चौदहवां समुल्लास खण्ड-4
४५- जिस को चाहे नीति देता है।। -मं० १। सि० ३। सू० २। आ० २६१।।
(समीक्षक) जब जिस को चाहता है उस को नीति देता है तो जिस को नहीं चाहता है उस को अनीति देता होगा। यह बात ईश्वरता की नहीं किन्तु जो पक्षपात छोड़ सब को नीति का उपदेश करता है वही ईश्वर और आप्त हो सकता है; अन्य नहीं।।४५।।
४६- जो लोग ब्याज खाते हैं वे कबरों से नहीं खड़े होंगे।। -मं० १। सि० ३। सू० २। आ० २७५।।
(समीक्षक) क्या वे कबरों में ही पड़े रहेंगे और जो पड़े रहेंगे तो कब तक ? ऐसी असम्भव बात ईश्वर के पुस्तक की तो नहीं हो सकती किन्तु बालबुद्धियों की तो हो सकती है ।।४६।।
४७- वह कि जिस को चाहेगा क्षमा करेगा जिस को चाहे दण्ड देगा क्योंकि वह सब वस्तु पर बलवान् है।। -मं० १। सि० ३। सू० २। आ० २६९।।
(समीक्षक) क्या क्षमा के योग्य पर क्षमा न करना, अयोग्य पर क्षमा करना गवरगण्ड राजा के तुल्य यह कर्म नहीं है? यदि ईश्वर जिस को चाहता पापी वा पुण्यात्मा बनाता है तो जीव को पाप-पुण्य न लगना चाहिये और जब ईश्वर ने उस को वैसा ही किया तो जीव को दुःख-सुख भी होना न चाहिये। जैसे सेनापति की आज्ञा से किसी भृत्य ने किसी को मारा वा रक्षा की उस का फलभागी वह नहीं होता वैसे वे भी नहीं।।४७।।
४८- कह इस से अच्छी और क्या परहेजगारों को खबर दूं कि अल्लाह की ओर से बहिश्तें हैं जिन में नहरें चलती हैं उन्हीं में सदैव रहने वाली शुद्ध बीबियां हैं अल्लाह की प्रसन्नता से। अल्लाह उन को देखने वाला है साथ बन्दों के।।
-मं० १। सि० ३। सू० ३। आ० १५।।
(समीक्षक) भला यह स्वर्ग है किवा वेश्यावन? इस को ईश्वर कहना वा स्त्रैण? कोई भी बुद्धिमान् ऐसी बातें जिस में हों उस को परमेश्वर का किया पुस्तक मान सकता है? यह पक्षपात क्यों करता है। जो बीबियां बहिश्त में सदा रहती हैं वे यहां जन्म पाके वहाँ गई हैं वा वहीं उत्पन्न हुई हैं। यदि यहां जन्म पाकर वहाँ गई हैं और जो कयामत की रात से पहले ही वहाँ बीबियों को बुला लिया तो उन के खाविन्दों को क्यों न बुला लिया। और कयामत की रात में सब का न्याय होगा इस नियम को क्यों तोड़ा । यदि वहीं जन्मी हैं तो कयामत तक वे क्योंकर निर्वाह करती हैं। जो उन के लिये पुरुष भी हैं तो यहां से बहिश्त में जाने वाले मुसलमानों को खुदा बीबियां कहां से देगा? और जैसे बीबियां बहिश्त में सदा रहने वाली बनाईं वैसे पुरुषों को वहाँ सदा रहने वाले क्यों नहीं बनाया। इसलिये मुसलमानों का खुदा अन्यायकारी, बे समझ है।।४८।।
४९- निश्चय अल्लाह की ओर से दीन इसलाम है।। -मं० १। सि० ३। सू० ३। आ० १९।।
(समीक्षक) क्या अल्लाह मुसलमानों ही का है औरों का नहीं? क्या तेरह सौ वर्षों के पूर्व ईश्वरीय मत था ही नहीं? इसी से यह कुरान ईश्वर का बनाया तो नहीं किन्तु किसी पक्षपाती का बनाया है।।४९।।
५०- प्रत्येक जीव को पूरा दिया जावेगा जो कुछ उस ने कमाया और वे न अन्याय किये जावेंगे।। कह या अल्लाह तू ही मुल्क का मालिक है जिस को चाहे देता है, जिस से चाहे छीनता है, जिस को चाहे प्रतिष्ठा देता है, जिस को चाहे अप्रतिष्ठा देता है, सब कुछ तेरे ही हाथ में है, प्रत्येक वस्तु पर तू ही बलवान् है।। रात को दिन में और दिन को रात में पैठाता है और मृतक को जीवित से जीवित को मृतक से निकालता है और जिस को चाहे अनन्त अन्न देता है।। मुसलमानों को उचित है कि काफिरों को मित्र न बनावें सिवाय मुसलमानों के जो कोई यह करे बस वह अल्लाह की ओर से नहीं।। कह जो तुम चाहते हो अल्लाह को तो पक्ष करो मेरा। अल्लाह चाहेगा तुम को और तुम्हारे पाप क्षमा करेगा; निश्चय ही करुणामय है।। -मं० १। सि० ३। सू० ३। आ० २५। २६। २७। २८। २९।।
