एकादश समुल्लास खण्ड-8
(प्रश्न) अष्टादशपुराणानां कर्त्ता सत्यवतीसुत ।।१।।
इतिहासपुराणाभ्यां वेदार्थमुपबृंहयेत्।।२।। - महाभारते।।
पुराणानि खिलानि च।।३।। - मनुन।।
इतिहासपुराण पञ्चमो वेदानां वेद ।।४।। - छान्दोग्य।।
दशमेऽहनि किञ्चित्पुराणमाचक्षीत।।५।।
पुराणविद्या वेद ।।६।। सूत्रम्।।
अठारह पुराणों के कर्त्ता व्यास जी हैं। व्यासवचन का प्रमाण अवश्य करना चाहिये।।१।। इतिहास, महाभारत, अठारह पुराणों से वेदों का अर्थ पढ़ें पढ़ावें क्योंकि इतिहास और पुराण वेदों ही के अर्थ के अनुकूल हैं।।२।।
पितृकर्म में पुराण और हरिवंश की कथा सुनें।।३।। इतिहास और पुराण पञ्चम वेद कहाते हैं।।४।। अश्वमेध की समाप्ति में दशमे दिन थोड़ी सी पुराण की कथा सुनें।।५।। पुराण विद्या वेदार्थ के जनाने ही से वेद हैं।।६।।
इत्यादि प्रमाणों से पुराणों का प्रमाण और इन के प्रमाणों से मूर्त्तिपूजा और तीर्थों का भी प्रमाण है क्योंकि पुराणों में मूर्त्तिपूजा और तीर्थों का विधान है।
(उत्तर) जो अठारह पुराणों के कर्त्ता व्यास जी होते तो उन में इतने गपोड़े न होते। क्योंकि शारीरक सूत्रें, योगशास्त्र के भाष्य आदि व्यासोक्त ग्रन्थों के देखने से विदित होता है कि व्यास जी बड़े विद्वान्, सत्यवादी, धार्मिक, योगी थे। वे ऐसी मिथ्या कथा कभी न लिखते। और इस से यह सिद्ध होता है कि जिन सम्प्रदायी परस्पर विरोधी लोगों ने भागवतादि नवीन कपोलकल्पित ग्रन्थ बनाये हैं उन में व्यास जी के गुणों का लेश भी नहीं था। और वेदशास्त्र विरुद्ध असत्यवाद लिखना व्यास जी सदृश विद्वानों का काम नहीं किन्तु यह काम वेदशास्त्र विरोधी, स्वार्थी, अविद्वान् लोगों का है। इतिहास और पुराण शिवपुराणादि का नाम नहीं । किन्तु-
ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथानाराशंसीरिति।।
यह ब्राह्मण और सूत्रें का वचन है। ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थों ही के इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी ये पांच नाम हैं। (इतिहास) जैसे जनक और याज्ञवल्क्य का संवाद। (पुराण) जगदुत्पत्ति आदि का वर्णन। (कल्प) वेद शब्दों के सामर्थ्य का वर्णन, अर्थ निरूपण करना (गाथा) किसी का दृष्टान्त दार्ष्टान्तरूप कथा प्रसंग कहना। (नाराशंसी) मनुष्यों के प्रशंनीय वा अप्रशंनीय कर्मों का कथन करना। इन ही से वेदार्थ का बोध होता है। पितृकर्म अर्थात् ज्ञानियों की प्रशंसा में कुछ सुनना।
अश्वमेध के अन्त में भी इन्हीं का सुनना लिखा है क्योंकि जो व्यासकृत ग्रन्थ हैं उन का सुनना सुनाना व्यास जी के जन्म के पश्चात् हो सकता है; पूर्व नहीं। जब व्यास जी का जन्म भी नहीं था तब वेदार्थ को पढ़ते-पढ़ाते सुनते-सुनाते थे। इसीलिये सब से प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थों ही में यह सब घटना हो सकती हैं। इन नवीन कपोलकल्पित श्रीमद्भागवत शिवपुराणादि मिथ्या वा दूषित ग्रन्थों में नहीं घट सकती? जब व्यास जी ने वेद पढ़े और पढ़ा कर वेदार्थ फैलाया इसीलिये उन का नाम ‘वेदव्यास’ हुआ। क्योंकि व्यास कहते हैं वार पार की मध्य रेखा को अर्थात् ऋग्वेद के आरम्भ से लेकर अथर्ववेद के पार पर्यन्त चारों वेद पढ़े थे औेर शुकदेव तथा जैमिनि आदि शिष्यों को पढ़ाये भी थे। नहीं तो उन का जन्म का नाम ‘कृष्णद्वैपायन’ था जो कोई यह कहते हैं कि वेदों को व्यास जी ने इकट्ठे किये यह बात झूठी है क्योंकि व्यास जी के पिता, पितामह, प्रपितामह, पराशर, शक्ति वशिष्ठ और ब्रह्मा आदि ने भी चारों वेद पढ़े थे; यह बात क्योंकर घट सके ?
