त्रयोदश समुल्लास खण्ड-1
अनुभूमिका (३)
जो यह बाइबल का मत है कि वह केवल ईसाइयों का है सो नहीं किन्तु इससे यहूदी आदि भी गृहीत होते हैं। जो यहां तेरहवें समुल्लास में ईसाई मत के विषय में लिखा है इसका यही अभिप्राय है कि आजकल बाइबल के मत में ईसाई मुख्य हो रहे हैं और यहूदी आदि गौण हैं। मुख्य के ग्रहण से गौण का ग्रहण हो जाता है, इससे यहूदियों का भी ग्रहण समझ लीजिये। इनका जो विषय यहां लिखा है सो केवल बाइबल में से कि जिसको ईसाई और यहूदी आदि सब मानते हैं और इसी पुस्तक को अपने धर्म का मूल कारण समझते हैं। इस पुस्तक के भाषान्तर बहुत से हुए हैं जो कि इनके मत में बड़े-बडे़ पादरी हैं उन्हीं ने किये हैं। उनमें से देवनागरी व संस्कृत भाषान्तर देख कर मुझको बाइबल में बहुत सी शंका हुई हैं। उनमें से कुछ थोड़ी सी इस १३ तेरहवें समुल्लास में सब के विचारार्थ लिखी हैं। यह लेख केवल सत्य की वृद्धि औेर असत्य के ह्रास होने के लिये है न कि किसी को दुःख देने वा हानि करने अथवा मिथ्या दोष लगाने के अर्थ ही। इसका अभिप्राय उत्तर लेख में सब कोई समझ लेंगे कि यह पुस्तक कैसा है और इनका मत भी कैसा है? इस लेख से यही प्रयोजन है कि सब मनुष्यमात्र को देखना, सुनना, लिखना आदि करना सहज होगा और पक्षी, प्रतिपक्षी होके विचार कर ईसाई मत का आन्दोलन सब कोई कर सकेंगे। इससे एक यह प्रयोजन सिद्ध होगा कि मनुष्यों को धर्मविषयक ज्ञान बढ़ कर यथायोग्य सत्याऽसत्य मत और कर्त्तव्याकर्त्तव्य कर्म सम्बन्धी विषय विदित होकर सत्य और कर्त्तव्य कर्म का स्वीकार, असत्य और अकर्त्तव्य कर्म का परित्याग करना सहजता से हो सकेगा। सब मनुष्यों को उचित है कि सब के मतविषयक पुस्तकों को देख समझ कर कुछ सम्मति वा असम्मति देवें वा लिखें; नहीं तो सुना करें। क्योंकि जैसे पढ़ने से पण्डित होता है वैसे सुनने से बहुश्रुत होता है। यदि श्रोता दूसरे को नहीं समझा सके तथापि आप स्वयं तो समझ ही जाता है। जो कोई पक्षपातरूप यानारूढ़ होके देखते हैं उनको न अपने और न पराये गुण, दोष विदित हो सकते हैं। मनुष्य का आत्मा यथायोग्य सत्याऽसत्य के निर्णय करने का सामर्थ्य रखता है। जितना अपना पठित वा श्रुत है उतना निश्चय कर सकता है। यदि एक मत वाले दूसरे मतवाले के विषयों को जानें और अन्य न जानें तो यथावत् संवाद नहीं हो सकता, किन्तु अज्ञानी किसी भ्रमरूप बाड़े में गिर जाते हैं। ऐसा न हो इसलिये इस ग्रन्थ में, प्रचरित सब मतों का विषय थोड़ा-थोड़ा लिखा है। इतने ही से शेष विषयों में अनुमान कर सकता है कि वे सच्चे हैं वा झूठे? जो-जो सर्वमान्य सत्य विषय हैं वे तो सब में एक से हैं। झगड़ा झूठे विषयों में होता है। अथवा एक सच्चा और दूसरा झूठा हो तो भी कुछ थोड़ा सा विवाद चलता है। यदि वादी प्रतिवादी सत्याऽसत्य निश्चय के लिये वाद प्रतिवाद करें तो अवश्य निश्चय हो जाये।
अब मैं इस १३वें समुल्लास में ईसाई मत विषयक थोड़ा सा लिख कर सब के सम्मुख स्थापित करता हूं; विचारिये कि कैसा है।
अलमतिलेखेन विचक्षणवरेषु।
अथ त्रयोदशसमुल्लासारम्भः
अथ कृश्चीनमतविषयं व्याख्यास्यामः
अब इसके आगे ईसाइयों के मत विषय में लिखते हैं जिससे सब को विदित हो जाय कि इनका मत निर्दोष और इनकी बाइबल पुस्तक ईश्वरकृत है वा नहीं? प्रथम बाइबल के तौरेत का विषय लिखा जाता है-
१-आरम्भ में ईश्वर ने आकाश और पृथिवी को सृजा।। और पृथिवी बेडौल और सूनी थी और गहिराव पर अन्धियारा था और ईश्वर का आत्मा जल के ऊपर डोलता था।। -तौरेत उत्पत्ति पुस्तक पर्व १। आय० १।२ ।।
(समीक्षक) आरम्भ किसको कहते हो?
