द्वादश समुल्लास खण्ड-5
(प्रश्न) जैसे धान्य का छिलका उतारने वा अग्नि के संयोग होने से वह बीज पुनः नहीं उगता इसी प्रकार मुक्ति में गया हुआ जीव पुनः जन्ममरणरूप संसार में नहीं आता।
(उत्तर) जीव और कर्म का सम्बन्ध छिलके और बीज के समान नहीं है किन्तु इन का समवाय सम्बन्ध है। इस से अनादि काल से जीव और उस में कर्म और कर्तृत्वशक्ति का सम्बन्ध है। जो उस में कर्म करने की शक्ति का भी अभाव मानोगे तो सब जीव पाषाणवत् हो जायेंगे और मुक्ति को भोगने का ही सामर्थ्य नहीं रहेगा। जैसे अनादि काल का कर्म-बन्धन छूट कर जीव मुक्त होता है तो तुम्हारी नित्य मुक्ति से भी छूट कर बन्धन में पड़ेगा। क्योंकि जैसे कर्मरूप मुक्ति के साधनों से भी छूट कर जीव का मुक्त होना मानते हो वैसे ही नित्य मुक्ति से भी छूट के बन्धन में पड़ेगा। साधनों से सिद्ध हुआ पदार्थ नित्य कभी नहीं हो सकता और जो साधन सिद्ध के बिना मुक्ति मानोगे तो कर्मों के बिना ही बन्ध प्राप्त हो सकेगा। जैसे वस्त्रें में मैल लगता और धोने से छूट जाता है पुनः मैल लग जाता है। वैसे मिथ्यात्वादि हेतुओं से राग, द्वेषादि के आश्रय से जीव को कर्मरूप मल लगता है और जो सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्र से निर्मल होता है। और मल लगने के कारणों से मलों का लगना मानते हो तो मुक्त जीव संसारी और संसारी जीव का मुक्त होना अवश्य मानना पड़ेगा। क्योंकि जैसे निमित्तों से मलिनता छूटती है वैसे निमित्तों से मलिनता लग भी जायेगी। इसलिये जीव को बन्ध और मुक्ति प्रवाहरूप से अनादि मानो; अनादि अनन्तता से नहीं।
(प्रश्न) जीव निर्मल कभी नहीं था किन्तु मलसहित है।
(उत्तर) जो कभी निर्मल नहीं था तो निर्मल भी कभी नहीं हो सकेगा। जैसे शुद्ध वस्त्र में पीछे से लगे हुए मैल को धोने से छुड़ा देते हैं। उस के स्वाभाविक श्वेत वर्ण को नहीं छुड़ा सकते। मैल फिर भी वस्त्र में लग जाता है। इसी प्रकार मुक्ति में भी लगेगा।
(प्रश्न) जीव पूर्वोपार्जित कर्म ही से स्वयं शरीर धारण कर लेता है। ईश्वर का मानना व्यर्थ है।
(उत्तर) जो केवल कर्म ही शरीर धारण में निमित्त हो; ईश्वर कारण न हो तो वह जीव बुरा जन्म कि जहां बहुत दुःख हो उस को धारण कभी न करे किन्तु सदा अच्छे-अच्छे जन्म धारण किया करे। जो कहो कि कर्म प्रतिबन्धक है तो भी जैसे चोर आप से आके बन्दीगृह में नहीं जाता और स्वयं फांसी भी नहीं खाता किन्तु राजा देता है। इसी प्रकार जीव को शरीर धारण कराने और उस के कर्मानुसार फल देने वाले परमेश्वर को तुम भी मानो।
(प्रश्न) मद (नशा) के समान कर्मफल स्वयं प्राप्त होता है। फल देने में दूसरे की आवश्यकता नहीं।
(उत्तर) जो ऐसा हो तो जैसे मदपान करने वालों को मद कम चढ़ता; अनभ्यासी को बहुत चढ़ता है। वैसे नित्य बहुत पाप, पुण्य करने वालों को न्यून और कभी-कभी थोड़ा-थोड़ा पाप, पुण्य करने वालों को अधिक फल होना चाहिए और छोटे कर्म वालों को अधिक फल होवे।
(प्रश्न) जिस का जैसा स्वभाव होता है उस को वैसा ही फल हुआ करता है।
