नवम समुल्लास खण्ड-4
(प्रश्न) जन्म एक है वा अनेक?
(उत्तर) अनेक।
(प्रश्न) जो अनेक हों तो पूर्व जन्म और मृत्यु की बातों का स्मरण क्यों नहीं?
(उत्तर) जीव अल्पज्ञ है त्रिकालदर्शी नहीं इसलिये स्मरण नहीं रहता। और जिस मन से ज्ञान करता है वह भी एक समय में दो ज्ञान नहीं कर सकता। भला पूर्व जन्म की बात तो दूर रहने दीजिये, इसी देह में जब गर्भ में जीव था, शरीर बना, पश्चात् जन्मा पांचवें वर्ष से पूर्व तक जो-जो बातें हुई हैं उन का स्मरण क्यों नहीं कर सकता? और जागृत वा स्वप्न में बहुत सा व्यवहार प्रत्यक्ष में करके जब सुषुप्ति अर्थात् गाढ़ निद्रा होती है तब जागृत आदि व्यवहार का स्मरण क्यों नहीं कर सकता? और तुम से कोई पूछे कि बारह वर्ष के पूर्व तेरहवें वर्ष के पांचवें महीने के नवमे दिन दस बजे पर पहली मिनट में तुमने क्या किया था? तुम्हारा मुख, हाथ, कान, नेत्र, शरीर किस ओर किस प्रकार का था? और मन में क्या विचार था? जब इसी शरीर में ऐसा है तो पूर्व जन्म की बातों के स्मरण में शंका करनी केवल लड़कपने की बात है। और जो स्मरण नहीं होता है इसी से जीव सुखी है। नहीं तो सब जन्मों के दुःखों को देख-देख दुखित होकर मर जाता। जो कोई पूर्व और पीछे जन्म के वर्त्तमान को जानना चाहै तो भी नहीं जान सकता क्योंकि जीव का ज्ञान और स्वरूप अल्प है। यह बात ईश्वर के जानने योग्य है; जीव के नहीं।
(प्रश्न) जब जीव को पूर्व का ज्ञान नहीं और ईश्वर इस को दण्ड देता है तो जीव का सुधार नहीं हो सकता क्योंकि जब उस को ज्ञान हो कि हमने अमुक काम किया था उसी का यह फल है तभी वह पापकर्मों से बच सके ?
(उत्तर) तुम ज्ञान कै प्रकार का मानते हो?
(प्रश्न) प्रत्यक्षादि प्रमाणों से आठ प्रकार का।
(उत्तर) तो जब तुम जन्म से लेकर समय-समय में राज, धन, बुद्धि, विद्या, दारिद्र्य, निर्बुद्धि, मूर्खता आदि सुख-दुःख संसार में देखकर पूर्वजन्म का ज्ञान क्यों नहीं करते? जैसे एक अवैद्य और एक वैद्य को कोई रोग हो उस का निदान अर्थात् कारण वैद्य जान लेता और अविद्वान् नहीं जान सकता। उस ने वैद्यक विद्या पढ़ी है और दूसरे ने नहीं। परन्तु ज्वरादि रोग होने से अवैद्य भी इतना जान सकता है कि मुझ से कोई कुपथ्य हो गया है जिस से मुझे यह रोग हुआ है। वैसे ही जगत् में विचित्र सुख दुःख आदि की घटती बढ़ती देख के पूर्वजन्म का अनुमान क्यों नहीं जान लेते ? और जो पूर्वजन्म को न मानोगे तो परमेश्वर पक्षपाती हो जाता है क्योंकि विना पाप के दारिद्र्यादि दुःख और विना पूर्वसि ञ्चत पुण्य के राज्य धनाढ्यता और निर्बुद्धिता उस को क्यों दी? और पूर्वजन्म के पाप पुण्य के अनुसार दुःख सुख के देने से परमेश्वर न्यायकारी यथावत् रहता है।