(ईसाई) सृष्टि के प्रथमोत्पत्ति को।
(समीक्षक) क्या यही सृष्टि प्रथम हुई; इसके पूर्व कभी नहीं हुई थी?
(ईसाई) हम नहीं जानते हुई थी वा नहीं; ईश्वर जाने।
(समीक्षक) जब नहीं जानते तो इस पुस्तक पर विश्वास क्यों किया कि जिससे सन्देह का निवारण नहीं हो सकता और इसी के भरोसे लोगों को उपदेश कर इस सन्देह के भरे हुए मत में क्यों फंसाते हो? और निःसन्देह सर्वशंकानिवारक वेदमत को स्वीकार क्यों नहीं करते? जब तुम ईश्वर की सृष्टि का हाल नहीं जानते तो ईश्वर को कैसे जानते होगे? आकाश किसको मानते हो?
(ईसाई) पोल और ऊपर को।
(समीक्षक) पोल की उत्पत्ति किस प्रकार हुई क्योंकि यह विभु पदार्थ और अति सूक्ष्म है और ऊपर नीचे एक सा है। जब आकाश नहीं सृजा था तब पोल और अवकाश था वा नहीं? जो नहीं था तो ईश्वर, जगत् का कारण और जीव कहां रहते थे? विना अवकाश के कोई पदार्थ स्थित नहीं हो सकता इसलिये तुम्हारी बाइबल का कथन युक्त नहीं। ईश्वर बेडौल, उसका ज्ञान कर्म बेडौल होता है वा सब डौल वाला?
(ईसाई) डौल वाला होता है।
(समीक्षक) तो यहां ईश्वर की बनाई पृथिवी बेडौल थी ऐसा क्यों लिखा?
(ईसाई) बेडौल का अर्थ यह है कि ऊंची नीची थी; बराबर नहीं थी।
(समीक्षक) फिर बराबर किसने की? और क्या अब भी ऊंची नीची नहीं है? इसलिये ईश्वर का काम बेडौल नहीं हो सकता क्योंकि वह सर्वज्ञ है, उसके काम में न भूल, न चूक कभी हो सकती है। और बाइबल में ईश्वर की सृष्टि बेडौल लिखी इसलिये यह पुस्तक ईश्वरकृत नहीं हो सकता। प्रथम ईश्वर का आत्मा क्या पदार्थ है?
(ईसाई) चेतन।
(समीक्षक) वह साकार है वा निराकार तथा व्यापक है वा एकदेशी।
(ईसाई) निराकार, चेतन और व्यापक है परन्तु किसी एक सनाई पर्वत, चौथा आसमान आदि स्थानों में विशेष करके रहता है।
(समीक्षक) जो निराकार है तो उसको किसने देखा? और व्यापक का जल पर डोलना कभी नहीं हो सकता। भला! जब ईश्वर का आत्मा जल पर डोलता था तब ईश्वर कहां था? इससे यही सिद्ध होता है कि ईश्वर का शरीर कहीं अन्यत्र स्थित होगा अथवा अपने कुछ आत्मा के एक टुकड़े को जल पर डुलाया होगा। जो ऐसा है तो विभु और सर्वज्ञ कभी नहीं हो सकता। जो विभु नहीं तो जगत् की रचना, धारण, पालन और जीवों के कर्मों की व्यवस्था वा प्रलय कभी नहीं कर सकता क्योंकि जिस पदार्थ का स्वरूप एकदेशी है उसके गुण, कर्म, स्वभाव भी एकदेशी होते हैं, जो ऐसा है तो वह ईश्वर नहीं हो सकता क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक, अनन्त गुण, कर्म, स्वभावयुक्त सच्चिदानन्दस्वरूप, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव, अनादि, अनन्तादि लक्षणयुक्त वेदों में कहा है। उसी को मानो तभी तुम्हारा कल्याण होगा, अन्यथा नहीं।।१।।
