षष्ठ समुल्लास खण्ड-4
हिरण्यभूमिसम्प्राप्त्या पार्थिवो न तथैधते।
यथा मित्रं ध्रुवं लब्ध्वा कृशमप्यायतिक्षमम्।।१।।
धर्मज्ञं च कृतज्ञं च तुष्टप्रकृतिमेव च।
अनुरक्तं स्थिरारम्भं लघुमित्रं प्रशस्यते।।२।।
प्राज्ञं कुलीनं शूरं च दक्षं दातारमेव च।
कृतज्ञं धृतिमन्तञ्च कष्टमाहुररिं बुधाः।।३।।
आर्य्यता पुरुषज्ञानं शौर्य्यं करुणवेदिता।
स्थौललक्ष्यं च सततमुदासीनगुणोदयः।।४।। मनु०।।
मित्र का लक्षण-यह है-राजा सुवर्ण और भूमि की प्राप्ति से वैसा नहीं बढ़ता कि जैसे निश्चल प्रेमयुक्त भविष्यत् की बातों को सोचने और कार्य सिद्ध करने वाले समर्थ मित्र अथवा दुर्बल मित्र को भी प्राप्त होके बढ़ता है।।१।।
धर्म को जानने और कृतज्ञ अर्थात् किये हुए उपकार को सदा मानने वाले प्रसन्नस्वभाव अनुरागी स्थिरारम्भी लघु छोटे भी मित्र को प्राप्त होकर प्रशंसित होता है।।२।।
सदा इस बात को दृढ़ रक्खे कि कभी बुद्धिमान्, कुलीन, शूरवीर, चतुर, दाता, किये हुए को जाननेहारे और धैर्यवान् पुरुष को शत्रु न बनावे क्योंकि जो ऐसे को शत्रु बनावेगा वह दुःख पावेगा।।३।।
उदासीन का लक्षण-जिस में प्रशंसित गुणयुक्त अच्छे बुरे मनुष्यों का ज्ञान, शूरवीरता करुणा भी, स्थूल लक्ष्य अर्थात् ऊपर-ऊपर की बातों को निरन्तर सुनाया करे वह उदासीन कहाता है।।४।।
एवं सर्वमिदं राजा सह सम्मन्त्र्य मन्त्रिभिः।
व्यायाम्याप्लुत्य मध्याह्ने भोक्तुमन्तःपुरं विशेत्।।१।।
पूर्वोक्त प्रातःकाल समय उठ शौचादि सन्ध्योपासन अग्निहोत्र कर वा करा सब मन्त्रियों से विचार कर सभा में जा सब भृत्य और सेनाध्यक्षों के साथ मिल, उन को हर्षित कर, नाना प्रकार की व्यूहशिक्षा अर्थात् कवायद कर करा, सब घोड़े, हाथी, गाय आदि स्थान शस्त्र और अस्त्र का कोश तथा वैद्यालय, धन के कोषों को देख सब पर दृष्टि नित्यप्रति देकर जो कुछ उनमें खोट हों उन को निकाल, व्यायामशाला में जा, व्यायाम करके भोजन के लिये ‘अन्तःपुर’ अर्थात् पत्नी आदि के निवासस्थान में प्रवेश करे और भोजन सुपरीक्षित, बुद्धिबल पराक्रमवर्द्धक, रोगविनाशक, अनेक प्रकार के अन्न व्यञ्जन पान आदि सुगन्धित मिष्टादि अनेक रसयुक्त उत्तम करे कि जिस से सदा सुखी रहै, इस प्रकार सब राज्य के कार्यों की उन्नति किया करे।।१।।
प्रजा से कर लेने का प्रकार-
पञ्चाशद्भाग आदेयो राज्ञा पशुहिरण्ययोः।
धान्यानामष्टमो भागः षष्ठो द्वादश एव वा।। मनु०।।
जो व्यापार करने वाले वा शिल्पी को सुवर्ण चांदी का जितना लाभ हो, उस में से पचासवां भाग, चावल आदि अन्नों में छठा, आठवां वा बारहवां भाग लिया करे, और जो धन लेवे तो भी उस प्रकार लेवे कि जिस से किसान आदि खाने पीने
राजा भवत्यनेनास्तु मुच्यन्ते च सभासदः।
एनो गच्छति कर्त्तारं निन्दार्हो यत्र निन्द्यते।।१४।। मनु०।।
सभा राजा और राजपुरुष सब लोग सदाचार और शास्त्रव्यवहार हेतुओं से निम्नलिखित अठारह विवादास्पद मार्गों में विवादयुक्त कर्मों का निर्णय प्रतिदिन किया करें और जो-जो नियम शास्त्रेक्त न पावें और उन के होने की आवश्यकता जानें तो उत्तमोत्तम नियम बांवमें कि जिससे राजा और प्रजा की उन्नति हो।।१।।