(प्रश्न) एक जन्म होने से भी परमेश्वर न्यायकारी हो सकता है। जैसे सर्वोपरि राजा जो करे सो न्याय। जैसे माली अपने उपवन में छोटे और बड़े वृक्ष लगाता किसी को काटता उखाड़ता और किसी की रक्षा करता बढ़ाता है। जिस की जो वस्तु है उसको वह चाहै जैसे रक्खे। उस के ऊपर कोई भी दूसरा न्याय करने वाला नहीं जो उस को दण्ड दे सके वा ईश्वर किसी से डरे।
(उत्तर) परमात्मा जिस लिए न्याय चाहता करता; अन्याय कभी नहीं करता इसीलिये वह पूजनीय और बड़ा है। जो न्यायविरुद्ध करे वह ईश्वर ही नहीं। जैसे माली युक्ति के विना मार्ग वा अस्थान में वृक्ष लगाने, न काटने योग्य को काटने, अयोग्य को बढ़ाने, योग्य को न बढ़ाने से दूषित होता है इसी प्रकार विना कारण के करने से ईश्वर को दोष लगे। परमेश्वर के ऊपर न्याययुक्त काम करना अवश्य है क्योंकि वह स्वभाव से पवित्र और न्यायकारी है। जो उन्मत्त के समान काम करे तो जगत् के श्रेष्ठ न्यायाधीश से भी न्यून और अप्रतिष्ठित होवे। क्या इस जगत् में विना योग्यता के उत्तम काम किये प्रतिष्ठा और दुष्ट काम किये विना दण्ड देने वाला निन्दनीय अप्रतिष्ठित नहीं होता ? इसीलिये ईश्वर अन्याय नहीं करता इसी से किसी से नहीं डरता।
(प्रश्न) परमात्मा ने प्रथम ही से जिस के लिए जितना देना विचारा है उतना देता और जितना काम करना है उतना करता है।
(उत्तर) उस का विचार जीवों के कर्मानुसार होता है अन्यथा नहीं। जो अन्यथा हो तो वह भी अपराधी अन्यायकारी होवे।
(प्रश्न) बड़े छोटों को एक सा ही सुख दुःख है। बड़ों को बड़ी चिन्ता और छोटों को छोटी। जैसे-किसी साहूकार का विवाद राजघर में लाख रुपये का हो तो वह अपने घर से पालकी में बैठ कर कचहरी में उष्णकाल में जाता हो, बाजार में हो के उस को जाता देख कर अज्ञानी लोग कहते हैं कि देखो पुण्य पाप का फल, एक पालकी में आनन्दपूर्वक बैठा है और दूसरे विना जूते पहिरे नीचे से तप्यमान होते हुए पालकी को उठा कर ले जाते हैं। परन्तु बुद्धिमान् लोग इस में यह जानते हैं कि जैसे-जैसे कचहरी निकट आती जाती है वैसे-वैसे साहूकार को बड़ा शोक और सन्देह बढ़ता जाता और कहारों को आनन्द होता जाता है। जब कचहरी में पहुंचते हैं तब सेठ जी इधर उधर जाने का विचार करते हैं कि प्राड्विवाक (वकील) के पास जाऊँ वा सरिश्तेदार के पास। आज हारूंगा वा जीतूँगा न जाने क्या होगा? और कहार लोग तमाखू पीते परस्पर बातें चीतें करते हुए प्रसन्न होकर आनन्द में सो जाते हैं। जो वह जीत जाय तो कुछ सुख और हार जाये तो सेठ जी दुःखसागर में डूब जाय और वे कहार जैसे के वैसे रहते हैं। इसी प्रकार जब राजा सुन्दर कोमल बिछोने में सोता है तो भी शीघ्र निद्रा नहीं आती और मजूर कंकर पत्थर और मट्टी ऊँचे नीचे स्थल पर सोता है उस को झट ही निद्रा आती है। ऐसे ही सर्वत्र समझो।
