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नवम समुल्लास खण्ड-3

(प्रश्न) जो मुक्ति से भी जीव फिर आता है तो वह कितने समय तक मुक्ति में रहता है?

(उत्तर) ते ब्रह्मलोके ह परान्तकाले परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वे।

यह मुण्डक उपनिषत् का वचन है।

वे मुक्त जीव मुक्ति में प्राप्त होके ब्रह्म में आनन्द को तब तक भोग के पुनः महाकल्प के पश्चात् मुक्ति सुख को छोड़ के संसार में आते हैं। इसकी संख्या यह है कि तेंतालीस लाख बीस सहस्र वर्षों की एक चतुर्युगी, दो सहस्र चतुर्युगियों का एक अहोरात्र, ऐसे तीस अहोरात्रें का एक महीना, ऐसे बारह महीनों का एक वर्ष, ऐसे शत वर्षों का परान्तकाल होता है। इसको गणित की रीति से यथावत् समझ लीजिए। इतना समय मुक्ति में सुख भोगने का है।

(प्रश्न) सब संसार और ग्रन्थकारों का यही मत है कि जिस से पुनः जन्म मरण में कभी न आवें।

(उत्तर) यह बात कभी नहीं हो सकती क्योंकि प्रथम तो जीव का सामर्थ्य शरीरादि पदार्थ और साधन परिमित हैं पुनः उस का फल अनन्त कैसे हो सकता है? अनन्त आनन्द का भोगने का असीम सामर्थ्य; कर्म और साधन जीवों में नहीं, इसलिये अनन्त सुख नहीं भोग सकते। जिन के साधन अनित्य हैं उन का फल नित्य कभी नहीं हो सकता। और जो मुक्ति में से कोई भी लौट कर जीव इस संसार में न आवे तो संसार का उच्छेद अर्थात् जीव निश्शेष हो जाने चाहिये।

(प्रश्न) जितने जीव मुक्त होते हैं उतने ईश्वर नये उत्पन्न करके संसार में रख देता है इसलिये निश्शेष नहीं होते।

(उत्तर) जो ऐसा होवे तो जीव अनित्य हो जायें क्योंकि जिस की उत्पत्ति होती है उस का नाश अवश्य होता है फिर तुम्हारे मतानुसार मुक्ति पाकर भी विनष्ट हो जायें। मुक्ति अनित्य हो गई और मुक्ति के स्थान में बहुत सा भीड़ भड़क्का हो जायेगा क्योंकि वहां आगम अधिक और व्यय कुछ भी नहीं होने से बढ़ती का पारावार न रहेगा और दुःख के अनुभव के विना सुख कुछ भी नहीं हो सकता। जैसे कटु न हो तो मधुर क्या, जो मधुर न हो तो कटु क्या कहावे? क्योंकि एक स्वाद के एक रस के विरुद्ध होने से दोनों की परीक्षा होती है। जैसे कोई मनुष्य मीठा मधुर ही खाता पीता जाय उस को वैसा सुख नहीं होता जैसा सब प्रकार के रसों के भोगने वाले को होता है। और जो ईश्वर अन्त वाले कर्मों का अनन्त फल देवे तो उस का न्याय नष्ट हो जाय। जो जितना भार उठा सके उतना उस पर धरना बुद्धिमानों का काम है। जैसे एक मन भर उठाने वाले के शिर पर दश मन धरने से भार धरने वाले की निन्दा होती है वैसे अल्पज्ञ अल्प सामर्थ्य वाले जीव पर अनन्त सुख का भार धरना ईश्वर के लिए ठीक नहीं। और जो परमेश्वर नये जीव उत्पन्न करता है तो जिस कारण से उत्पन्न होते हैं वह चुक जायेगा। क्योंकि चाहैं कितना ही बड़ा धनकोश हो परन्तु जिस में व्यय है और आय नहीं उसका कभी न कभी दिवाला निकल ही जाता है। इसलिये यही व्यवस्था ठीक है कि मुक्ति में जाना वहां से पुनः आना ही अच्छा है। क्या थोड़े से कारागार से जन्मकारागार दण्ड, काले पानी अथवा फांसी को कोई अच्छा मानता है? जब वहां से आना ही न हो तो जन्म कारागार से इतना ही अन्तर है कि वहां मजूरी नहीं करनी पड़ती और ब्रह्म में लय होना समुद्र में डूब मरना है।