२-और ईश्वर ने कहा कि उजियाला होवे और उजियाला हो गया।। और ईश्वर ने उजियाले को देखा कि अच्छा है।। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० १। आ० ३। ४ ।।
(समीक्षक) क्या ईश्वर की बात जड़रूप उजियाले ने सुन ली? जो सुनी हो तो इस समय भी सूर्य्य और दीप अग्नि का प्रकाश हमारी तुम्हारी बात क्यों नहीं सुनता? प्रकाश जड़ होता है वह कभी किसी की बात नहीं सुन सकता। क्या जब ईश्वर ने उजियाले को देखा तभी जाना कि उजियाला अच्छा है? पहले नहीं जानता था? जो जानता होता तो देख कर अच्छा क्यों कहता? जो नहीं जानता था तो वह ईश्वर ही नहीं। इसीलिए तुम्हारी बाइबल ईश्वरोक्त और उसमें कहा हुआ ईश्वर सर्वज्ञ नहीं है।।२।।
३-और ईश्वर ने कहा कि पानियों के मध्य में आकाश होवे और पानियों को पानियों से विभाग करे।। तब ईश्वर ने आकाश को बनाया और आकाश के नीचे के पानियों को आकाश के ऊपर के पानियों से विभाग किया और ऐसा हो गया।। और ईश्वर ने आकाश को स्वर्ग कहा और सांझ और बिहान दूसरा दिन हुआ।। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० १। आ० ६। ७। ८।।
(समीक्षक) क्या आकाश और जल ने भी ईश्वर की बात सुन ली? और जो जल के बीच में आकाश न होता तो जल रहता ही कहां? प्रथम आयत में आकाश को सृजा था पुनः आकाश का बनाना व्यर्थ हुआ। जो आकाश को स्वर्ग कहा तो वह सर्वव्यापक है इसलिये सर्वत्र स्वर्ग हुआ फिर ऊपर को स्वर्ग है यह कहना व्यर्थ है। जब सूर्य्य उत्पन्न ही नहीं हुआ था तो पुनः दिन और रात कहां से हो गई? ऐसी ही असम्भव बातें आगे की आयतों में भरी हैं।।३।।
४-तब ईश्वर ने कहा कि हम आदम को अपने स्वरूप में अपने समान बनावें।। तब ईश्वर ने आदम को अपने स्वरूप में उत्पन्न किया, उसने उसे ईश्वर के स्वरूप में उत्पन्न किया, उसने उन्हें नर और नारी बनाया।। और ईश्वर ने उन्हें आशीष दिया।। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० १। आ० २६। २७। २८ ।।
(समीक्षक) यदि आदम को ईश्वर ने अपने स्वरूप में बनाया तो ईश्वर का स्वरूप पवित्र ज्ञानस्वरूप, आनन्दमय आदि लक्षणयुक्त है उसके सदृश आदम क्यों नहीं हुआ? जो नहीं हुआ तो उसके स्वरूप में नहीं बना और आदम को उत्पन्न किया तो ईश्वर ने अपने स्वरूप ही की उत्पत्ति वाला किया पुनः वह अनित्य क्यों नहीं? और आदम को उत्पन्न कहां से किया?
(ईसाई) मट्टी से बनाया।
(समीक्षक) मट्टी कहां से बनाई?
(ईसाई) अपनी कुदरत अर्थात् सामर्थ्य से।
(समीक्षक) ईश्वर का सामर्थ्य अनादि है वा नवीन?
(ईसाई) अनादि है।
(समीक्षक) जब अनादि है तो जगत् का कारण सनातन हुआ। फिर अभाव से भाव क्यों मानते हो?
