प्रथम समुल्लास खण्ड-4
६०, ६१- (चिती संज्ञाने) इस धातु से ‘चित्’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यश्चेतति चेतयति संज्ञापयति सर्वान् सज्जनान् योगिनस्तच्चित्परं ब्रह्म’ जो चेतनस्वरूप सब जीवों को चिताने और सत्याऽसत्य का जनानेहारा है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘चित्’ है। इन तीनों शब्दों के विशेषण होने से परमेश्वर को ‘सच्चिदानन्दस्वरूप’ कहते हैं।
६२- ‘यो नित्यध्रुवोऽचलोऽविनाशी स नित्यः।’ जो निश्चल अविनाशी है, सो ‘नित्य’ शब्दवाच्य ईश्वर है।
६३- (शुन्ध शुद्धौ) इस से ‘शुद्ध’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यः शुन्धति सर्वान् शोधयति वा स शुद्ध ईश्वरः’ जो स्वयं पवित्र सब अशुद्धियों से पृथक् और सब को शुद्ध करने वाला है, इससे ईश्वर का नाम ‘शुद्ध’ है।
६४- (बुध अवगमने) इस धातु से ‘क्त’ प्रत्यय होने से ‘बुद्ध’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो बुद्धवान् सदैव ज्ञाताऽस्ति स बुद्धो जगदीश्वरः’ जो सदा सब को जाननेहारा है इससे ईश्वर का नाम ‘बुद्ध’ है।
६५- (मुच्लृ मोचने) इस धातु से ‘मुक्त’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो मुञ्चति मोचयति वा मुमुक्षून् स मुक्तो जगदीश्वरः’ जो सर्वदा अशुद्धियों से अलग और सब मुमुक्षुओं को क्लेश से छुड़ा देता है, इसलिए परमात्मा का नाम ‘मुक्त’ है।
६६- ‘अत एव नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावो जगदीश्वरः’ इसी कारण से परमेश्वर का स्वभाव नित्यशुद्धबुद्धमुक्त है।
६७- निर् और आङ्पूर्वक (डुकृञ् करणे) इस धातु से ‘निराकार’ शब्द सिद्ध होता है। ‘निर्गत आकारात्स निराकारः’ जिस का आकार कोई भी नहीं और न कभी शरीर-धारण करता है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘निराकार’ है।
६८- (अञ्जू व्यक्तिम्लक्षणकान्तिगतिषु) इस धातु से ‘अञ्जन’ शब्द और ‘निर्’ उपसर्ग के योग से ‘निरञ्जन’ शब्द सिद्ध होता है। ‘अञ्जनं व्यक्तिर्म्लक्षणं कुकाम इन्द्रियैः प्राप्तिश्चेत्यस्माद्यो निर्गतः पृथग्भूतः स निरञ्जनः’ जो व्यक्ति अर्थात् आकृति, म्लेच्छाचार, दुष्टकामना और चक्षुरादि इन्द्रियों के विषयों के पथ से पृथक् है, इससे ईश्वर का नाम ‘निरञ्जन’ है।
६९, ७०- (गण संख्याने) इस धातु से ‘गण’ शब्द सिद्ध होता है, इसके आगे ‘ईश’ वा ‘पति’ शब्द रखने से ‘गणेश’ और ‘गणपति शब्द’ सिद्ध होते हैं। ‘ये प्रकृत्यादयो जडा जीवाश्च गण्यन्ते संख्यायन्ते तेषामीशः स्वामी पतिः पालको वा’ जो प्रकृत्यादि जड़ और सब जीव प्रख्यात पदार्थों का स्वामी वा पालन करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘गणेश’ वा ‘गणपति’ है।
७१- ‘यो विश्वमीष्टे स विश्वेश्वरः’ जो संसार का अधिष्ठाता है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘विश्वेश्वर’ है।
७२- ‘यः कूटेऽनेकविधव्यवहारे स्वस्वरूपेणैव तिष्ठति स कूटस्थः परमेश्वरः’ जो सब व्यवहारों में व्याप्त और सब व्यवहारों का आधार होके भी किसी व्यवहार में अपने स्वरूप को नहीं बदलता, इससे परमेश्वर का नाम ‘कूटस्थ’ है।
७३, ७४- जितने ‘देव’ शब्द के अर्थ लिखे हैं उतने ही ‘देवी’ शब्द के भी हैं। परमेश्वर के तीनों लिंगों में नाम हैं। जैसे-‘ब्रह्म चितिरीश्वरश्चेति’। जब ईश्वर का विशेषण होगा तब ‘देव’ जब चिति का होगा तब ‘देवी’, इससे ईश्वर का नाम ‘देवी’ है।