(समीक्षक) जब प्रत्येक जीव को कर्मों का पूरा-पूरा फल दिया जावेगा तो क्षमा नहीं किया जायगा। और जो क्षमा किया जायगा तो पूरा फल नहीं दिया जायगा और अन्याय होगा जब विना उत्तम कर्मों के राज्य प्रतिष्ठा देगा तो भी अन्यायी हो जायगा और विना पाप के राज्य और प्रतिष्ठा छीन लेगा तो भी अन्यायकारी हो जायगा। भला! जीवित से मृतक और मृतक से जीवित कभी हो सकता है? क्योंकि ईश्वर की व्यवस्था अछेद्य-अभेद्य है। कभी अदल-बदल नहीं हो सकती। अब देखिये पक्षपात की बातें कि जो मुसलमान के मजहब में नहीं हैं उन को काफिर ठहराना। उन में श्रेष्ठों से भी मित्रता न रखने और मुसलमानों में दुष्टों से भी मित्रता रखने के लिये उपदेश करना ईश्वर को ईश्वरता से बहिः कर देता है। इस से यह कुरान, कुरान का खुदा और मुसलमान लोग केवल पक्षपात अविद्या के भरे हुए हैं। इसीलिये मुसलमान लोग अन्धेरे में हैं। और देखिये मुहम्मद साहेब की लीला कि जो तुम मेरा पक्ष करोगे तो खुदा तुम्हारा पक्ष करेगा और जो तुम पक्षपातरूप पाप करोगे उस की क्षमा भी करेगा। इस से सिद्ध होता है कि मुहम्मद साहेब का अन्तःकरण शुद्ध नहीं था। इसीलिये अपने मतलब सिद्ध करने के लिये मुहम्मद साहेब ने कुरान बनाया वा बनवाया ऐसा विदित होता है।।५०।।
५१- जिस समय कहा फरिश्तों ने कि ऐ मर्य्यम तुझ को अल्लाह ने पसन्द किया और पवित्र किया ऊपर जगत् की स्त्रियों के।। -मं० १। सि० ३। सू० ३। आ० ४५।।
(समीक्षक) भला जब आज कल खुदा के फरिश्ते और खुदा किसी से बातें करने को नहीं आते तो प्रथम कैसे आये होंगे? जो कहो कि पहले के मनुष्य पुण्यात्मा थे अब के नहीं तो यह बात मिथ्या है। किन्तु जिस समय ईसाई और मुसलमानों का मत चला था उस समय उन देशों में जंगली और विद्याहीन मनुष्य अधिक थे इसी लिये ऐसे विद्या-विरुद्ध मत चल गये। अब विद्वान् अधिक हैं इसलिये नहीं चल सकता। किन्तु जो-जो ऐसे पोकल मजहब हैं वे भी अस्त होते जाते हैं; वृद्धि की तो कथा ही क्या है।।५१।।
५२- उस को कहता है कि हो बस हो जाता है।। काफिरों ने धोखा दिया, ईश्वर ने धोखा दिया, ईश्वर बहुत मकर करने वाला है।। -मं० १। सि० ३। सू० ३। आ० ५३। ५४।।
(समीक्षक) जब मुसलमान लोग खुदा के सिवाय दूसरी चीज नहीं मानते तो खुदा ने किस से कहा? और उस के कहने से कौन हो गया? इस का उत्तर मुसलमान सात जन्म में भी नहीं दे सकेंगे। क्योंकि विना उपादान कारण के कार्य कभी नहीं हो सकता। विना कारण के कार्य कहना जानो अपने माँ बाप के विना मेरा शरीर हो गया ऐसी बात है। जो धोखा देता और मकर अर्थात् छल और दम्भ करता है वह ईश्वर तो कभी नहीं हो सकता किन्तु उत्तम मनुष्य भी ऐसा काम नहीं करता।।५२।।
५३- क्या तुम को यह बहुत न होगा कि अल्लाह तुम को तीन हजार फरिश्तों के साथ सहाय देवे।। -मं० १। सि० ४। सू० ३। आ० १२४।।
