प्रथम समुल्लास खण्ड-2
अथ ओंकारार्थः
१- ‘वि’ उपसर्गपूवर्क (राजृ दीप्तौ) इस धातु से क्विप् प्रत्यय करने से ‘विराट्’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो विविधं नाम चराऽचरं जगद्राजयति प्रकाशयति स विराट्’ विविध अर्थात् जो बहु प्रकार के जगत् को प्रकाशित करे, इससे ‘विराट्’ नाम से परमेश्वर का ग्रहण होता है।
२- (अञ्चु गतिपूजनयोः) (अग, अगि, इण् गत्यर्थक) धातु हैं, इनसे ‘अग्नि’ शब्द सिद्ध होता है। ‘गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्चेति, पूजनं नाम सत्कारः।’ ‘योऽञ्चति, अच्यतेऽगत्यंगत्येति सोऽयमग्निः’ जो ज्ञानस्वरूप, सर्वज्ञ, जानने, प्राप्त होने और पूजा करने योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘अग्नि’ है।
३- (विश प्रवेशने) इस धातु से ‘विश्व’ शब्द सिद्ध होता है। ‘विशन्ति प्रविष्टानि सर्वाण्याकाशादीनि भूतानि यस्मिन् । यो वाऽऽकाशादिषु सर्वेषु भूतेषु प्रविष्टः स विश्व ईश्वरः’ जिस में आकाशादि सब भूत प्रवेश कर रहे हैं अथवा जो इन में व्याप्त होके प्रविष्ट हो रहा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘विश्व’ है, इत्यादि नामों का ग्रहण अकारमात्र से होता है।
४- ‘ज्योतिर्वै हिरण्यं, तेजो वै हिरण्यमित्यैतरेयशतपथब्राह्मणे’ ‘यो हिरण्यानां सूर्यादीनां तेजसां गर्भ उत्पत्तिनिमित्तमधिकरणं स हिरण्यगर्भः’ जिसमें सूर्य्यादि तेज वाले लोक उत्पन्न होके जिसके आधार रहते हैं अथवा जो सूर्यादि तेजःस्वरूप पदार्थों का गर्भ नाम, (उत्पत्ति) और निवासस्थान है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘हिरण्यगर्भ’ है। इसमें यजुर्वेद के मन्त्र का प्रमाण-
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधमे ।।
इत्यादि स्थलों में ‘हिरण्यगर्भ’ से परमेश्वर ही का ग्रहण होता है।
५- (वा गतिगन्धनयोः) इस धातु से ‘वायु’ शब्द सिद्ध होता है। (गन्धनं हिसनम्) ‘यो वाति चराऽचरञ्जगद्धरति बलिनां बलिष्ठः स वायुः’ जो चराऽचर जगत् का धारण, जीवन और प्रलय करता और सब बलवानों से बलवान् है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘वायु’ है।
६- (तिज निशाने) इस धातु से ‘तेजः’ और इससे तद्धित करने से ‘तैजस’ शब्द सिद्ध होता है। जो आप स्वयंप्रकाश और सूर्य्यादि तेजस्वी लोकों का प्रकाश करने वाला है, इससे ईश्वर का नाम ‘तैजस’ है। इत्यादि नामार्थ उकारमात्र से ग्रहण होते हैं।
७- (ईश ऐश्वर्ये) इस धातु से ‘ईश्वर’ शब्द सिद्ध होता है। ‘य ईष्टे सर्वैश्वर्यवान् वर्त्तते स ईश्वरं:’ जिस का सत्य विचारशील ज्ञान और अनन्त ऐश्वर्य है, इससे उस परमात्मा का नाम ‘ईश्वर’ है।
८, ९- (दो अवखण्डने) इस धातु से ‘अदिति’ और इससे तद्धित करने से ‘आदित्य’ शब्द सिद्ध होता है। ‘न विद्यते विनाशो यस्य सोऽयमदितिः, अदितिरेव आदित्यः’ जिसका विनाश कभी न हो उसी ईश्वर की ‘आदित्य’ संज्ञा है।
१०,११- (ज्ञा अवबोधने) ‘प्र’ पूर्वक इस धातु से ‘प्रज्ञ’ और इससे तद्धित करने से ‘प्राज्ञ’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यः प्रकृष्टतया चराऽचरस्य जगतो व्यवहारं जानाति स प्रज्ञः, प्रज्ञ एव प्राज्ञः’ जो निर्भ्रान्त ज्ञानयुक्त सब चराऽचर जगत् के व्यवहार को यथावत् जानता है, इससे ईश्वर का नाम ‘प्राज्ञ’ है। इत्यादि नामार्थ मकार से गृहीत होते हैं। जैसे एक-एक मात्र से तीन-तीन अर्थ यहाँ व्याख्यात किये हैं वैसे ही अन्य नामार्थ भी ओंकार से जाने जाते हैं। जो (शन्नो मित्रः शं व०) इस मन्त्र में मित्रदि नाम हैं वे भी परमेश्वर के हैं, क्योंकि स्तुति, प्रार्थना, उपासना श्रेष्ठ ही की की जाती है। श्रेष्ठ उसको कहते हैं जो अपने गुण, कर्म्म, स्वभाव और सत्य-सत्य व्यवहारों में सब से अधिक हो। उन सब श्रेष्ठों