७५- (शक्लृ शक्तौ) इस धातु से ‘शक्ति’ शब्द बनता है। ‘यः सर्वं जगत् कर्तुं शक्नोति स शक्तिः’ जो सब जगत् के बनाने में समर्थ है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शक्ति’ है।
७६- (श्रिञ् सेवायाम्) इस धातु से ‘श्री’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यः श्रीयते सेव्यते सर्वेण जगता विद्वद्भिर्योगिभिश्च स श्रीरीश्वरः’। जिस का सेवन सब जगत्, विद्वान् और योगीजन करते हैं, उस परमात्मा का नाम ‘श्री’ है।
७७- (लक्ष दर्शनांकनयोः) इस धातु से ‘लक्ष्मी’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो लक्षयति पश्यत्यंकते चिह्नयति चराचरं जगदथवा वेदैराप्तैर्योगिभिश्च यो लक्ष्यते स लक्ष्मीः सर्वप्रियेश्वरः’ जो सब चराचर जगत् को देखता, चिह्नित अर्थात् दृश्य बनाता, जैसे शरीर के नेत्र, नासिकादि और वृक्ष के पत्र, पुष्प, फल, मूल, पृथिवी, जल के कृष्ण, रक्त, श्वेत, मृत्तिका, पाषाण, चन्द्र, सूर्यादि चिह्न बनाता तथा सब को देखता, सब शोभाओं की शोभा और जो वेदादिशास्त्र वा धार्मिक विद्वान् योगियों का लक्ष्य अर्थात् देखने योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘लक्ष्मी’ है।
७८- (सृ गतौ) इस धातु से ‘सरस्’ उस से मतुप् और ङीप् प्रत्यय होने से ‘सरस्वती’ शब्द सिद्ध होता है। ‘सरो विविधं ज्ञानं विद्यते यस्यां चितौ सा सरस्वती’ जिस को विविध विज्ञान अर्थात् शब्द, अर्थ, सम्बन्ध प्रयोग का ज्ञान यथावत् होवे, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘सरस्वती’ है।
७९- ‘सर्वाः शक्तयो विद्यन्ते यस्मिन् स सर्वशक्तिमानीश्वरः’ जो अपने कार्य करने में किसी अन्य की सहायता की इच्छा नहीं करता, अपने ही सामर्थ्य से अपने सब काम पूरा करता है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘सर्वशक्तिमान्’ है।
८०- (णीञ् प्रापणे) इस धातु से ‘न्याय’ शब्द सिद्ध होता है। ‘प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः।’ यह वचन न्यायसूत्रें के ऊपर वात्स्यायनमुनिकृत भाष्य का है। ‘पक्षपातराहित्याचरणं न्यायः’ जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों की परीक्षा से सत्य-सत्य सिद्ध हो तथा पक्षपातरहित धर्मरूप आचरण है वह न्याय कहाता है। ‘न्यायं कर्तुं शीलमस्य स न्यायकारीश्वरः’ जिस का न्याय अर्थात् पक्षपातरहित धर्म करने ही का स्वभाव है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘न्यायकारी’ है।
८१- (दय दानगतिरक्षणहिसादानेषु) इस धातु से ‘दया’ शब्द सिद्ध होता है। ‘दयते ददाति जानाति गच्छति रक्षति हिनस्ति यया सा दया, बह्वी दया विद्यते यस्य स दयालुः परमेश्वरः’ जो अभय का दाता, सत्याऽसत्य सर्व विद्याओं का जानने, सब सज्जनों की रक्षा करने और दुष्टों को यथायोग्य दण्ड देनेवाला है, इस से परमात्मा का नाम ‘दयालु’ है।
८२- ‘द्वयोर्भावो द्वाभ्यामितं सा द्विता द्वीतं वा सैव तदेव वा द्वैतम्, न विद्यते द्वैतं द्वितीयेश्वरभावो यस्मिंस्तदद्वैतम्। अर्थात् ‘सजातीयविजातीयस्वगतभेदशून्यं ब्रह्म’ दो का होना वा दोनों से युक्त होना वह द्विता वा द्वीत अथवा द्वैत से रहित है। सजातीय जैसे मनुष्य का सजातीय दूसरा मनुष्य होता है, विजातीय जैसे मनुष्य से भिन्न जातिवाला वृक्ष, पाषाणादि। स्वगत अर्थात् जैसे शरीर में आँख, नाक, कान आदि अवयवों का भेद है, वैसे दूसरे स्वजातीय ईश्वर, विजातीय ईश्वर वा अपने आत्मा में तत्त्वान्तर वस्तुओं से रहित एक परमेश्वर है, इस से परमात्मा का नाम ‘अद्वैत’ है।