(प्रश्न) जैसे परमेश्वर नित्यमुक्त, पूर्ण सुखी है वैसे ही जीव भी नित्यमुक्त और सुखी रहेगा तो कोई दोष न आवेगा।

(उत्तर) परमेश्वर अनन्त स्वरूप, सामर्थ्य, गुण, कर्म स्वभाववाला है इसलिये वह कभी अविद्या और दुःख बन्धन में नहीं गिर सकता। जीव मुक्त होकर भी शुद्धस्वरूप, अल्पज्ञ और परिमित गुण, कर्म, स्वभाव वाला रहता है, परमेश्वर के सदृश कभी नहीं होता।

(प्रश्न) जब ऐसी है तो मुक्ति भी जन्म मरण के सदृश है इसलिये श्रम करना व्यर्थ है।

(उत्तर) मुक्ति जन्म मरण के सदृश नहीं, क्योंकि जब तक ३६००० छत्तीस सहस्र वार उत्पत्ति और प्रलय का जितना समय होता है उतने समय पर्यन्त जीवों को मुक्ति के आनन्द में रहना, दुःख का न होना, क्या छोटी बात है? जब आज खाते पीते हो कल भूख लगने वाली है पुनः इस का उपाय क्यों करते हो? जब क्षुधा, तृषा, क्षुद्र धन, राज्य, प्रतिष्ठा, स्त्री, सन्तान आदि के लिये उपाय करना आवश्यक है तो मुक्ति के लिये क्यों न करना? जैसे मरना अवश्य है तो भी जीवन का उपाय किया जाता है वैसे ही मुक्ति से लौट कर जन्म में आना है तथापि उस का उपाय करना अत्यावश्यक है?

(प्रश्न) मुक्ति के क्या-क्या साधन हैं?

(उत्तर) कुछ साधन तो प्रथम लिख आये हैं परन्तु विशेष उपाय ये हैं। जो मुक्ति चाहै वह जीवनमुक्त अर्थात् जिन मिथ्याभाषणादि पाप कर्मों का फल दुःख है; उन को छोड़ सुखरूप फल को देने वाले सत्यभाषणादि धर्माचरण अवश्य करे। जो कोई दुःख को छुड़ाना और सुख को प्राप्त होना चाहै वह अधर्म को छोड़ धर्म अवश्य करे। क्योंकि दुःख का पापाचरण और सुख का धर्माचरण मूल कारण है। सत्पुरुषों के संग से विवेक अर्थात् सत्यासत्य, धर्माधर्म कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निश्चय अवश्य करें, पृथक्-पृथक् जानें। और शरीर अर्थात् जीव पञ्चकोशों का विवेचन करें। एक ‘अन्नमय’ जो त्वचा से लेकर अस्थिपर्यन्त का समुदाय पृथिवीमय है। दूसरा ‘प्राणमय’ जिस में ‘प्राण’ अर्थात् जो भीतर से बाहर जाता, ‘अपान’ जो बाहर से भीतर आता, ‘समान’ जो नाभिस्थ होकर सर्वत्र शरीर में रस पहुंचाता, ‘उदान’ जिस से कण्ठस्थ अन्न पान खैंचा जाता और बल पराक्रम होता है, ‘व्यान’ जिस से सब शरीर में चेष्टा आदि कर्म जीव करता है। तीसरा ‘मनोमय’ जिस में मन के साथ अहंकार, वाक्, पाद, पाणि, पायु और उपस्थ पांच कर्म-इन्द्रियां हैं। चौथा ‘विज्ञानमय’ जिस में बुद्धि, चित्त, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका ये पांच ज्ञान-इन्द्रियाँ जिन से जीव ज्ञानादि व्यवहार करता है। पांचवां ‘आनन्दमयकोश’ जिस में प्रीति प्रसन्नता, न्यून आनन्द, अधिकानन्द, आनन्द और आवमार कारण रूप प्रकृति है। ये पांच कोष कहाते हैं। इन्हीं से जीव सब प्रकार के कर्म, उपासना और ज्ञानादि व्यवहारों को करता है।