अठारह मार्ग ये हैं-उन में से
१- (ऋणादान) किसी से ऋण लेने देने का विवाद।
२- (निक्षेप) धरावट अर्थात् किसी ने किसी के पास पदार्थ धरा हो और मांगे पर न देना। ३-(अस्वामिविक्रय) दूसरे के पदार्थ को दूसरा बेच लेवे।
४- (सम्भूय च समुत्थानम्) मिल मिला के किसी पर अत्याचार करना।
५- (दत्तस्यानपकर्म च ) दिये हुए पदार्थ का न देना।।२।।
६- (वेतनस्यैव चादानम्) वेतन अर्थात् किसी की ‘नौकरी’ में से ले लेना वा कम देना अथवा न देना।
७- (प्रतिज्ञा) प्रतिज्ञा से विरुद्ध वर्त्तना।
८- (क्रय-विक्रयानुशय) अर्थात् लेन देन में झगड़ा होना।
९- पशु के स्वामी और पालने वाले का झगड़ा।।३।।
१०- सीमा का विवाद।
११- किसी को कठोर दण्ड देना।
१२- कठोर वाणी का बोलना।
१३- चोरी डाका मारना।
१४- किसी काम को बलात्कार से करना।
१५- किसी की स्त्री वा पुरुष का व्यभिचार होना।।४।।
१६- स्त्री और पुरुष के धर्म में व्यतिक्रम होना।
१७- विभाग अर्थात् दायभाग में वाद उठना।
१८- द्यूत अर्थात् जड़ पदार्थ और समाह्वय अर्थात् चेतन को दाव में धर के जुआ खेलना। ये अठारह प्रकार के परस्पर विरुद्ध व्यवहार के स्थान हैं।।५।।
इन व्यवहारों में बहुत से विवाद करने वाले पुरुषों के न्याय को सनातनधर्म के आश्रय करके किया करे अर्थात् किसी का पक्षपात कभी न करे।।६।।
जिस सभा में अधर्म से घायल होकर धर्म उपस्थित होता है जो उसका शल्य अर्थात् तीरवत् धर्म के कलंक को निकालना और अधर्म का छेदन करते अर्थात् धर्मी को मान अधर्मी को दण्ड नहीं मिलता उस सभा में जितने सभासद् हैं वे सब घायल के समान समझे जाते हैं।।७।।
धार्मिक मनुष्य को योग्य है कि सभा में कभी प्रवेश न करे और जो प्रवेश किया हो तो सत्य ही बोले। जो कोई सभा में अन्याय होते हुए को देखकर मौन रहे अथवा सत्य न्याय के विरुद्ध बोले वह महापापी होता है।।८।।
जिस सभा में अधर्म से धर्म, असत्य से सत्य सब सभासदों के देखते हुए मारा जाता है उस सभा में सब मृतक के समान हैं जानो उन में कोई भी नहीं जीता।।९।।
मारा हुआ धर्म मारने वाले का नाश और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक की रक्षा करता है इसलिये धर्म का हनन कभी न करना इस डर से कि मारा हुआ धर्म कभी हम को न मार डाले।।१०।।
जो सब ऐश्वर्यों के देने और सुखों की वर्षा करने वाला धर्म है उस का लोप करता है उसी को विद्वान् लोग वृषल अर्थात् शूद्र और नीच जानते हैं। इसलिये किसी मनुष्य को धर्म का लोप करना उचित नहीं।।११।।
इस संसार में एक धर्म ही सुहृद् है जो मृत्यु के पश्चात् भी साथ चलता है और सब पदार्थ वा संगी शरीर के नाश के साथ ही नाश को प्राप्त होते हैं अर्थात् सब का संग छूट जाता है परन्तु धर्म का संग कभी नहीं छूटता।।१२।।
