द्वादश समुल्लास खण्ड-2
जो वाममार्गियों ने मिथ्या कपोलकल्पना करके वेदों के नाम से अपना प्रयोजन सिद्ध करना अर्थात् यथेष्ट मद्यपान, मांस खाने और परस्त्रीगमन करने आदि दुष्ट कामों की प्रवृत्ति होने के अर्थ वेदों को कलंक लगाया। इन्हीं बातों को देख कर चारवाक, बौद्ध तथा जैन लोग वेदों की निन्दा करने लगे । और पृथक् एक वेदविरुद्ध अनीश्वरवादी अर्थात् नास्तिक मत चला लिया। जो चारवाकादि वेदों का मूलार्थ विचारते तो झूठी टीकाओं को देख कर सत्य वेदोक्त मत से क्यों हाथ धो बैठते? क्या करें विचारे ‘विनाशकाले विपरीतबुद्धि ’। जब नष्ट भ्रष्ट होने का समय आता है तब मनुष्य की उलटी बुद्धि हो जाती है। अब जो चारवाकादिकों में भेद है सो लिखते हैं। ये चारवाकादि बहुत सी बातों में एक हैं परन्तु चारवाक देह की उत्पत्ति के साथ जीवोत्पत्ति और उस के नाश के साथ ही जीव का भी नाश मानता है। पुनर्जन्म और परलोक को नहीं मानता। एक प्रत्यक्ष प्रमाण के विना अनुमानादि प्रमाणों को भी नहीं मानता। चारवाक शब्द का अर्थ-जो बोलने में ‘प्रगल्भ’ और विशेषार्थ ‘वैतण्डिक’ होता है। और बौद्ध जैन प्रत्यक्षादि चारों प्रमाण, अनादि जीव, पुनर्जन्म, परलोक और मुक्ति को भी मानते हैं। इतना ही चारवाक से बौद्ध और जैनियों का भेद है परन्तु नास्तिकता, वेद, ईश्वर की निन्दा, परमतद्वेष, छः यतना और जगत् का कर्त्ता कोई नहीं इत्यादि बातों में सब एक ही हैं। यह चारवाक का मत संक्षेप से दर्शा दिया। अब बौद्धमत के विषय में संक्षेप से लिखते हैं-
कार्य्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात् ।
अविनाभावनियमो दर्शनान्तरदर्शनात्।।१।।
कार्य्यकारणभाव अर्थात् कार्य्य के दर्शन से कारण और कारण के दर्शन से कार्य्यादि का साक्षात्कार प्रत्यक्ष से शेष में अनुमान होता है। इसके विना प्राणियों के सम्पूर्ण व्यवहार पूर्ण नहीं हो सकते, इत्यादि लक्षणों से अनुमान को अधिक मानकर चारवाक से भिन्न शाखा बौद्धों की हुई है। बौद्ध चार प्रकार के हैं- एक ‘माध्यमिक’ दूसरा ‘योगाचार’ तीसरा ‘सौत्रन्तिक’ और चौथा ‘वैभाषिक’ ‘बुद्ध्या निर्वर्त्तते स बौद्ध ’ जो बुद्धि से सिद्ध हो अर्थात् जो-जो बात अपनी बुद्धि में आवे उस-उस को माने और जो-जो बुद्धि में न आवे उस-उस को नहीं माने।
इनमें से पहला ‘माध्यमिक’ सर्वशून्य मानता है। अर्थात् जितने पदार्थ हैं वे सब शून्य अर्थात् आदि में नहीं होते; अन्त में नहीं रहते; मध्य में जो प्रतीत होता है वह भी प्रतीत समय में है पश्चात् शून्य हो जाता है। जैसे उत्पत्ति के पूर्व घट नहीं था; प्रध्वंस के पश्चात् नहीं रहता और घटज्ञान समय में भासता पदार्थान्तर में ज्ञान जाने से घटज्ञान नहीं रहता इसलिये शून्य ही एक तत्त्व है। दूसरा ‘योगाचार’ जो बाह्य शून्य मानता है। अर्थात् पदार्थ भीतर ज्ञान में भासते हैं; बाहर नहीं। जैसे घटज्ञान आत्मा में है तभी मनुष्य कहता है कि यह घट है; जो भीतर ज्ञान न हो तो नहीं कह सकता; ऐसा मानता है। तीसरा ‘सौत्रन्तिक’ जो बाहर अर्थ का अनुमान मानता है। क्योंकि बाहर कोई पदार्थ सांगोपांग प्रत्यक्ष नहीं होता किन्तु एकदेश प्रत्यक्ष होने से शेष में अनुमान किया जाता है। इस का ऐसा मत है। चौथा ‘वैभाषिक’ है उसका मत बाहर पदार्थ प्रत्यक्ष होता है; भीतर नहीं। जैसे ‘अयं नीलो घट ’ इस प्रतीति में नीलयुक्त घटाकृति बाहर प्रतीत होती है; यह ऐसा मानता है। यद्यपि इन का आचार्य्य बुद्ध एक है