में भी जो अत्यन्त श्रेष्ठ उस को परमेश्वर कहते हैं। जिस के तुल्य न कोई हुआ, न है और न होगा। जब तुल्य नहीं तो उससे अधिक क्योंकर हो सकता है? जैसे परमेश्वर के सत्य, न्याय, दया, सर्वसामर्थ्य और सर्वज्ञत्वादि अनन्त गुण हैं, वैसे अन्य किसी जड़ पदार्थ वा जीव के नहीं हैं। जो पदार्थ सत्य है, उस के गुण, कर्म्म, स्वभाव भी सत्य ही होते हैं। इसलिये सब मनुष्यों को योग्य है कि परमेश्वर ही की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें, उससे भिन्न की कभी न करें। क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महादेव नामक पूर्वज महाशय विद्वान्, दैत्य दानवादि निकृष्ट मनुष्य और अन्य साधारण मनुष्यों ने भी परमेश्वर ही में विश्वास करके उसी की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करी, उससे भिन्न की नहीं की। वैसे हम सब को करना योग्य है। इस का विशेष विचार मुक्ति और उपासना के विषय में किया जायगा।
(प्रश्न) मित्रदि नामों से सखा और इन्द्रादि देवों के प्रसिद्ध व्यवहार देखने से उन्हीं का ग्रहण करना चाहिए।
(उत्तर) यहाँ उन का ग्रहण करना योग्य नहीं, क्योंकि जो मनुष्य किसी का मित्र है, वही अन्य का शत्रु और किसी से उदासीन भी देखने में आता है। इससे मुख्यार्थ में सखा आदि का ग्रहण नहीं हो सकता, किन्तु जैसा परमेश्वर सब जगत् का निश्चित मित्र, न किसी का शत्रु और न किसी से उदासीन है, इस से भिन्न कोई भी जीव इस प्रकार का कभी नहीं हो सकता। इसलिये परमात्मा ही का ग्रहण यहाँ होता है। हाँ, गौण अर्थ में मित्रदि शब्द से सुहृदादि मनुष्यों का ग्रहण होता है।
१२- (ञिमिदा स्नेहने) इस धातु से औणादिक ‘क्त्र’ प्रत्यय के होने से ‘मित्र’ शब्द सिद्ध होता है। ‘मेद्यति, स्निह्यति स्निह्यते वा स मित्रः’ जो सब से स्नेह करके और सब को प्रीति करने योग्य है, इस से उस परमेश्वर का नाम ‘मित्र’ है।
१३- (वृञ् वरणे, वर ईप्सायाम्) इन धातुओं से उणादि ‘उनन्’ प्रत्यय होने से ‘वरुण’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यः सर्वान् शिष्टान् मुमुक्षून्धर्मात्मनो वृणोत्यथवा यः शिष्टैर्मुमुक्षुभिर्धर्मात्मभिर्व्रियते वर्य्यते वा स वरुणः परमेश्वरः’ जो आत्मयोगी, विद्वान्, मुक्ति की इच्छा करने वाले मुक्त और धर्मात्माओं का स्वीकारकर्त्ता, अथवा जो शिष्ट मुमुक्षु मुक्त और धर्मात्माओं से ग्रहण किया जाता है वह ईश्वर ‘वरुण’ संज्ञक है। अथवा ‘वरुणो नाम वरः श्रेष्ठः’ जिसलिए परमेश्वर सब से श्रेष्ठ है, इसीलिए उस का नाम ‘वरुण’ है।
१४- (ऋ गतिप्रापणयोः) इस धातु से ‘यत्’ प्रत्यय करने से ‘अर्य्य’ शब्द सिद्ध होता है और ‘अर्य्य’ पूर्वक (माङ् माने) इस धातु से ‘कनिन्’ प्रत्यय होने से ‘अर्य्यमा’ शब्द सिद्ध होता है। ‘योऽर्य्यान् स्वामिनो न्यायाधीशान् मिमीते मान्यान् करोति सोऽर्यमा’ जो सत्य न्याय के करनेहारे मनुष्यों का मान्य और पाप तथा पुण्य करने वालों को पाप और पुण्य के फलों का यथावत् सत्य-सत्य नियमकर्ता है, इसी से उस परमेश्वर का नाम ‘अर्य्यमा’ है।
१५- (इदि परमैश्वर्ये) इस धातु से ‘रन्’ प्रत्यय करने से ‘इन्द्र’ शब्द सिद्ध होता है। ‘य इन्दति परमैश्वर्यवान् भवति स इन्द्रः परमेश्वरः’ जो अखिल ऐश्वर्ययुक्त है, इस से उस परमात्मा का नाम ‘इन्द्र’ है।
१६- ‘बृहत्’ शब्दपूर्वक (पा रक्षणे) इस धातु से ‘डति’ प्रत्यय, बृहत् के तकार का लोप और सुडागम होने से ‘बृहस्पति’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो बृहतामाकाशादीनां पतिः स्वामी पालयिता स बृहस्पतिः’ जो बड़ों से भी बड़ा और बड़े आकाशादि ब्रह्माण्डों का स्वामी है, इस से उस परमेश्वर का नाम ‘बृहस्पति’ है।