तीन अवस्था-एक ‘जागृत’ दूसरी ‘स्वप्न’ और तीसरी ‘सुषुप्ति’ अवस्था कहाती है।

तीन शरीर हैं-एक ‘स्थूल’ जो यह दीखता है। दूसरा पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच सूक्ष्म भूत और मन तथा बुद्धि इन सत्तरह तत्त्वों का समुदाय ‘सूक्ष्मशरीर’ कहाता है। यह सूक्ष्म शरीर जन्ममरणादि में भी जीव के साथ रहता है। इस के दो भेद हैं-एक भौतिक अर्थात् जो सूक्ष्म भूतों के अंशों से बना है। दूसरा स्वाभाविक जो जीव के स्वाभाविक गुण रूप हैं। यह दूसरा अभौतिक शरीर मुक्ति में भी रहता है। इसी से जीव मुक्ति में सुख को भोगता है। तीसरा कारण जिस में सुषुप्ति अर्थात् गाढ़ निद्रा होती है वह प्रकृति रूप होने से सर्वत्र विभु और सब जीवों के लिए एक है। चौथा तुरीय शरीर वह कहाता है जिस में समाधि से परमात्मा के आनन्दस्वरूप में मग्न जीव होते हैं। इसी समाधि संस्कारजन्य शुद्ध शरीर का पराक्रम मुक्ति में भी यथावत् सहायक रहता है।

इन सब कोष, अवस्थाओं से जीव पृथक् है, क्योंकि यह सब को विदित है कि अवस्थाओं से जीव पृथक् है। क्योंकि जब मृत्यु होता है तब सब कोई कहते हैं कि जीव निकल गया, यही जीव सब का प्रेरक, सब का धर्त्ता, साक्षीकर्त्ता, भोक्ता कहाता है। जो कोई ऐसा कहे कि जीव कर्त्ता भोक्ता नहीं तो उस को जानो कि वह अज्ञानी, अविवेकी है। क्योंकि विना जीव के जो ये सब जड़ पदार्थ हैं इन को सुख-दुःख का भोग वा पाप पुण्य कर्तृत्व कभी नहीं हो सकता। हां, इन के सम्बन्ध से जीव पाप पुण्यों का कर्त्ता और सुख दुःखों का भोक्ता है। जब इन्द्रियां अर्थों में मन इन्द्रियों और आत्मा मन के साथ संयुक्त होकर प्राणों को प्रेरणा करके अच्छे वा बुरे कर्मों में लगाता है तभी वह बहिर्मुख हो जाता है। उसी समय भीतर से आनन्द, उत्साह, निर्भयता और बुरे कर्मों में भय, शंका, लज्जा उत्पन्न होती है। वह अन्तर्यामी परमात्मा की शिक्षा है। जो कोई इस शिक्षा के अनुकूल वर्त्तता है वही मुक्तिजन्य सुखों को प्राप्त होता है। और जो विपरीत वर्त्तता है वह बन्धजन्य दुःख भोगता है।

दूसरा साधन ‘वैराग्य’-अर्थात् जो विवेक से सत्यासत्य को जाना हो उसमें से सत्याचरण का ग्रहण और असत्याचरण का त्याग करना विवेक है-जो पृथिवी से लेकर परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों के गुण, कर्म, स्वभाव से जानकर उस की आज्ञापालन और उपासना में तत्पर होना, उस से विरुद्ध न चलना, सृष्टि से उपकार लेना विवेक कहाता है।

तत्पश्चात् तीसरा साधन-‘षट्क सम्पत्ति’ अर्थात् छः प्रकार के कर्म करना-एक ‘शम’ जिस से अपने आत्मा और अन्तःकरण को अधर्माचरण से हटाकर धर्माचरण में प्रवृत्त रखना। दूसरा ‘दम’ जिस से श्रोत्रदि इन्द्रियों और शरीर को व्यभिचारादि बुरे कर्मों से हटा कर जितेन्द्रियत्वादि शुभ कर्मों में प्रवृत्त रखना। तीसरा ‘उपरति’ जिस से दुष्ट कर्म करने वाले पुरुषों से सदा दूर रहना। चौथा ‘तितिक्षा’ चाहे निन्दा, स्तुति, हानि, लाभ कितना ही क्यों न हो परन्तु हर्ष शोक को छोड़ मुक्ति साधनों में सदा लगे रहना। पांचवां ‘श्रद्धा’ जो वेदादि सत्य शास्त्र और इन के बोध से पूर्ण आप्त विद्वान् सत्योपदेष्टा महाशयों के वचनों पर विश्वास करना। छठा ‘समाधान’ चित्त की एकाग्रता ये छः मिलकर एक ‘साधन’ तीसरा कहाता है।

चौथा ‘मुमुक्षुत्व’ अर्थात् जैसे क्षुधा तृषातुर को सिवाय अन्न जल के दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं लगता वैसे विना मुक्ति के साधन और मुक्ति के दूसरे में प्रीति न होना। ये चार साधन और चार अनुबन्ध अर्थात् साधनों के पश्चात् ये कर्म करने होते हैं। इन में से जो न-इन चार साधनों से युक्त पुरुष होता है वही मोक्ष का अधिकारी होता है।