(ईसाई) सृष्टि के पूर्व ईश्वर के विना कोई वस्तु नहीं था।
(समीक्षक) जो नहीं था तो यह जगत् कहां से बना? और ईश्वर का सामर्थ्य द्रव्य है वा गुण? जो द्रव्य है तो ईश्वर से भिन्न दूसरा पदार्थ था और जो गुण है तो गुण से द्रव्य कभी नहीं बन सकता जैसे रूप से अग्नि और रस से जल नहीं बन सकता। और जो ईश्वर से जगत् बना होता तो ईश्वर के सदृश गुण, कर्म, स्वभाव वाला होता। उसके गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश न होने से यही निश्चय है कि ईश्वर से नहीं बना किन्तु जगत् के कारण अर्थात् परमाणु आदि नाम वाले जड़ से बना है। जैसी कि जगत् की उत्पत्ति वेदादि शास्त्रें में लिखी है वैसी ही मान लो जिससे ईश्वर जगत् को बनाता है। जो आदम के भीतर का स्वरूप जीव और बाहर का मनुष्य के सदृश है तो वैसा ईश्वर का स्वरूप क्यों नहीं? क्योंकि जब आदम ईश्वर के सदृश बना तो ईश्वर आदम के सदृश अवश्य होना चाहिये।।४।।
५-तब परमेश्वर ईश्वर ने भूमि की धूल से आदम को बनाया और उसके नथुनों में जीवन का श्वास फूंका और आदम जीवता प्राण हुआ।। और परमेश्वर ईश्वर ने अदन में पूर्व की ओर एक बारी लगाई और उस आदम को जिसे उसने बनाया था उसमें रक्खा।। और उस बारी के मध्य में जीवन का पेड़ और भले बुरे के ज्ञान का पेड़ भूमि से उगाया।। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० २। आ० ७। ८। ९ ।।
(समीक्षक) जब ईश्वर ने अदन में बाड़ी बनाकर उसमें आदम को रक्खा तब ईश्वर नहीं जानता था कि इसको पुनः यहाँ से निकालना पड़ेगा? और जब ईश्वर ने आदम को धूली से बनाया तो ईश्वर का स्वरूप नहीं हुआ, और जो है तो ईश्वर भी धूली से बना होगा? जब उसके नथुनों में ईश्वर ने श्वास फूंका तो वह श्वास ईश्वर का स्वरूप था वा भिन्न? जो भिन्न था तो आदम ईश्वर के स्वरूप में नहीं बना। जो एक है तो आदम और ईश्वर एक से हुए। और जो एक से हैं तो आदम के सदृश जन्म, मरण, वृद्धि, क्षय, क्षुधा, तृषा आदि दोष ईश्वर में आये, फिर वह ईश्वर क्योंकर हो सकता है? इसलिए यह तौरेत की बात ठीक नहीं विदित होती और यह पुस्तक भी ईश्वरकृत नहीं है।।५।।
६-और परमेश्वर ईश्वर ने आदम को बड़ी नींद में डाला और वह सो गया। तब उसने उसकी पसलियों में से एक पसली निकाली और संति मांस भर दिया।। और परमेश्वर ईश्वर ने आदम की उस पसली से एक नारी बनाई और उसे आदम के पास लाया। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० २।। आ० २१। २२ ।।
(समीक्षक) जो ईश्वर ने आदम को धूली से बनाया तो उसकी स्त्री को धूली से क्यों नहीं बनाया? और जो नारी को हड्डी से बनाया तो आदम को हड्डी से क्यों नहीं बनाया? और जैसे नर से निकलने से नारी नाम हुआ तो नारी से नर नाम भी होना चाहिए। और उनमें परस्पर प्रेम भी रहै, जैसे स्त्री के साथ पुरुष प्रेम करै वैसे पुरुष के साथ स्त्री भी प्रेम करे। देखो विद्वान् लोगो! ईश्वर की कैसी पदार्थविद्या अर्थात् ‘फिलासफी’ चलकती है! जो आदम की एक पसली निकाल कर नारी बनाई तो सब मनुष्यों की एक पसली कम क्यों नहीं होती? और स्त्री के शरीर में एक पसली होनी चाहिये क्योंकि वह एक पसली से बनी है। क्या जिस सामग्री से सब जगत् बनाया उस सामग्री से स्त्री का शरीर नहीं बन सकता था? इसलिए यह बाइबल का सृष्टिक्रम सृष्टिविद्या से विरुद्ध है।।६।।