८३- ‘गण्यन्ते ये ते गुणा यैर्गणयन्ति ते गुणाः, यो गुणेभ्यो निर्गतः स निर्गुण ईश्वरः’ जितने सत्त्व, रज, तम, रूप, रस, स्पर्श, गन्धादि जड़ के गुण, अविद्या, अल्पज्ञता, राग, द्वेष और अविद्यादि क्लेश जीव के गुण हैं उन से जो पृथक् है। इन में ‘अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययम्’ इत्यादि उपनिषदों का प्रमाण है। जो शब्द, स्पर्श, रूपादि गुणरहित है, इससे परमात्मा का नाम ‘निर्गुण’ है।
८४- ‘यो गुणैः सह वर्त्तते स सगुणः’ जो सब का ज्ञान, सर्वसुख, पवित्रता, अनन्त बलादि गुणों से युक्त है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘सगुण’ है। जैसे पृथिवी गन्धादि गुणों से ‘सगुण’ और इच्छादि गुणों से रहित होने से ‘निर्गुण’ है, वैसे जगत् और जीव के गुणों से पृथक् होने से परमेश्वर ‘निर्गुण’ और सर्वज्ञादि गुणों से सहित होने से ‘सगुण’ है। अर्थात् ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो सगुणता और निर्गुणता से पृथक् हो। जैसे चेतन के गुणों से पृथक् होने से जड़ पदार्थ निर्गुण और अपने गुणों से सहित होने सगुण, वैसे ही जड़ के गुणों से पृथक् होने से जीव निर्गुण और इच्छादि अपने गुणों से सहित होने से सगुण। ऐसे ही परमेश्वर में भी समझना चाहिए।
८५- ‘अन्तर्यन्तुं नियन्तुं शीलं यस्य सोऽयमन्तर्यामी’ जो सब प्राणी और अप्राणिरूप जगत् के भीतर व्यापक होके सब का नियम करता है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘अन्तर्यामी’ है।
८६- ‘यो धर्म्मे राजते स धर्मराजः’ जो धर्म ही में प्रकाशमान और अधर्म से रहित, धर्म ही का प्रकाश करता है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘धर्म्मराज’ है।
८७- (यमु उपरमे) इस धातु से ‘यम’ शब्द सिद्ध होता है। ‘य सर्वान् प्राणिनो नियच्छति स यमः’ जो सब प्राणियों के कर्मफल देने की व्यवस्था करता और सब अन्यायों से पृथक् रहता है, इसलिए परमात्मा का नाम ‘यम’ है।
८८- (भज सेवायाम्) इस धातु से ‘भग’ इससे मतुप् होने से ‘भगवान्’ शब्द सिद्ध होता है। ‘भगः सकलैश्वर्य्यं सेवनं वा विद्यते यस्य स भगवान्’ जो समग्र ऐश्वर्य से युक्त वा भजने के योग्य है, इसीलिए उस ईश्वर का नाम ‘भगवान्’ है।
८९- (मन ज्ञाने) इस धातु से ‘मनु’ शब्द बनता है। ‘यो मन्यते स मनुः’ जो मनु अर्थात् विज्ञानशील और मानने योग्य है, इसलिये उस ईश्वर का नाम ‘मनु’ है।
९०- (पृपालनपूरणयोः) इस धातु से ‘पुरुष’ शब्द सिद्ध हुआ है ‘यः स्वव्याप्त्या चराऽचरं जगत् पृणाति पूरयति वा स पुरुषः’ जो सब जगत् में पूर्ण हो रहा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘पुरुष’ है।
९१- (डुभृञ् धारणपोषणयोः) ‘विश्व’ पूर्वक इस धातु से ‘विश्वम्भर’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो विश्वं बिभर्ति धरति पुष्णाति वा स विश्वम्भरो जगदीश्वरः’ जो जगत् का धारण और पोषण करता है, इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘विश्वम्भर’ है।