दूसरा ‘सम्बन्ध’ ब्रह्म की प्राप्ति रूप मुक्ति प्रतिपाद्य और वेदादि शास्त्र प्रतिपादक को यथावत् समझ कर अन्वित करना।

तीसरा ‘विषयी’ सब शास्त्रें का प्रतिपादन विषय ब्रह्म उस की प्राप्तिरूप विषय वाले पुरुष का नाम विषयी है।

चौथा ‘प्रयोजन’ सब दुःखों की निवृत्ति और परमानन्द को प्राप्त होकर मुक्ति सुख का होना। ये चार अनुबन्ध कहाते हैं।

तदनन्तर ‘श्रवणचतुष्टय’ एक ‘श्रवण’ जब कोई विद्वान् उपदेश करे तब शान्त, ध्यान देकर सुनना, विशेष ब्रह्मविद्या के सुनने में अत्यन्त ध्यान देना चाहिये कि यह सब विद्याओं में सूक्ष्म विद्या है। सुन कर दूसरा ‘मनन’ एकान्त देश में बैठ के सुने हुए का विचार करना। जिस बात में शंका हो पुनः पूछना और सुनते समय भी वक्ता और श्रोता उचित समझें तो पूछना और समाधान करना। तीसरा ‘निदिध्यासन’ जब सुनने और मनन करने से निसन्देह हो जाय तब समाधिस्थ हो कर उस बात को देखना समझना कि वह जैसा सुना था विचारा था वैसा ही है वा नहीं? ध्यानयोग से देखना। चौथा ‘साक्षात्कार’ अर्थात् जैसा पदार्थ का स्वरूप गुण और स्वभाव हो वैसा याथातथ्य जान लेना ही ‘श्रवणचतुष्टय’ कहाता है। सदा तमोगुण अर्थात् क्रोध, मलीनता, आलस्य, प्रमाद आदि; रजोगुण अर्थात् ईर्ष्या, द्वेष, काम, अभिमान, विक्षेप आदि दोषों से अलग होके सत्त्व अर्थात् शान्त प्रकृति, पवित्रता, विद्या, विचार आदि गुणों को धारण करे। (मैत्री) सुखी जनों में मित्रता, (करुणा) दुःखी जनों पर दया, (मुदिता) पुण्यात्माओं से हर्षित होना, (उपेक्षा) दुष्टात्माओं में न प्रीति और न वैर करना।

नित्यप्रति न्यून से न्यून दो घण्टा पर्यन्त मुमुक्षु ध्यान अवश्य करे जिस

से भीतर के मन आदि पदार्थ साक्षात् हों।

देखो! अपने चेतनस्वरूप हैं इसी से ज्ञानस्वरूप और मन के साक्षी हैं क्योंकि जब मन शान्त, चञ्चल, आनन्दित वा विषादयुक्त होता है उस को यथावत् देखते हैं वैसे ही इन्द्रियां प्राण आदि का ज्ञाता, पूर्वदृष्ट का स्मरणकर्त्ता और एक काल में अनेक पदार्थों के वेत्ता, धारणाकर्षणकर्त्ता और सब से पृथक् हैं। जो पृथक् न होते तो स्वतन्त्र कर्त्ता इन के प्रेरक अधिष्ठाता कभी नहीं हो सकते। अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः। -योगेशास्त्रे पादे २। सू० ३।। इन में से अविद्या का स्वरूप कह आये। पृथक् वर्त्तमान बुद्धि को आत्मा से भिन्न न समझना अस्मिता, सुख में प्रीति राग, दुःख में अप्रीति द्वेष और सब प्राणिमात्र को यह इच्छा सदा रहती है कि ‘मैं सदा शरीरस्थ रहूं, मरूँ नहीं’ मृत्यु दुःख से त्रस अभिनिवेश कहाता है। इन पांच क्लेशों को योगाभ्यास विज्ञान से छुड़ा के ब्रह्म को प्राप्त हो के मुक्ति के परमानन्द को भोगना चाहिये।