जब राजसभा में पक्षपात से अन्याय किया जाता है वहां अधर्म के चार विभाग हो जाते हैं उनमें एक अधर्म के कर्त्ता, दूसरा साक्षी, तीसरा सभासदों और चौथा पाद अधर्मी सभा के सभापति राजा को प्राप्त होता है।।१३।।
जिस सभा में निन्दा के योग्य की निन्दा, स्तुति के योग्य की स्तुति, दण्ड के योग्य को दण्ड और मान्य के योग्य को मान्य होता है वहां राजा और सभासद् पाप से रहित और पवित्र हो जाते हैं पाप के कर्त्ता ही को पाप प्राप्त होता है।।१४।।
अब साक्षी कैसे करने चाहिये-
आप्ताः सर्वेषु वर्णेषु कार्य्याः कार्येषु साक्षिणः।
सर्वधर्मविदोऽलुब्धा विपरीतांस्तु वर्जयेत्।।१।।
स्त्रीणां साक्ष्यं स्त्रियः कुर्युर्द्विजानां सदृशा द्विजाः।
शूद्राश्च सन्तः शूद्राणामन्त्यानामन्त्ययोनयः।।२।।
साहसेषु च सर्वेषु स्तेयसङ्ग्रहणेषु च।
वाग्दण्डयोश्च पारुष्ये न परीक्षेत साक्षिणः।।३।।
बहुत्वं परिगृह्णीयात् साक्षिद्वैधे नराधिपः।
समेषु तु गुणोत्कृष्टान् गुणिद्वैधे द्विजोत्तमान्।।४।।
समक्षदर्शनात्साक्ष्यं श्रवणाच्चैव सिध्यति।
तत्र सत्यं ब्रुवन्साक्षी धर्मार्थाभ्यां न हीयते।।५।।
साक्षी दृष्टश्रुतादन्यद्विब्रुवन्नार्य्यसंसदि ।
अवाङ्नरकमभ्येति प्रेत्य स्वर्गाच्च हीयते।।६।।
स्वभावेनैव यद् ब्रूयुस्तद् ग्राह्यं व्यावहारिकम्।
अतो यदन्यद्विब्रूयुर्धर्मार्थं तदपार्थकम्।।७।।
सभान्तःसाक्षिणः प्राप्तान् अर्थिप्रत्यिर्थसन्निधौ।
प्राड्विवाकोऽनुयुञ्जीत विधिनाऽनेन सान्त्वयन्।।८।।
यद् द्वयोरनयोर्वेत्थ कार्येऽस्मिश्चेष्टितं मिथः।
तद् ब्रूत सर्वं सत्येन युष्माकं ह्यत्र साक्षिता।।९।।
सत्यं साक्ष्ये ब्रुवन्साक्षी लोकानाप्नोति पुष्कलान्।
इह चानुत्तमां कीर्तिं वागेषा ब्रह्मपूजिता।।१०।।
सत्येन पूयते साक्षी धर्मः सत्येन वर्द्धते।
तस्मात्सत्यं हि वक्तव्यं सर्ववर्णेषु साक्षिभिः।।११।।
आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी गतिरात्मा तथात्मनः।
मावमंस्थाः स्वमात्मानं नृणां साक्षिणमुत्तमम्।।१२।।
यस्य विद्वान् हि वदतः क्षेत्रज्ञो नाभिशंकते।
तस्मान्न देवाः श्रेयांसं लोकेऽन्यं पुरुषं विदुः।।१३।।
एकोऽहमस्मीत्यात्मानं यत्त्वं कल्याणं मन्यसे।
नित्यं स्थितस्ते हृद्येषः पुण्यपापेक्षिता मुनिः।।१४।। मनु०।।
सब वर्णों में धार्मिक, विद्वान्, निष्कपटी, सब प्रकार धर्म को जानने वाले, लोभरहित, सत्यवादियों को न्यायव्यवस्था में साक्षी करे इन से विपरीतों को कभी न करे।।१।।
स्त्रियों की साक्षी स्त्री, द्विजों के द्विज, शूद्रों के शूद्र और अन्त्यजों के अन्त्यज साक्षी हों।।२।।
जितने बलात्कार काम, चोरी, व्यभिचार, कठोर वचन, दण्डनिपातन रूप अपराध हैं उन में साक्षी की परीक्षा न करे और अत्यावश्यक भी न समझे क्योंकि ये काम सब गुप्त होते हैं।।३।।
दोनों ओर के साक्षियों में से बहुपक्षानुसार, तुल्य साक्षियों में उत्तम गुणी पुरुष की साक्षी के अनुकूल और दोनों के साक्षी उत्तम गुणी और तुल्य हों तो द्विजोत्तम अर्थात् ऋषि महर्षि और यतियों की साक्षी के अनुसार न्याय करे।।४।।