(उत्तर) यह समझ अज्ञानियों की है। क्या किसी साहूकार से कहें कि तू कहार बन जा और कहार से कहें कि तू साहूकार बन जा तो साहूकार कभी कहार बनना नहीं और कहार साहूकार बनना चाहते हैं। जो सुख दुःख बराबर होता तो अपनी-अपनी अवस्था छोड़ नीच और ऊंच बनना दोनों न चाहते। देखो! एक जीव विद्वान्, पुण्यात्मा, श्रीमान् राजा की राणी के गर्भ में आता और दूसरा महादरिद्र घसियारी के गर्भ में आता है। एक को गर्भ से लेकर सर्वथा सुख और दूसरे को सब प्रकार दुःख मिलता है। एक जब जन्मता है तब सुन्दर सुगन्धितयुक्त जलादि से स्नान, युक्ति से नाड़ी छेदन, दुग्धपानादि यथायोग्य प्राप्त होते हैं। जब वह दूध पीना चाहता है तो उस के साथ मिश्री आदि मिला कर यथेष्ट मिलता है। उसको प्रसन्न रखने के लिये नौकर चाकर खिलौना सवारी उत्तम स्थानों में लाड़ से आनन्द होता है। दूसरे का जन्म जंगल में होता, स्नान के लिये जल भी नहीं मिलता, जब दूध पीना चाहता तब दूध के बदले में घूंसा थपेड़ा आदि से पीटा जाता है। अत्यन्त आर्तस्वर से रोता है। कोई नहीं पूछता। इत्यादि जीवों को विना पुण्य पाप के सुख दुःख होने से परमेश्वर पर दोष आता है। दूसरा जैसे विना किये कर्मों के सुख दुःख मिलते हैं तो आगे नरक स्वर्ग भी न होना चाहिये। क्योंकि जैसे परमेश्वर ने इस समय विना कर्मों के सुख दुःख दिया है वैसे मरे पीछे भी जिस को चाहेगा उस को स्वर्ग में और जिस को चाहे नरक में भेज देगा। पुनः सब जीव अधर्मयुक्त हो जायेंगे, धर्म क्यों करें ? क्योंकि धर्म का फल मिलने में सन्देह है। परमेश्वर के हाथ है, जैसे उस की प्रसन्नता होगी वैसा करेगा तो पापकर्मों में भय न होकर संसार में पाप की वृद्धि और धर्म का क्षय हो जायेगा। इसलिये पूर्व जन्म के पुण्य पाप के अनुसार वर्त्तमान जन्म और वर्त्तमान तथा पूर्वजन्म के कर्मानुसार भविष्यत् जन्म होते हैं।
(प्रश्न) मनुष्य और अन्य पश्वादि के शरीर में जीव एक सा है वा भिन्न-भिन्न जाति के?
(उत्तर) जीव एक से हैं परन्तु पाप पुण्य के योग से मलिन और पवित्र होते हैं।
(प्रश्न) मनुष्य का जीव पश्वादि में और पश्वादि का मनुष्य के शरीर में और स्त्री का पुरुष के और पुरुष का स्त्री के शरीर में जाता आता है वा नहीं?