(समीक्षक) जो मुसलमानों को तीन हजार फरिश्तों के साथ सहाय देता था तो अब मुसलमानों की बादशाही बहुत सी नष्ट हो गई और होती जाती है क्यों सहाय नहीं देता? इसलिये यह बात केवल लोभ देके मूर्खों को फंसाने के लिये महा अन्याय की है।।५३।।
५४- और काफिरों पर हम को सहाय कर।। अल्लाह तुम्हारा उत्तम सहायक और कारसाज है।। जो तुम अल्लाह के मार्ग में मारे जाओ वा मर जाओ, अल्लाह की दया बहुत अच्छी है।। -मं० १। सि० ४। सू० ३। आ० १४७। १५०। १५८।।
(समीक्षक) अब देखिये मुसलमानों की भूल कि जो अपने मत से भिन्न हैं उन के मारने के लिये खुदा की प्रार्थना करते हैं। क्या परमेश्वर भोला है जो इन की बात मान लेवे? यदि मुसलमानों का कारसाज अल्लाह ही है तो फिर मुसलमानों के कार्य नष्ट क्यों होते हैं? और खुदा भी मुसलमानों के साथ मोह से फंसा हुआ दीख पड़ता है, जो ऐसा पक्षपाती खुदा है तो धर्मात्मा पुरुषों का उपासनीय कभी नहीं हो सकता।।५४।।
५५- और अल्लाह तुम को परोक्षज्ञ नहीं करता परन्तु अपने पैगम्बरों से जिस को चाहे पसन्द करे। बस अल्लाह और उस के रसूल के साथ ईमान लाओ।। -मं० १। सि० ४। सू० ३। आ० १७९।।
(समीक्षक) जब मुसलमान लोग सिवाय खुदा के किसी के साथ ईमान नहीं लाते और न किसी को खुदा का साझी मानते हैं तो पैगम्बर साहेब को क्यों ईमान में खुदा के साथ शरीक किया? अल्लाह ने पैगम्बर के साथ ईमान लाना लिखा, इसी से पैगम्बर भी शरीक हो गया, पुनः लाशरीक का कहना ठीक न हुआ । यदि इस का अर्थ यह समझा जाय कि मुहम्मद साहेब के पैगम्बर होने पर विश्वास लाना चाहिये तो यह प्रश्न होता है कि मुहम्मद साहब के होने की क्या आवश्यकता है? यदि खुदा उन को पैगम्बर किये विना अपना अभीष्ट कार्य नहीं कर सकता तो अवश्य असमर्थ हुआ।।५५।।
५६- ऐ ईमानवालो! सन्तोष करो परस्पर थामे रक्खो और लड़ाई में लगे रहो। अल्लाह से डरो कि तुम छुटकारा पाओ।। -मं० १। सि० ४। सू० ३। आ० १८६।।
(समीक्षक) यह कुरान का खुदा और पैगम्बर दोनों लड़ाईबाज थे। जो लड़ाई की आज्ञा देता है वह शान्तिभंग करने वाला होता है। क्या नाम मात्र खुदा से डरने से छुटकारा पाया जाता है? वा अधर्मयुक्त लड़ाई आदि से डरने से? जो प्रथम पक्ष है तो डरना न डरना बराबर और जो द्वितीय पक्ष है तो ठीक है।।५६।।
५७- ये अल्लाह की हदें हैं जो अल्लाह और उनके रसूल का कहा मानेगा वह बहिश्त में पहुँचेगा जिन में नहरें चलती हैं और यही बड़ा प्रयोजन है।। जो अल्लाह की और उस के रसूल की आज्ञा भंग करेगा और उस की हदों से बाहर हो जायगा वो सदैव रहने वाली आग में जलाया जावेगा और उस के लिये खराब करने वाला दुःख है।। -मं० १। सि० ४। सू० ४। आ० १३। १४।।
(समीक्षक) खुदा ही ने मुहम्मद साहेब पैगम्बर को अपना शरीक कर लिया है और खुद कुरान ही मेंं लिखा है। और देखो! खुदा पैगम्बर साहेब के साथ कैसा फंसा है कि जिस ने बहिश्त में रसूल का साझा कर दिया है। किसी एक बात में भी मुसलमानों का खुदा स्वतन्त्र नहीं तो लाशरीक कहना व्यर्थ है। ऐसी-ऐसी बातें ईश्वरोक्त पुस्तक में नहीं हो सकतीं।।५७।।
५८- और एक त्रसरेणु की बराबर भी अल्लाह अन्याय नहीं करता । और जो भलाई होवे उस का दुगुण करेगा उस को।। -मं० १। सि० ५। सू० ४। आ० ४०।।
(समीक्षक) जो एक त्रसरेणु के बराबर भी खुदा अन्याय नहीं करता तो पुण्य को द्विगुण क्यों देता? और मुसलमानों का पक्षपात क्यों करता है? वास्तव में द्विगुण वा न्यून फल कर्मों का देवे तो खुदा अन्यायी हो जावे।।५८।।