(प्रश्न) जैसी मुक्ति आप मानते हैं वैसी अन्य कोई नहीं मानता, देखो! जैनी लोग मोक्षशिला, शिवपुर में जाके चुपचाप बैठे रहना, ईसाई चौथा आसमान जिस में विवाह लड़ाई बाजे गाजे वस्त्रदि धारण से आनन्द भोगना; वैसे ही मुसलमान सातवें आसमान; वाममार्गी श्रीपुर; शैव कैलाश; वैष्णव वैकुण्ठ और गोकुलिये गोसाईं गोलोक आदि में जाके उत्तम स्त्री, अन्न, पान, वस्त्र, स्थान आदि को प्राप्त होकर आनन्द में रहने को मुक्ति मानते हैं। पौराणिक लोग (सालोक्य) ईश्वर के लोक में निवास, (सानुज्य) छोटे भाई के सदृश ईश्वर के साथ रहना, (सारूप्य) जैसी उपासनीय देव की आकृति है वैसा बन जाना, (सामीप्य) सेवक के समान ईश्वर के समीप रहना, (सायुज्य) ईश्वर से संयुक्त हो जाना ये चार प्रकार की मुक्ति मानते हैं। वेदान्ती लोग ब्रह्म में लय होने को मोक्ष समझते हैं।

(उत्तर) जैनी (१२) बारहवें, ईसाई (१३) तेरहवें और चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों की मुक्ति आदि विषय विशेष कर लिखेंगे। जो वाममार्गी श्रीपुर में जाकर लक्ष्मी के सदृश स्त्रियां, मद्य मांसादि खाना पीना रंग राग भोग करना मानते हैं वह यहाँ से कुछ विशेष नहीं। वैसे ही शैव तथा वैष्णवों का महादेव और विष्णु के सदृश आकृति वाले पार्वती और लक्ष्मी के सदृश स्त्रीयुक्त होकर आनन्द भोगना; यहां के धनाढ्य राजाओं से अधिक इतना ही लिखते हैं कि वहां रोग न होंगे और युवावस्था सदा रहेगी। यह उन की बात मिथ्या है क्योंकि जहां भोग वहां रोग और जहां रोग वहाँ वृद्धावस्था अवश्य होती है। और पौराणिकों से पूछना चाहिये कि जैसी तुम्हारी चार प्रकार की मुक्ति है वैसी तो कृमि, कीट, पतंग, पश्वादिकों को भी स्वतःसिद्ध प्राप्त है, क्योंकि ये जितने लोक हैं वे सब ईश्वर के हैं। इन्हीं में सब जीव रहते हैं इसलिये ‘सालोक्य’ मुक्ति अनायास प्राप्त है। ‘सामीप्य’ ईश्वर सर्वत्र व्याप्त होने से सब उस के समीप हैं इसलिये ‘सामीप्य’ मुक्ति भी स्वतःसिद्ध है। ‘सानुज्य’ जीव ईश्वर से सब प्रकार छोटा और चेतन होने से स्वतः बन्धुवत् है इससे ‘सानुज्य’ मुक्ति भी विना प्रयत्न के सिद्ध है। और सब जीव सर्वव्यापक परमात्मा में व्याप्य होने से संयुक्त हैं इस से ‘सायुज्य’ मुक्ति भी स्वतःसिद्ध है। और जो अन्य साधारण नास्तिक लोग मरने से तत्त्वों में मिलकर परम मुक्ति मानते हैं वह तो कुत्ते गदहे आदि को भी प्राप्त है। ये मुक्तियां नहीं हैं किन्तु एक प्रकार का बन्धन हैं क्योंकि ये लोग शिवपुर, मोक्षशिला, चौथे आसमान, सातवें आसमान, श्रीपुर, कैलाश, वैकुण्ठ, गोलोक को एक देश में स्थान विशेष मानते हैं। जो वे उन स्थानों से पृथक् हों तो मुक्ति छूट जाय। इसीलिए जैसे १२ पत्थर के भीतर दृष्टिबन्ध होते हैं उस के समान बन्धन में होंगे! मुक्ति तो यही है कि जहां इच्छा हो वहां विचरे; कहीं अटके नहीं। न भय, न शंका, न दुःख होता है। जो जन्म है वह उत्पत्ति और मरना प्रलय कहा है। समय पर जन्म लेते हैं।

 

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This is a misnomer for them because where there is disease, there is disease and where there is old age there. And the legends should ask that worms, insects, moths, pashwadis are also self-attentive as you have four types of salvation, because all the folk they belong to are God. All living beings live in them, so Salokya is liberated spontaneously. As 'Samipya' God spreads everywhere, everyone is close to him, so 'Samipya' liberation is also self-evident.

 

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