(उत्तर) हां! जाता आता है। क्योंकि जब पाप बढ़ जाता पुण्य न्यून होता है तब मनुष्य का जीव पश्वादि नीच शरीर और जब धर्म अधिक तथा अधर्म न्यून होता है तब देव अर्थात् विद्वानों का शरीर मिलता और जब पुण्य पाप बराबर होता है तब साधारण मनुष्य जन्म होता है। इस में भी पुण्य पाप के उत्तम, मध्यम और निकृष्ट होने से मनुष्यादि में भी उत्तम, मध्यम, निकृष्ट शरीरादि सामग्री वाले होते हैं। और जब अधिक पाप का फल पश्वादि शरीर में भोग लिया है पुनः पाप पुण्य के तुल्य रहने से मनुष्य शरीर में आता है और पुण्य के फल भोग कर फिर भी मध्यस्थ मनुष्य के शरीर में आता है। जब शरीर से निकलता है उसी का नाम ‘मृत्यु’ और शरीर के साथ संयोग होने का नाम ‘जन्म’ है। जब शरीर छोड़ता तब यमालय अर्थात् आकाशस्थ वायु में रहता है क्योंकि ‘यमेन वायुना’ वेद में लिखा है कि यम नाम वायु का है; गरुड़ पुराण का कल्पित यम नहीं। इस का विशेष खण्डन मण्डन ग्यारहवें समुल्लास में लिखेंगे। पश्चात् धर्मराज अर्थात् परमेश्वर उस जीव के पाप पुण्यानुसार जन्म देता है। वह वायु, अन्न, जल अथवा शरीर के छिद्र द्वारा दूसरे के शरीर में ईश्वर की प्रेरणा से प्रविष्ट होता है। जो प्रविष्ट होकर क्रमशः वीर्य्य में जा गर्भ में स्थित हो, शरीर धारण कर, बाहर आता है। जो स्त्री के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो स्त्री और पुरुष के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो पुरुष के शरीर में प्रवेश करता है। और नपुंसक गर्भ की स्थिति-समय स्त्री पुरुष के शरीर में सम्बन्ध करके रज वीर्य के बराबर होने से होता है। इसी प्रकार नाना प्रकार के जन्म मरण में तब तक जीव पड़ा रहता है कि जब तक उत्तम कर्मोपासना ज्ञान को करके मुक्ति को नहीं पाता। क्योंकि उत्तम कर्मादि करने से मनुष्यों में उत्तम जन्म और मुक्ति में महाकल्प पर्यन्त जन्म मरण दुःखों से रहित होकर आनन्द में रहता है।
(प्रश्न) मुक्ति एक जन्म में होती है वा अनेकों में ?
(उत्तर) अनेक जन्मों में। क्योंकि-
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराऽवरे।।१।। -मुण्डक।।
जब इस जीव के हृदय की अविद्या अज्ञानरूपी गांठ कट जाती, सब संशय छिन्न होते और दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं तभी उस परमात्मा जो कि अपने आत्मा के भीतर और बाहर व्याप रहा है; उस में निवास करता है। (प्रश्न) मुक्ति में परमेश्वर में जीव मिल जाता है वा पृथक् रहता है ? (उत्तर) पृथक् रहता है। क्योंकि जो मिल जाय तो मुक्ति का सुख कौन भोगे और मुक्ति के जितने साधन हैं वे सब निष्फल हो जावें। वह मुक्ति तो नहीं किन्तु जीव का प्रलय जानना चाहिये। जब जीव परमेश्वर की आज्ञापालन, उत्तम कर्म, सत्संग, योगाभ्यास पूर्वोक्त सब साधन करता है वही मुक्ति को पाता है।
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्।
सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति।। -तैत्तिरीय।।
जो जीवात्मा अपनी बुद्धि और आत्मा में स्थित सत्य ज्ञान और अनन्त आनन्दस्वरूप परमात्मा को जानता है वह उस व्यापकरूप ब्रह्म में स्थित होके उस ‘विपश्चित्’ अनन्तविद्यायुक्त ब्रह्म के साथ कामों को प्राप्त होता है। अर्थात् जिस-जिस आनन्द की कामना करता है उस-उस आनन्द को प्राप्त होता है। यही मुक्ति कहाती है।
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The lower body of a person's life is less and when religion is more and less unrighteous, then the body of the deity means scholars, and when virtuous sin is equal then an ordinary human being is born. In this too, due to the virtue, medium and inferiority of virtuous sin, in human beings too, there are good, medium, inferior body materials. And when the fruit of more sin has been consumed in the pashwadi body, again sin comes into the human body by virtue of virtue and yet after consuming the fruits of virtue, the mediator comes in the human body.
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