५९- जब तेरे पास से बाहर निकलते हैं तो तेरे कहने के सिवाय (विपरीत) शोचते हैं। अल्लाह उन की सलाह को लिखता है।। अल्लाह ने उन की कमाई वस्तु के कारण से उन को उलटा किया। क्या तुम चाहते हो कि अल्लाह के गुमराह किये हुए को मार्ग पर लाओ? बस जिस को अल्लाह गुमराह करे उसको कदापि मार्ग न पावेगा।। -मं० १। सि० ५। सू० ४। आ० ८१-८८।।
(समीक्षक) जो अल्लाह बातों को लिख बहीखाता बनाता जाता है तो सर्वज्ञ नहीं। जो सर्वज्ञ है तो लिखने का क्या काम? और जो मुसलमान कहते हैं कि शैतान ही सब को बहकाने से दुष्ट हुआ है तो जब खुदा ही जीवों को गुमराह करता है तो खुदा और शैतान में क्या भेद रहा? हां! इतना भेद कह सकते हैं कि खुदा बड़ा शैतान, वह छोटा शैतान। क्योंकि मुसलमानों ही का कौल है कि जो बहकाता है वही शैतान है तो इस प्रतिज्ञा से खुदा को भी शैतान बना दिया।।५९।।
६०- और अपने हाथों को न रोकें तो उन को पकड़ लो और जहाँ पाओ मार डालो।। मुसलमान को मुसलमान का मारना योग्य नहीं। जो कोई अनजाने से मार डाले बस एक गर्दन मुसलमान का छोड़ना है और खून बहा उन लोगों की ओर सौंपी हुई जो उस कौम से होवें, और तुम्हारे लिये दान कर देवें, जो दुश्मन की कौम से।। और जो कोई मुसलमान को जान कर मार डाले वह सदैव काल दोजख में रहेगा, उस पर अल्लाह का क्रोध और लानत है।। -मं० १। सि० ५। सू० ४। आ० ९१। ९२। ९३।।
(समीक्षक) अब देखिये महा पक्षपात की बात कि जो मुसलमान न हो उस को जहाँ पाओ मार डालो और मुसलमानों को न मारना। भूल से मुसलमानों के मारने में प्रायश्चित्त और अन्य को मारने से बहिश्त मिलेगा ऐसे उपदेश को कुए में डालना चाहिये। ऐसे-ऐसे पुस्तक ऐसे-ऐसे पैगम्बर ऐसे-ऐसे खुदा और ऐसे-ऐसे मत से सिवाय हानि के लाभ कुछ भी नहीं। ऐसों का न होना अच्छा और ऐसे प्रामादिक मतों से बुद्धिमानों को अलग रह कर वेदोक्त सब बातों को मानना चाहिये क्योंकि उस में असत्य किञ्चिन्मात्र भी नहीं है। और जो मुसलमान को मारे उस को दोजख मिले और दूसरे मत वाले कहते हैं कि मुसलमान को मारे तो स्वर्ग मिले। अब कहो इन दोनों मतों में से किस को मानें किस को छोड़ें? किन्तु ऐसे मूढ़ प्रकल्पित मतों को छोड़ कर वेदोक्त मत स्वीकार करने योग्य सब मनुष्यों के लिये है कि जिस में आर्य्य मार्ग अर्थात् श्रेष्ठ पुरुषों के मार्ग में चलना और दस्यु अर्थात् दुष्टों के मार्ग से अलग रहना लिखा है; सर्वोत्तम है।।६०।।
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God's law is impermeable. Now see the favoritism that those who are not in the religion of Muslims should be confessed. Teaching them not to befriend the nobles and to befriend the wicked among Muslims also excludes God from divinity. By this it is the Quran inscribed and the Muslim people are only full of partiality ignorance. That is why Muslim people are in the dark. And see Mohammad Saheb's Leela that if you do me the favor, God will do you favor and you will also forgive the sin which you will side by side.
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