९२- (कल संख्याने) इस धातु से ‘काल’ शब्द बना है। ‘कलयति संख्याति सर्वान् पदार्थान् स कालः’ जो जगत् के सब पदार्थ और जीवों की संख्या करता है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘काल’ है।
९३- (शिष्लृ विशेषणे) इस धातु से ‘शेष’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यः शिष्यते स शेषः’ जो उत्पत्ति और प्रलय से शेष अर्थात् बच रहा है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘शेष’ है।
९४- (आप्लृ व्याप्तौ) इस धातु से ‘आप्त’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यः सर्वान् धर्मात्मन आप्नोति वा सवैर्धर्मात्मभिराप्यते छलादिरहितः स आप्तः’ जो सत्योप- देशक, सकल विद्यायुक्त, सब धर्मात्माओं को प्राप्त होता है और धर्मात्माओं से प्राप्त होने योग्य छल-कपटादि से रहित है, इसलिये उस परमात्मा का नाम ‘आप्त’ है।
९५- (डुकृञ् करणे) ‘शम्’ पूर्वक इस धातु से ‘शंकर’ शब्द सिद्ध हुआ है। ‘यः शंकल्याणं सुखं करोति स शंकरः’ जो कल्याण अर्थात् सुख का करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘शंकर’ है।
९६- ‘महत्’ शब्द पूर्वक ‘देव’ शब्द से ‘महादेव’ सिद्ध होता है। ‘यो महतां देवः स महादेवः’ जो महान् देवों का देव अर्थात् विद्वानों का भी विद्वान्, सूर्यादि पदार्थों का प्रकाशक है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘महादेव’ है।
९७- (प्रीञ् तर्पणे कान्तौ च) इस धातु से ‘प्रिय’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यः पृणाति प्रीयते वा स प्रियः’ जो सब धर्मात्माओं, मुमुक्षुओं और शिष्टों को प्रसन्न करता और सब को कामना के योग्य है, इसलिए उस ईश्वर का नाम ‘प्रिय’ है।
९८- (भू सत्तायाम्) ‘स्वयं’ पूर्वक इस धातु से ‘स्वयम्भू’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यः स्वयं भवति स स्वयम्भूरीश्वरः’ जो आप से आप ही है, किसी से कभी उत्पन्न नहीं हुआ, इस से उस परमात्मा का नाम ‘स्वयम्भू’ है।
९९- (कु शब्दे) इस धातु से ‘कवि’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यः कौति शब्दयति सर्वा विद्याः स कविरीश्वरः’ जो वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेष्टा और वेत्ता है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘कवि’ है।
१००- (शिवु कल्याणे) इस धातु से ‘शिव’ शब्द सिद्ध होता है। ‘बहुलमेतन्निदर्शनम्।’ इससे शिवु धातु माना जाता है, जो कल्याणस्वरूप और कल्याण का करनेहारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शिव’ है। ये सौ नाम परमेश्वर के लिखे हैं। परन्तु इन से भिन्न परमात्मा के असंख्य नाम हैं। क्योंकि जैसे परमेश्वर के अनन्त गुण, कर्म, स्वभाव हैं, वैसे उस के अनन्त नाम भी हैं। उनमें से प्रत्येक गुण, कर्म्म और स्वभाव का एक-एक नाम है। इस से ये मेरे लिखे नाम समुद्र के सामने विन्दुवत् हैं। क्योंकि वेदादि शास्त्रें में परमात्मा के असंख्य गुण, कर्म, स्वभाव व्याख्यात किये हैं। उनके पढ़ने पढ़ाने से बोध हो सकता है। और अन्य पदार्थों का ज्ञान भी उन्हीं को पूरा-पूरा हो सकता है, जो वेदादिशास्त्रें को पढ़ते हैं।
(प्रश्न) जैसे अन्य ग्रन्थकार लोग आदि, मध्य और अन्त में मंगलाचरण करते हैं वैसे आपने कुछ भी न लिखा, न किया?