७-अब सर्प्प भूमि के हर एक पशु से जिसे परमेश्वर ईश्वर ने बनाया था; धूर्त था। और उसने स्त्री से कहा, क्या निश्चय ईश्वर ने कहा है कि तुम इस बारी के हर एक पेड़ से फल न खाना।। और स्त्री ने सर्प्प से कहा कि हम तो इस बारी के पेड़ों का फल खाते हैं।। परन्तु उस पेड़ का फल जो बारी के बीच में है ईश्वर ने कहा है कि तुम उससे न खाना और न छूना; न हो कि मर जाओ।। तब सर्प्प ने स्त्री से कहा कि तुम निश्चय न मरोगे।। क्योंकि ईश्वर जानता है कि जिस दिन तुम उस्से खाओगे तुम्हारी आँखें खुल जायेंगी और तुम भले और बुरे की पहिचान में ईश्वर के समान हो जाओगे।। और जब स्त्री ने देखा वह पेड़ खाने में सुस्वाद और दृष्टि में सुन्दर और बुद्धि देने के योग्य है तो उसके फल में से लिया और खाया और अपने पति को भी दिया और उसने खाया।। तब उन दोनों की आखें खुल गईं और वे जान गये कि हम नंगे हैं सो उन्होंने गूलर के पत्तों को मिला के सिया और अपने लिये ओढ़ना बनाया। तब परमेश्वर ईश्वर ने सर्प्प से कहा कि जो तू ने यह किया है इस कारण तू सारे ढोर और हर एक वन के पशु से अधिक स्रापित होगा। तू अपने पेट के बल चलेगा और अपने जीवन भर धूल खाया करेगा।। और मैं तुझ में और स्त्री में और तेरे वंश और उसके वंश में वैर डालूंगा।। वह तेरे सिर को कुचलेगा और तू उसकी एड़ी को काटेगा।। और उसने स्त्री को कहा कि मैं तेरी पीड़ा और गर्भ- धारण को बहुत बढ़ाऊंगा। तू पीड़ा से बालक जनेगी और तेरी इच्छा तेरे पति पर होगी और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।। और उसने आदम से कहा कि तूने जो अपनी पत्नी का शब्द माना है और जिस पेड़ का फल मैंने तुझे खाने से वर्जा था तूने खाया है। इस कारण भूमि तेरे लिये स्रापित है। अपने जीवन भर तू उस्से पीड़ा के साथ खायेगा।। और वह कांटे और ऊंटकटारे तेरे लिये उगायेगी और तू खेत का सागपात खायेगा।। -तौरेत उत्पत्ति० पर्व० ३। आ० १। २। ३। ४। ५। ६। ७। १४। १५। १६। १७। १८।।
(समीक्षक) जो ईसाइयों का ईश्वर सर्वज्ञ होता तो इस धूर्त सर्प्प अर्थात् शैतान को क्यों बनाता? और जो बनाया तो वही ईश्वर अपराध का भागी है क्योंकि जो वह उसको दुष्ट न बनाता तो वह दुष्टता क्यों करता? और वह पूर्व जन्म नहीं मानता तो विना अपराध उसको पापी क्यों बनाया? और सच पूछो तो वह सर्प्प नहीं था किन्तु मनुष्य था। क्योंकि जो मनुष्य न होता तो मनुष्य की भाषा क्योंकर बोल सकता? और जो आप झूठा और दूसरे को झूठ में चलावे उसको शैतान कहना चाहिये सो यहां शैतान सत्यवादी और इससे उसने उस स्त्री को नहीं बहकाया किन्तु सच कहा और ईश्वर ने आदम और हव्वा से झूठ कहा कि इसके खाने से तुम मर जाओगे। जब वह पेड़ ज्ञानदाता और अमर करने वाला था तो उसके फल खाने से क्यों वर्जा? और जो वर्जा तो वह ईश्वर झूठा और बहकाने वाला ठहरा। क्योंकि उस वृक्ष के फल मनुष्यों को ज्ञान और सुखकारक थे; अज्ञान और मृत्युकारक नहीं। जब ईश्वर ने फल खाने से वर्जा तो उस वृक्ष की उत्पत्ति किसलिये की थी? जो अपने लिए की तो क्या आप अज्ञानी और मृत्युधर्मवाला था? और दूसरों के लिये बनाया तो फल खाने में अपराध कुछ भी न हुआ। और आजकल कोई भी वृक्ष ज्ञानकारक और मृत्युनिवारक देखने में नहीं आता। क्या ईश्वर ने उसका बीज भी नष्ट कर दिया? ऐसी बातों से मनुष्य छली कपटी होता है तो ईश्वर वैसा क्यों नहीं हुआ? क्योंकि जो कोई दूसरे से छल कपट करेगा वह छली कपटी क्यों न होगा? और जो इन तीनों को शाप दिया वह विना अपराध से है। पुनः वह ईश्वर अन्यायकारी भी हुआ और यह शाप ईश्वर को होना चाहिये क्योंकि वह झूठ बोला और उनको बहकाया। यह ‘फिलासफी’ देखो! क्या विना पीड़ा