(प्रश्न) पुराणों में सब बातें झूठी हैं वा कोई सच्ची भी है?
(उत्तर) बहुत सी बातें झूठी हैं और कोई घुणाक्षरन्याय से सच्ची भी हैं। जो सच्ची हैं वे वेदादि सत्यशास्त्रें की और जो झूठी हैं वे इन पोपों के पुराणरूप घर की हैं। जैसे शिवपुराण में शैवों ने शिव को परमेश्वर मान के विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, गणेश और सूर्य्यादि को उन के दास ठहराये। वैष्णवों ने विष्णुपुराण आदि में विष्णु को परमात्मा माना और शिव आदि को विष्णु के दास। देवीभागवत में देवी को परमेश्वरी और शिव, विष्णु आदि को उस के किंकर बनाये। गणेशखण्ड में गणेश को ईश्वर और शेष सब को दास बनाये। भला यह बात इन सम्प्रदायी लोगों की नहीं तो किन की है? एक मनुष्य के बनाने में ऐसी परस्पर विरुद्ध बात नहीं होती तो विद्वान् के बनाये में कभी नहीं आ सकती। इस में एक बात को सच्ची मानें तो दूसरी झूठी और जो दूसरी को सच्ची मानें तो तीसरी झूठी और जो तीसरी को सच्ची मानें अन्य सब झूठी होती हैं। शिवपुराणवाले ने शिव से, विष्णुपुराणवालों ने विष्णु से, देवीपुराणवाले ने देवी से, गणेशखण्डवाले ने गणेश से, सूर्य्यपुराणवाले ने सूर्य्य से और वायुपुराणवाले ने वायु से सृष्टि की उत्पत्ति प्रलय लिखके पुनः एक-एक से एक-एक जो जगत् के कारण लिखे उन की उत्पत्ति एक-एक से लिखी। कोई पूछे कि जो जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करनेवाला है वह उत्पन्न और जो उत्पन्न होता है वह सृष्टि का कारण कभी हो सकता है वा नहीं? तो केवल चुप रहने के सिवाय कुछ भी नहीं कह सकते औेर इन सब के शरीर की उत्पत्ति भी इसी से हुई होगी । फिर वे आप सृष्टि पदार्थ और परिच्छिन्न होकर संसार की उत्पत्ति के कर्त्ता क्योंकर हो सकते हैं? और उत्पत्ति भी विलक्षण-विलक्षण प्रकार से मानी है जो कि सर्वथा असम्भव है। जैसे- शिवपुराण में शिव ने इच्छा की कि मैं सृष्टि करूं तो एक नारायण जलाशय को उत्पन्न कर उस की नाभि से कमल, कमल में से ब्रह्मा उत्पन्न हुआ। उस ने देखा कि सब जलमय है। जल की अंजलि उठा देख जल में पटक दी। उस से एक बुद्बुदा उठा और बुद्बुदे में से एक पुरुष उत्पन्न हुआ। उस ने ब्रह्मा से कहा कि हे पुत्र! सृष्टि उत्पन्न कर। ब्रह्मा ने उस से कहा कि मैं तेरा पुत्र नहीं किन्तु तू मेरा पुत्र है। उन में विवाद हुआ और दिव्यसहस्रवर्षपर्यन्त दोनों जल पर लड़ते रहे। तब महादेव ने विचार किया कि जिन को मैंने सृष्टि करने के लिये भेजा था वे दोनों आपस में लड़ झगड़ रहे हैं। तब उन दोनों के बीच में से एक तेजोमय लिंग उत्पन्न हुआ और वह शीघ्र आकाश में चला गया। उस को देख के दोनों साश्चर्य हो गये। विचारा कि इस का आदि अन्त लेना चाहिये। जो