पड़ता है।
(प्रश्न) तो कोई तीर्थ नामस्मरण सत्य है वा नहीं?
(उत्तर) है- वेदादि सत्य शास्त्रें का पढ़ना-पढ़ाना, धार्मिक विद्वानों का संग, परोपकार, धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास, निर्वैर, निष्कपट, सत्यभाषण, सत्य का मानना; सत्य करना; ब्रह्मचर्य्य, आचार्य्य, अतिथि, माता, पिता की सेवा; परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना; शान्ति, जितेन्द्रियता, सुशीलता, धर्मयुक्तपुरुषार्थ, ज्ञान-विज्ञान आदि शुभगुण, कर्म दुःखों से तारने वाले होने से तीर्थ हैं। और जो जल स्थलमय हैं वे तीर्थ कभी नहीं हो सकते क्योंकि ‘जना यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि’ मनुष्य जिन करके दुःखों से तरें उन का नाम तीर्थ है। जल स्थल तराने वाले नहीं किन्तु डुबाकर मारने वाले हैं। प्रत्युत नौका आदि का नाम तीर्थ हो सकता है क्योंकि उन से भी समुद्र आदि को तरते हैं।
समानतीर्थे वासी।।१।। - अष्टा० ४। ४। १०७।।
नमस्तीर्थ्याय च ।।२।। यजुः० अ० १६।।
जो ब्रह्मचारी एक आचार्य्य से और एक शास्त्र को साथ-साथ पढ़ते हों वे सब सतीर्थ्य अर्थात् समानतीर्थसेवी होते हैं।।१।। जो वेदादि शास्त्र और सत्यभाषणादि धर्म लक्षणों में साधु हो उस को अन्नादि पदार्थ देना और उन से विद्या लेनी इत्यादि तीर्थ कहाते हैं।।२।।
नामस्मरण इस को कहते हैं कि-
यस्य नाम महद्यशः ।। यजु०।।
परमेश्वर का नाम बड़े यश अर्थात् धर्मयुक्त कामों का करना है। जैसे ब्रह्म, परमेश्वर, ईश्वर, न्यायकारी, दयालु, सर्वशक्तिमान् आदि नाम परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव से हैं। जैसे ब्रह्म सब से बड़ा, परमेश्वर ईश्वरों का ईश्वर, ईश्वर सामर्थ्ययुक्त, न्यायकारी कभी अन्याय नहीं करता, दयालु सब पर कृपादृष्टि रखता, सर्वशक्तिमान् अपने सामर्थ्य ही से सब जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करता, सहाय किसी का नहीं लेता। ब्रह्मा विविध जगत् के पदार्थों का बनानेहारा, विष्णु सब में व्यापक होकर रक्षा करता, महादेव सब देवों का देव, रुद्र प्रलय करनेहारा आदि नामों के अर्थों को अपने में धारण करे अर्थात् बड़े कामों से बड़ा हो, समर्थों में समर्थ हो, सामर्थ्यों को बढ़ाता जाय। अधर्म कभी न करे। सब पर दया रक्खे। सब प्रकार के साधनों को समर्थ करे। शिल्प विद्या से नाना प्रकार के पदार्थों को बनावे। सब संसार में अपने आत्मा के तुल्य सुख-दुःख समझे। सब की रक्षा करे। विद्वानों में विद्वान् होवे। दुष्ट कर्म और दुष्ट कर्म करने वालों को प्रयत्न से दण्ड और सज्जनों की रक्षा करे। इस प्रकार परमेश्वर के नामों का अर्थ जानकर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल अपने गुण, कर्म, स्वभाव को करते जाना ही परमेश्वर का नामस्मरण है।
(प्रश्न) गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वर ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम ।।
इत्यादि गुरुमाहात्म्य तो सच्चा है? गुरु के पग धोके पीना, जैसी आज्ञा करे वैसा करना, गुरु लोभी हो तो वामन के समान, क्रोधी हो तो नरसिह के सदृश, मोही हो तो राम के तुल्य और कामी हो तो कृष्ण के समान गुरु को जानना। चाहै गुरु जी कैसा ही पाप करे तो भी अश्रद्धा न करनी। सन्त वा गुरु के दर्शन को जाने में पग-पग में अश्वमेध का फल होता है। यह बात ठीक है वा नहीं?
(उत्तर) ठीक नहीं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर और परब्रह्म परमेश्वर के नाम हैं। उसके तुल्य गुरु कभी नहीं हो सकता। यह गुरुमाहात्म्य गुरुगीता भी एक बड़ी पोपलीला है। गुरु तो माता, पिता, आचार्य और अतिथि होते हैं। उन की सेवा करनी, उन से विद्या, शिक्षा लेनी देनी, शिष्य और गुरु का काम है। परन्तु जो गुरु लोभी, क्रोधी, मोही और कामी हो तो उस को सर्वथा छोड़ देना, शिक्षा करनी, सहज शिक्षा से न माने तो अर्घ्य, पाद्य अर्थात् ताड़ना दण्ड प्राणहरण तक भी करने में कुछ भी दोष नहीं। जो विद्यादि सदगुणों में गुरुत्व नहीं है, झूठ-मूठ कण्ठी तिलक वेद-विरुद्ध मन्त्रेपदेश करने वाले हैं वे गुरु ही नहीं किन्तु गड़रिये जैसे हैं। जैसे गड़रिये अपनी भेड़ बकरियों से दूध आदि से प्रयोजन सिद्ध करते हैं वैसे ही शिष्यों के चेले चेलियों के धन हर के अपना प्रयोजन करते हैं। वे- दोन- गुरु लोभी चेला लालची, दोनों खेलें दाव । भवसागर में डूबते, बैठ पत्थर की नाव।।
गुरु समझें कि चेले चेली कुछ न कुछ देवें हींगे और चेला समझे कि चलो गुरु झूठे सोगन्द खाने, पाप छुड़ाने आदि लालच से दोनों कपटमुनि भवसागर के दुःख में डूबते हैं। जैसे पत्थर की नौका में बैठने वाले समुद्र में डूब मरते हैं। ऐसे गुरु और चेलों के मुख पर धूड़ राख पड़े। उन के पास कोई भी खड़ा न रहै जो रहै वह दुःखसागर में पड़ेगा। जैसी पोपलीला पुजारी पुराणियों ने चलाई है वैसी इन गड़रिये गुरुओं ने भी लीला मचाई है। यह सब काम स्वार्थी लोगों का है । जो परमार्थी लोग हैं वे आप दुःख पावें तो भी जगत् का उपकार करना नहीं छोड़ते। और गुरु माहात्म्य तथा गुरुगीता आदि भी इन्हीं लोभी कुकर्मी गुरुओं ने बनाई है ।
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