के गर्भधारण और बालक का जन्म हो सकता था? और विना श्रम के कोई अपनी जीविका कर सकता है? क्या प्रथम कांटे आदि के वृक्ष न थे? और जब शाक पात खाना सब मनुष्यों को ईश्वर के कहने से उचित हुआ तो जो उत्तर में मांस खाना बाइबल में लिखा वह झूठा क्यों नहीं? और जो वह सच्चा हो तो यह झूठा है। जब आदम का कुछ भी अपराध सिद्ध नहीं होता तो ईसाई लोग सब मनुष्यों को आदम के अपराध से सन्तान होने पर अपराधी क्यों कहते हैं? भला ऐसा पुस्तक और ऐसा ईश्वर कभी बुद्धिमानों के मानने योग्य हो सकता है? ।।७।।
८-और परमेश्वर ईश्वर ने कहा कि देखो! आदम भले बुरे के जानने में हम में से एक की नाईं हुआ और अब ऐसा न होवे कि वह अपना हाथ डाले और जीवन के पेड़ में से भी लेकर खावे और अमर हो जाय।। सो उसने आदम को निकाल दिया और अदन की बारी की पूर्व ओर करोबीम ठहराये और चमकते हुए खड्ग को जो चारों ओर घूमता था; जिसते जीवन के पेड़ के मार्ग की रखवाली करें।। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० ३। आ० २२। २४।।
(समीक्षक) भला! ईश्वर को ऐसी ईर्ष्या और भ्रम क्यों हुआ कि ज्ञान में हमारे तुल्य हुआ? क्या यह बुरी बात हुई? यह शंका ही क्यों पड़ी? क्योंकि ईश्वर के तुल्य कभी कोई नहीं हो सकता। परन्तु इस लेख से यह भी सिद्ध हो सकता है कि वह ईश्वर नहीं था किन्तु मनुष्य विशेष था। बाइबल में जहां कहीं ईश्वर की बात आती है वहां मनुष्य के तुल्य ही लिखी आती है। अब देखो! आदम के ज्ञान की बढ़ती में ईश्वर कितना दुःखी हुआ और फिर अमर वृक्ष के फल खाने में कितनी ईर्ष्या की। और प्रथम जब उसको बारी में रक्खा तब उसको भविष्यत् का ज्ञान नहीं था कि इसको पुनः निकालना पड़ेगा, इसलिये ईसाइयों का ईश्वर सर्वज्ञ नहीं था। और चमकते खड्ग का पहिरा रक्खा यह भी मनुष्य का काम है; ईश्वर का नहीं।।८।।
९-और कितने दिनों के पीछे यों हुआ कि काइन भूमि के फलों में से परमेश्वर के लिये भेंट लाया।। और हाबिल भी अपनी झुंड में से पहिलौठी और मोटी-मोटी भेड़ लाया और परमेश्वर ने हाबिल का और उसकी भेंट का आदर किया।। परन्तु काबिल का और उसकी भेंट का आदर न किया इसलिये काबिल अति कुपित हुआ और अपना मुंह फुलाया।। तब परमेश्वर ने काबिल से कहा कि तू क्यों क्रुद्ध है और तेरा मुंह क्यों फूल गया।। -तौरेत उत्पत्ति पर्व० ४। आ० ३। ४। ५। ६।।
(समीक्षक) यदि ईश्वर मांसाहारी न होता तो भेड़ की भेंट और हाबिल का सत्कार और काइन का तथा उसकी भेंट का तिरस्कार क्यों करता? और ऐसा झगड़ा लगाने और हाबिल के मृत्यु का कारण भी ईश्वर ही हुआ और जैसे आपस में मनुष्य लोग एक दूसरे से बातें करते हैं वैसी ही ईसाइयों के ईश्वर की बातें हैं। बगीचे में आना जाना उसका बनाना भी मनुष्यों का कर्म है। इससे विदित होता है कि यह बाइबल मनुष्यों की बनाई है; ईश्वर की नहीं।।९।।
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Why did God have such jealousy and confusion that we were equated with knowledge? Is this a bad thing? Why did this doubt arise? Because there can never be anyone like God. But this article can also prove that he was not God but man was special. Wherever God comes in the Bible, it is written like a human. Watch now! How sad God was in the growth of Adam's knowledge and then how jealous of eating the fruit of the immortal tree.
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