तथापि शिष्यों के बुद्धिभेद से चार प्रकार की शाखा हो गई हैं। जैसे सूर्य्यास्त होने में जार पुरुष परस्त्रीगमन, चोर चौरीकर्म और विद्वान् सत्यभाषणादि श्रेष्ठ कर्म्म करते हैं। समय एक परन्तु अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार भिन्न-भिन्न चेष्टा करते हैं। अब इन पूर्वोक्त चारों में ‘माध्यमिक’ सब को क्षणिक मानता है। अर्थात् क्षण-क्षण में बुद्धि के परिणाम होने से जो पूर्व क्षण में ज्ञात वस्तु था वैसा ही दूसरे क्षण में नहीं रहता इसलिये सब को क्षणिक मानना चाहिये; ऐसे मानता है। दूसरा ‘योगाचार’ जो प्रवृत्ति है सो सब दुःखरूप है क्योंकि प्राप्ति में सन्तुष्ट कोई भी नहीं रहता। एक की प्राप्ति में दूसरे की इच्छा बनी ही रहती है; इस प्रकार मानता है। तीसरा ‘सौत्रन्तिक’ सब पदार्थ अपने-अपने लक्षणों से लक्षित होते हैं जैसे गाय के चिह्नों से गाय और घोड़े के चिह्नों से घोड़ा ज्ञात होता है वैसे लक्षण लक्ष्य में सदा रहते हैं; ऐसा कहता है। चौथा ‘वैभाषिक’ शून्य ही को एक पदार्थ मानता है। प्रथम माध्यमिक सब को शून्य मानता था उसी का पक्ष वैभाषिक का भी है। इत्यादि बौद्धों में बहुत से विवाद पक्ष हैं। इस प्रकार चार प्रकार की भावना मानते हैं।
(उत्तर) जो सब शून्य हो तो शून्य का जानने वाला शून्य नहीं हो सकता और जो सब शून्य होवे तो शून्य को शून्य नहीं जान सके। इसलिए शून्य का ज्ञाता और ज्ञेय दो पदार्थ सिद्ध होते हैं। और जो योगाचार बाह्य शून्यत्व मानता है तो पर्वत इस के भीतर होना चाहिये। जो कहे कि पर्वत भीतर है तो उस के हृदय में पर्वत के समान अवकाश कहां है? इसलिए बाहर पर्वत है और पर्वतज्ञान आत्मा में रहता है। सौत्रन्तिक किसी पदार्थ को प्रत्यक्ष नहीं मानता तो वह आप स्वयम् और उस का वचन भी अनुमेय होना चाहिये; प्रत्यक्ष नहीं। जो प्रत्यक्ष न हो तो ‘अयं घट ’ यह प्रयोग भी न होना चाहिये किन्तु ‘अयं घटैकदेश ’ यह घट का एक देश है और एक देश का नाम घट नहीं किन्तु समुदाय का नाम घट है। ‘यह घट है’ यह प्रत्यक्ष है, अनुमेय नहीं क्योंकि सब अवयवों में अवयवी एक है। उस के प्रत्यक्ष होने से सब घट के अवयव भी प्रत्यक्ष होते हैं अर्थात् सावयव घट प्रत्यक्ष होता है। चौथा ‘वैभाषिक’ बाह्य पदार्थों को प्रत्यक्ष मानता है वह भी ठीक नहीं। क्योंकि जहां ज्ञाता और ज्ञान होता है वहीं प्रत्यक्ष होता है अर्थात् आत्मा में सब का प्रत्यक्ष होता है। यद्यपि प्रत्यक्ष का विषय बाहर होता है; तदाकार ज्ञान आत्मा को होता है। वैसे जो क्षणिक पदार्थ और उस का ज्ञान क्षणिक बाहर होता हो तो ‘प्रत्यभिज्ञा’ अर्थात् मैंने वह बात की थी ऐसा स्मरण न होना चाहिये परन्तु पूर्व दृष्ट, श्रुत का स्मरण होता है इसलिए क्षणिकवाद भी ठीक नहीं। जो सब दुःख ही हो और सुख कुछ भी न हो तो सुख की अपेक्षा के विना दुःख सिद्ध नहीं हो सकता। जैसे रात्रि की अपेक्षा से दिन और दिन की अपेक्षा से रात्रि होती है इसलिये सब दुःख मानना ठीक नहीं। जो स्वलक्षण ही मानें तो नेत्र रूप का लक्षण है और रूप लक्ष्य है जैसे घट का रूप। घट के रूप का लक्षण चक्षु लक्ष्य से भिन्न है और गन्ध पृथिवी से अभिन्न है। इसी प्रकार भिन्नाऽभिन्न लक्ष्य लक्षण मानना चाहिये। शून्य का जो उत्तर पूर्व दिया है वही अर्थात् शून्य का जानने वाला शून्य से भिन्न होता है।
सर्वस्य संसारस्य दुखात्मकत्वं सर्वतीर्थंकरसम्मतम् ।।