आदि अन्त लेके शीघ्र आवे वह पिता और पीछे वा थाह लेके न आवे वह पुत्र कहावे। विष्णु कूर्म का स्वरूप धर के नीचे को चला और ब्रह्मा हंस का शरीर धारण करके ऊपर को उड़ा। दोनों मनोवेग से चले। दिव्यसहस्रवर्ष पर्य्यन्त दोनों चलते रहे तो भी उस का अन्त न पाया। तब नीचे से ऊपर विष्णु और ऊपर से नीचे ब्रह्मा चला। ब्रह्मा ने विचारा कि जो वह छेड़ा ले आया होगा तो मुझ को पुत्र बनना पड़ेगा। ऐसा सोच रहा था कि उसी समय एक गाय और केतकी का वृक्ष ऊपर से उतर आया। उन से ब्रह्मा ने पूछा कि तुम कहां से आये? उन्होंने कहा हम सहस्र वर्षों से इस लिंग के आधार से चले आते हैं। ब्रह्मा ने पूछा कि इस लिंग का थाह है वा नहीं? उन्होंने कहा कि नहीं। ब्रह्मा ने उन से कहा कि तुम हमारे साथ चलो और ऐसी साक्षी देओ कि मैं इस लिंग के शिर पर दूध की धारा वर्षाती थी और वृक्ष कहे कि मैं फूल वर्षाता था; ऐसी साक्षी देओ तो मैं तुम को ठिकाने पर ले चलूं। उन्होंने कहा कि हम झूठी साक्षी नहीं देंगे। तब ब्रह्मा कुपित होकर बोला जो साक्षी नहीं देओगे तो मैं तुम को अभी भस्म करे देता हूं। तब दोनों ने डर के कहा कि हम जैसी तुम कहते हो वैसी साक्षी देवेंगे। तब तीनों नीचे की ओर चले।
विष्णु प्रथम ही आ गये थे, ब्रह्मा भी पहुंचा। विष्णु से पूछा कि तू थाह ले आया वा नहीं? तब विष्णु बोला मुझ को इसका थाह नहीं मिला। ब्रह्मा ने कहा मैं ले आया। विष्णु ने कहा कोई साक्षी देओ। तब गाय और वृक्ष ने साक्षी दी। हम दोनों लिंग के सिर पर थे।
तब लिंग में से शब्द निकला और वृक्ष को शाप दिया कि जिस से तू झूठ बोला इसलिये तेरा फूल मुझ पर वा अन्य देवता पर जगत् में कहीं नहीं चढ़ेगा और जो कोई चढ़ावेगा उस का सत्यानाश होगा। गाय को शाप दिया जिस मुख से तू झूठ बोली उसी से विष्ठा खाया करेगी। तेरे मुख की पूजा कोई नहीं करेगा किन्तु पूँछ की करेंगे। और ब्रह्मा को शाप दिया कि तू मिथ्या बोला इसलिये तेरी पूजा संसार में कहीं न होगी। और विष्णु को वर दिया तू सत्य बोला इस से तेरी पूजा सर्वत्र होगी। पुनः दोनों ने लिंग की स्तुति की। उस से प्रसन्न होकर उस लिंग से एक जटाजूट मूर्त्ति निकल आई और कहा कि तुम को मैंने सृष्टि करने के लिये भेजा था; झगड़े में क्यों लगे रहे? ब्रह्मा और विष्णु ने कहा कि हम विना सामग्री सृष्टि कहां से करें। तब महादेव ने अपनी जटा में से एक भस्म का गोला निकाल कर दिया कि जाओ इस में से सब सृष्टि बनाओ; इत्यादि। भला कोई इन पुराणों के बनाने वालों से पूछे कि जब सृष्टि तत्त्व और पञ्चमहाभूत भी नहीं थे तो ब्रह्मा, विष्णु, महादेव के शरीर, जल, कमल, लिंग, गाय और केतकी का वृक्ष और भस्म का गोला क्या तुम्हारे बाबा के घर में से आ गिरे?