दो प्रकार से साक्षी होना सिद्ध होता है एक साक्षात् देखने और दूसरा सुनने से; जब सभा में पूछें तब जो साक्षी सत्य बोलें वे धर्महीन और दण्ड के योग्य न होवें और जो साक्षी मिथ्या बोलें वे यथायोग्य दण्डनीय हों।।५।।
जो राजसभा वा किसी उत्तम पुरुषों की सभा में साक्षी देखने और सुनने से विरुद्ध बोले तो वह (अवाङ्नरक) अर्थात् जिह्वा के छेदन से दुःखरूप नरक को वर्त्तमान समय में प्राप्त होवे और मरे पश्चात् सुख से हीन हो जाय।।६।।
साक्षी के उस वचन को मानना कि जो स्वभाव ही से व्यवहार सम्बन्धी बोले और सिखाये हुए इस से भिन्न जो-जो वचन बोले उस-उस को न्यायाधीश व्यर्थ समझें।।७।।
जब अर्थी (वादी) और प्रत्यर्थी (प्रतिवादी) के सामने सभा के समीप प्राप्त हुए साक्षियों को शान्तिपूवर्क न्यायाधीश और प्राड्विवाक अर्थात् वकील वा वैरिस्टर इस प्रकार से पूछें।।८।।
हे साक्षि लोगो ! इस कार्य्य में इन दोनों के परस्पर कर्मों में जो तुम जानते हो उस को सत्य के साथ बोलो-तुम्हारी इस कार्य में साक्षी है।।९।।
जो साक्षी सत्य बोलता है वह जन्मान्तर में उत्तम जन्म और उत्तम लोकान्तरों में जन्म को प्राप्त होके सुख भोगता है। इस जन्म वा परजन्म में उत्तम कीर्त्ति को प्राप्त होता है, क्योंकि जो यह वाणी है वही वेदों में सत्कार और तिरस्कार का कारण लिखी है। जो सत्य बोलता है वह प्रतिष्ठित और मिथ्यावादी निन्दित होता है।।१०।।
सत्य बोलने से साक्षी पवित्र होता और सत्य ही बोलने से धर्म बढ़ता है, इस से सब वर्णों में साक्षियों को सत्य ही बोलना योग्य है।।११।।
आत्मा का साक्षी आत्मा और आत्मा की गति आत्मा है इसको जान के हे पुरुष ! तू सब मनुष्यों का उत्तम साक्षी अपने आत्मा का अपमान मत कर अर्थात् सत्यभाषण जो कि तेरे आत्मा मन वाणी में है वह सत्य और जो इस से विपरीत है वह मिथ्याभाषण है।।१२।।
जिस बोलते हुए पुरुष का विद्वान् क्षेत्रज्ञ अर्थात् शरीर का जानने हारा आत्मा भीतर शंका को प्राप्त नहीं होता उस से भिन्न विद्वान् लोग किसी को उत्तम पुरुष नहीं जानते।।१३।।
हे कल्याण की इच्छा करनेहारे पुरुष ! जो तू ‘मैं अकेला हूं’ ऐसा अपने आत्मा में जानकर मिथ्या बोलता है सो ठीक नहीं है किन्तु जो दूसरा तेरे हृदय में अन्तर्यामीरूप से परमेश्वर पुण्य पाप को देखने वाला मुनि स्थित है उस परमात्मा से डरकर सदा सत्य बोला कर।।१४।।
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Always keep a firm resolve that the wise, aristocratic, valiant, clever, giver, knowing and the patient should not make an enemy, because whoever makes such an enemy will find sorrow. Symptom of indifferent - in which the knowledge of good and bad people with acclaimed virtues, valor, compassion also, the gross goal, that is, to speak the above things continuously, is called indifferent.
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