(उत्तर) ऐसा हम को करना योग्य नहीं। क्योंकि जो आदि, मध्य और अन्त में मंगल करेगा तो उसके ग्रन्थ में आदि मध्य तथा अन्त के बीच में जो कुछ लेख होगा वह अमंगल ही रहेगा। इसलिए ‘मंगलाचरणं शिष्टाचारात्
फलदर्शनाच्छ्र ुतितश्चेति ।’ यह सांख्यशास्त्र का वचन है। इस का यह अभिप्राय है कि जो न्याय, पक्षपातरहित, सत्य, वेदोक्त ईश्वर की आज्ञा है, उसी का यथावत् सर्वत्र और सदा आचरण करना मंगलाचरण कहाता है। ग्रन्थ के आरम्भ से ले के समाप्तिपर्यन्त सत्याचार का करना ही मंगलाचरण है, न कि कहीं मंगल और कहीं अमंगल लिखना। देखिए, महाशय महर्षियों के लेख को-
यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि।।
-यह तैत्तिरीयोपनिषत् का वचन है।
हे सन्तानो! जो ‘अनवद्य’ अनिन्दनीय अर्थात् धर्मयुक्त कर्म हैं वे ही तुम को करने योग्य हैं, अधर्मयुक्त नहीं। इसलिए जो आधुनिक ग्रन्थों में ‘श्रीगणेशाय नमः’, ‘सीतारामाभ्यां नमः’, ‘राधाकृष्णाभ्यां नमः’, ‘श्रीगुरुचरणारविन्दाभ्यां नमः’, ‘हनुमते नमः’, ‘दुर्गायै नमः’, ‘वटुकाय नमः’, ‘भैरवाय नमः’, ‘शिवाय नमः’, ‘सरस्वत्यै नमः’, ‘नारायणाय नमः’ इत्यादि लेख देखने में आते हैं, इन को बुद्धिमान् लोग वेद और शास्त्रें से विरुद्ध होने से मिथ्या ही समझते हैं। क्योंकि वेद और ऋषियों के ग्रन्थों में कहीं ऐसा मंगलाचरण देखने में नहीं आता और आर्ष ग्रन्थों में ‘ओ३म्’ तथा ‘अथ’ शब्द तो देखने में आता है। देखो-
‘अथ शब्दानुशासनम्’ अथेत्ययं शब्दोऽधिकारार्थः प्रयुज्यते।
-यह व्याकरणमहाभाष्य।
‘अथातो धर्मजिज्ञासा’ अथेत्यानन्तर्ये वेदाध्ययनानन्तरम्। -यह पूर्वमीमांसा।
‘अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः’। अथेति धर्मकथनानन्तरं धर्मलक्षणं
विशेषेण व्याख्यास्यामः। -यह वैशेषिकदर्शन।
‘अथ योगानुशासनम्’। अथेत्ययमधिकारार्थः। -यह योगशास्त्र।
‘अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः।’ सांसारिकविषयभोगानन्तरं
त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्त्यर्थः प्रयत्नः कर्त्तव्यः’। -यह सांख्यशास्त्र।
‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’। -यह वेदान्तसूत्र है।
‘ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत’। -यह छान्दोग्य उपनिषत् का वचन है।
‘ओमित्येतदक्षरमिद सर्वं तस्योपव्याख्यानम्’।
-यह माण्डूक्य उपनिषत् के आरम्भ का वचन है।
ऐसे ही अन्य ऋषि मुनियों के ग्रन्थों में ‘ओम्’ और ‘अथ’ शब्द लिखे हैं, वैसे ही (अग्नि, इट्, अग्नि, ये त्रिषप्ताः परियन्ति) ये शब्द चारों वेदों के आदि में लिखे हैं। ‘श्रीगणेशाय नमः‘ इत्यादि शब्द कहीं नहीं। और जो वैदिक लोग वेद के आरम्भ में ‘हरिः ओम्’ लिखते और पढ़ते हैं, यह पौराणिक और तान्त्रिक लोगों की मिथ्या कल्पना से सीखे हैं। वेदादिशास्त्रें में ‘हरि’ शब्द आदि में कहीं नहीं। इसलिए ‘ओ३म्’ वा ‘अथ’ शब्द ही ग्रन्थ के आदि में लिखना चाहिए।
यह किञ्चित्मात्र ईश्वर के विषय में लिखा, अब इस के आगे शिक्षा के विषय में लिखा जायगा।
इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे
सुभाषाविभूषित ईश्वरनामविषये
प्रथमः समुल्लासः सम्पूर्णः।।१।।
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Earth is 'Nirguna' by virtue of deprivation, and 'Nirguna' by being devoid of willful qualities, in the same way that God is 'Nirguna' from being separated from the qualities of world and creature and 'virtuous' from being with omniscient qualities. That is, there is no such thing that is separate from sagacity and nigility.
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