१७- (विष्लृ व्याप्तौ) इस धातु से ‘नु’ प्रत्यय होकर ‘विष्णु’ शब्द सिद्ध हुआ है। ‘वेवेष्टि व्याप्नोति चराऽचरं जगत् स विष्णुः’ चर और अचररूप जगत् में व्यापक होने से परमात्मा का नाम ‘विष्णु’ है।
१८- ‘उरुर्महान् क्रमः पराक्रमो यस्य स उरुक्रमः’ अनन्त पराक्रमयुक्त होने से परमात्मा का नाम ‘उरुक्रम’ है। जो परमात्मा (उरुक्रमः) महापराक्रमयुक्त (मित्रः) सब का सुहृत् अविरोधी है, वह (शम्) सुखकारक, वह (वरुणः) सर्वोत्तम (शम्) सुखस्वरूप, वह (अर्यमा) (शम्) सुखप्रचारक, वह (इन्द्रः) (शम्) सकल ऐश्वर्यदायक, वह (बृहस्पतिः) सब का अधिष्ठाता (शम्) विद्याप्रद और (विष्णुः) जो सब में व्यापक परमेश्वर है, वह (नः) हमारा कल्याणकारक (भवतु) हो।
१९- (वायो ते ब्रह्मणे नमोऽस्तु) (बृह बृहि वृद्धौ) इन धातुओं से ‘ब्रह्म’ शब्द सिद्ध हुआ है। जो सब के ऊपर विराजमान, सब से बड़ा, अनन्तबलयुक्त परमात्मा है, उस ब्रह्म को हम नमस्कार करते हैं। हे परमेश्वर ! (त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि) आप ही अन्तर्यामिरूप से प्रत्यक्ष ब्रह्म हो (त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि) मैं आप ही को प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूँगा, क्योंकि आप सब जगह में व्याप्त होके सब को नित्य ही प्राप्त हैं (ऋतं वदिष्यामि) जो आपकी वेदस्थ यथार्थ आज्ञा है उसी को मैं सब के लिए उपदेश और आचरण भी करूँगा, (सत्यं वदिष्यामि) सत्य बोलूँ, सत्य मानूं और सत्य ही करूँगा (तन्मामवतु) सो आप मेरी रक्षा कीजिए
(तद्वक्तारमवतु) सो आप मुझ आप्त सत्यवक्ता की रक्षा कीजिए कि जिस से आप की आज्ञा में मेरी बुद्धि स्थिर होकर, विरुद्ध कभी न हो। क्योंकि जो आपकी आज्ञा है, वही धर्म और जो विरुद्ध, वही अधर्म है। ‘अवतु मामवतु वक्तारम्’ यह दूसरी वार पाठ अधिकार्थ के लिये है। जैसे ‘कश्चित् कञ्चित् प्रति वदति त्वं ग्रामं गच्छ गच्छ’ इसमें दो वार क्रिया के उच्चारण से तू शीघ्र ही ग्राम को जा ऐसा सिद्ध होता है। ऐसे ही यहाँ कि आप मेरी अवश्य रक्षा करो अर्थात् धर्म में सुनिश्चित और अधर्म से घृणा सदा करूँ, ऐसी कृपा मुझ पर कीजिए। मैं आपका बड़ा उपकार मानूँगा।
(ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः) इस में तीन वार शान्तिपाठ का यह प्रयोजन है कि त्रिविध ताप अर्थात् इस संसार में तीन प्रकार के दुःख हैं-एक ‘आध्यात्मिक’ जो आत्मा शरीर में अविद्या, राग, द्वेष, मूर्खता और ज्वर पीड़ादि होते हैं। दूसरा ‘आधिभौतिक’ जो शत्रु, व्याघ्र और सर्पादि से प्राप्त होता है। तीसरा ‘आधिदैविक’ अर्थात् जो अतिवृष्टि, अतिशीत, अति उष्णता, मन और इन्द्रियों की अशान्ति से होता है। इन तीन प्रकार के क्लेशों से आप हम लोगों को दूर करके कल्याणकारक कर्मों में सदा प्रवृत्त रखिए। क्योंकि आप ही कल्याणस्वरूप, सब संसार के कल्याणकर्त्ता और धार्मिक मुमुक्षुओं को कल्याण के दाता हैं। इसलिए आप स्वयम् अपनी करुणा से सब जीवों के हृदय में प्रकाशित हूजिए कि जिस से सब जीव धर्म का आचरण और अधर्म को छोड़के परमानन्द को प्राप्त हों और दुःखों से पृथक् रहैं ।
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The best is called the one who is the highest in all his qualities, actions, nature and true and true practices. Even among all those superior who call him the very best, God. Which has no one like it, neither has nor will it happen. How can it be more than when not equal? Just as God's truth, justice, mercy, omnipotence and omniscience are eternal virtues, so are not any other root matter or creature. The substance which is true, its qualities, actions and nature are also true.
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