वैसे ही भागवत में विष्णु की नाभि से कमल, कमल से ब्रह्मा और ब्रह्मा के दहिने पग के अंगूठे से स्वायम्भव और बायें अंगूठे से शतरूपा राणी, ललाट से रुद्र और मरीचि आदि दश पुत्र, उन से दक्ष प्रजापति, उन की तेरह लड़कियों का विवाह कश्यप से, उनमें से दिति से दैत्य, दनु से दानव, अदिति से आदित्य, विनता से पक्षी, कद्र्रू से सर्प, सरमा से कुत्ते, स्याल आदि और अन्य स्त्रियों से हाथी, घोड़े, ऊंट, गधा, भैंसा, घास, फूस और बबूल आदि वृक्ष कांटे सहित उत्पन्न हो गये।
वाह रे वाह! भागवत के बनाने वाले लालभुजक्कड़? क्या कहना! तुझ को ऐसी-ऐसी मिथ्या बातें लिखने में तनिक भी लज्जा और शर्म न आई, निपट अन्धा ही बन गया। स्त्री पुरुष के रजवीर्य के संयोग से मनुष्य तो बनते ही हैं परमेश्वर की सृष्टिक्रम के विरुद्ध पशु, पक्षी, सर्प आदि कभी उत्पन्न नहीं हो सकते। और हाथी, ऊँट, सिह, कुत्ता, गधा और वृक्षादि का स्त्री के गर्भाशय में स्थित होने का अवकाश कहां हो सकता है? और सिह आदि उत्पन्न होकर अपने मां बाप को क्यों न खा गये? और मनुष्य-शरीर से पशु पक्षी वृक्षादि का उत्पन्न होना क्यों कर सम्भव हो सकता है? शोक है, इन लोगों की रची हुई इस महा असम्भव लीला पर जिस ने संसार को अभी तक भ्रमा रक्खा है! भला इन महाझूठ बातों को वे अन्धे पोप और बाहर भीतर की फूटी आंखों वाले उन के चेले सुनते और मानते हैं।
बडे़ ही आश्चर्य की बात है कि ये मनुष्य हैं वा अन्य कोई!!! इन भागवतादि पुराणों के बनाने हारे जन्मते ही क्यों नहीं गर्भ ही में नष्ट हो गये? वा जन्मते समय मर क्यों न गये? क्योंकि इन पापों से बचते तो आर्यावर्त्त देश दुःखों से बच जाता।
(प्रश्न) इन बातों में विरोध नहीं आ सकता क्योंकि ‘जिसका विवाह उसी के गीत’ जब विष्णु की स्तुति करने लगे तब विष्णु को परमेश्वर अन्य को दास; जब शिव के गुण गाने लगे तब शिव को परमात्मा अन्य को किंकर बनाया। और परमेश्वर की माया में सब बन सकता है। मनुष्य से पशु आदि और पशु आदि से मनुष्यादि की उत्पत्ति परमेश्वर कर सकता है। देखो! विना कारण अपनी माया से सब सृष्टि खड़ी कर दी है। उस में कौन सी बात अघटित है? जो करना चाहै सो सब कर सकता है।
(उत्तर) अरे भोले लोगो! विवाह में जिस के गीत गाते हैं उस को सब से बड़ा और दूसरों को छोटा वा निन्दा अथवा उस को सब का बाप तो नहीं बनाते? कहो पोप जी। तुम भाट और खुशामदी चारणों से भी बढ़ कर गप्पी हो अथवा नहीं? कि जिस के पीछे लगो उसी को सब से बड़ा बनाओ और जिस से विरोध करो उस को सब से नीचे ठहराओ। तुम को सत्य और धर्म से क्या प्रयोजन?
किन्तु तुम को तो अपने स्वार्थ ही से काम है। माया मनुष्य में हो सकती है। जो कि छली कपटी हैं उन्हीं को मायावी कहते हैं।
परमेश्वर में छल कपटादि दोष न होने से उस को मायावी नहीं कह सकते। जो आदि सृष्टि में कश्यप और कश्यप की स्त्रियों से पशु, पक्षी, सर्प्प, वृक्षादि हुए होते तो आजकल भी वैसे सन्तान क्यों नहीं होते? सृष्टिक्रम जो पहले लिख आये; वही ठीक है। और अनुमान है कि पोप जी यहीं से धोखा खाकर बके होंगे- तस्मात् काश्यप्य इमा प्रजा ।।
शतपथ में यह लिखा है कि यह सब सृष्टि कश्यप की बनाई हुई है।
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