जिन को बौद्ध तीर्थंकर मानते हैं उन्हीं को जैन भी मानते हैं इसलिये ये दोनों एक हैं। और पूर्वोक्त भावनाचतुष्टय अर्थात् चार भावनाओं से सकल वासनाओं की निवृत्ति से शून्यरूप निर्वाण अर्थात् मुक्ति मानते हैं। अपने शिष्यों को योग और आचार का उपदेश करते हैं। गुरु के वचन का प्रमाण करना। अनादि बुद्धि में वासना होने से बुद्धि ही अनेकाकार भासती है और चित्तचैत्तात्मक स्कन्ध पांच प्रकार का मानते हैं- रूपविज्ञानवेदनासंज्ञासंस्कारसंज्ञक ।।
उनमें से-(प्रथम) जो इन्द्रियों से रूपादि विषय ग्रहण किया जाता है वह ‘रूपस्कन्वम’ (दूसरा) आलयविज्ञान प्रवृत्ति का जाननारूप व्यवहार को ‘विज्ञान- स्कन्ध’ (तीसरा) रूपस्कन्ध और विज्ञानस्कन्ध से उत्पन्न हुआ सुख दुःख आदि प्रतीति रूप व्यवहार को ‘वेदनास्कन्ध’ (चौथा) गौ आदि संज्ञा का सम्बन्ध नामी के साथ मानने रूप को ‘संज्ञास्कन्वम’ (पांचवां) वेदनास्कन्ध से रागद्वेषादि क्लेश और क्षुधा तृषादि उपक्लेश, मद, प्रमाद, अभिमान, धर्म और अधर्मरूप व्यवहार को ‘संस्कारस्कन्ध’ मानते हैं। सब संसार में दुःखरूप दुःख का घर दुःख का साधनरूप भावना करके संसार से छूटना; चारवाकों में अधिक मुक्ति और अनुमान तथा जीव को न मानना;
बौद्ध मानते हैं।
देशना लोकनाथानां सत्त्वाशयवशानुगा ।
भिद्यन्ते बहुधा लोके उपायैर्बहुभि किल।।१।।
गम्भीरोत्तानभेदेन क्वचिच्चोभयलक्षणा।
भिन्ना हि देशनाऽभिन्ना शून्यताऽद्वयलक्षणा।।२।।
द्वादशायतनपूजा श्रेयस्करीति बौद्धा मन्यन्ते-
अर्थानुपार्ज्य बहुशो द्वादशायतनानि वै।
परित पूजनीयानि किमन्यैरिह पूजितै ।।३।।
ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्चैव तथा कर्मेन्द्रियाणि च।
मनो बुद्धिरिति प्रोक्तं द्वादशायतनं बुधै ।।४।।
अर्थात् जो ज्ञानी, विरक्त, जीवनमुक्त लोकों के नाथ बुद्ध आदि तीर्थंकरों के पदार्थों के स्वरूप को जनाने वाला जो कि भिन्न-भिन्न पदार्थों का उपदेशक है जिस को बहुत से भेद और बहुत से उपायों से कहा है उसको मानना।।१।। बड़े गम्भीर और प्रसिद्ध भेद से कहीं-कहीं गुप्त और प्रकटता से भिन्न-भिन्न गुरुओं के उपदेश जो कि शून्य लक्षणयुक्त पूर्व कह आये, उनको मानना।।२।। जो द्वादशायतन पूजा है वही मोक्ष करने वाली है। उस पूजा के लिये बहुत से द्रव्यादि पदार्थों को प्राप्त होके द्वादशायतन अर्थात् बारह प्रकार के स्थान विशेष बना के सब प्रकार से पूजा करनी चाहिए; अन्य की पूजा करने से क्या प्रयोजन।।३।।
इन की द्वादशायतन पूजा यह है-पांच ज्ञानेन्द्रिय अर्थात् श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, जिह्वा और नासिका; पांच कर्मेन्द्रिय अर्थात् वाक्, हस्त, पाद, गुह्य और उपस्थ; ये १० इन्द्रियां और मन, बुद्धि इन ही का सत्कार अर्थात् इन को आनन्द में प्रवृत्त रखना इत्यादि बौद्ध का मत है।।४।।
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If everything is zero then the person who knows zero cannot be zero and all those who are zero cannot know zero as zero. Therefore, the two substances known and the known are proven. And if yoga considers external emptiness, then the mountain should be within it. If you say that the mountain is inside, then where is the mountain-like holiday in his heart? Therefore there is mountain outside and mountain knowledge resides in the soul.
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