(उत्तर) जो स्वभाव से है तो उस का छूटना वा मिलना नहीं हो सकता। हां! जैसे शुद्ध वस्त्र में निमित्तों से मल लगता है उस के छुड़ाने के निमित्तों से छूट भी जाता है; ऐसा मानना ठीक है।
(प्रश्न) संयोग के विना कर्म परिणाम को प्राप्त नहीं होता। जैसे दूध और खटाई के संयोग के विना दही नहीं होता। इसी प्रकार जीव और कर्म के योग से कर्म का परिणाम होता है।
(उत्तर) जैसे दूध और खटाई को मिलाने वाला तीसरा होता है वैसे ही जीवों को कर्मों के फल के साथ मिलाने वाला तीसरा ईश्वर होना चाहिये। क्योंकि जड़ पदार्थ स्वयं नियम से संयुक्त नहीं होते और जीव भी अल्पज्ञ होने से स्वयम् अपने कर्मफल को प्राप्त नहीं हो सकते। इस से यह सिद्ध हुआ कि विना ईश्वरस्थापित सृष्टिक्रम के कर्मफलव्यवस्था नहीं हो सकती।
(प्रश्न) जो कर्म से मुक्त होता है वही ईश्वर कहाता है।
(उत्तर) जब अनादि काल से जीव के साथ कर्म लगे हैं उन से जीव मुक्त कभी नहीं हो सकेंगे।
(प्रश्न) कर्म का बन्ध सादि है।
(उत्तर) जो सादि है तो कर्म का योग अनादि नहीं और संयोग के आदि में जीव निष्कर्म होगा और जो निष्कर्म को कर्म लग गया तो मुक्तों को भी लग जायगा और कर्म कर्त्ता का समवाय अर्थात् नित्य सम्बन्ध होता है यह कभी नहीं छूटता, इसलिये जैसा ९वें समुल्लास में लिख आये हैं वैसा ही मानना ठीक है। जीव चाहै जैसा अपना ज्ञान और सामर्थ्य बढ़ावे तो भी उस में परिमित ज्ञान और ससीम सामर्थ्य रहेगा। ईश्वर के समान कभी नहीं हो सकता। हां! जितना सामर्थ्य बढ़ना उचित है उतना योग से बढ़ा सकता है। और जैनियों में आर्हत लोग देह के परिमाण से जीव का भी परिमाण मानते हैं उन से पूछना चाहिये कि जो ऐसा हो तो हाथी का जीव कीड़ी में और कीड़ी का जीव हाथी में कैसे समा सकेगा? यह भी एक मूर्खता की बात है। क्योंकि जीव एक सूक्ष्म पदार्थ है जो कि एक परमाणु में भी रह सकता है परन्तु उस की शक्तियां शरीर में प्राण, बिजुली और नाड़ी आदि के साथ संयुक्त हो रहती हैं। उन से सब शरीर का वर्त्तमान जानता है। अच्छे संग से अच्छा और बुरे संग से बुरा हो जाता है। अब जैन लोग धर्म इस प्रकार का मानते हैं-
मूल- रे जीव भव दुहाइं, इक्कं चिय हरइ जिणमयं धम्मं।
इयराणं पणमंतो, सुह कय्ये मूढ मुसिओसि।। -प्रकरणरत्नाकर, भाग २। षष्टीशतक ६०। सूत्रंक ३।।
संक्षेप से अर्थ-रे जीव! एक ही जिनमत श्रीवीतरागभाषित धर्म संसार सम्बन्धी जन्म, जरा, मरणादि दुःखों का हरणकर्त्ता है। इसी प्रकार सुदेव और सुगुरु भी जैन मत वाले को जानना। इतर जो वीतराग ऋषभदेव से लेके महावीर पर्य्यन्त वीतराग देवों से भिन्न अन्य हरि, हर, ब्रह्मादि कुदेव हैं उन की अपने कल्याणार्थ जो जीव पूजा करते हैं वे सब मनुष्य ठगाये गये हैं। इस का यह भावार्थ है कि जैनमत के सुदेव सुगुरु तथा सुधर्म को छोड़ के अन्य कुदेव कुगुरु तथा कुधर्म को सेवन से कुछ भी कल्याण नहीं होता। ३।।
(समीक्षक) अब विद्वानों को विचारना चाहिये कि कैसे निन्दायुक्त इन के धर्म के पुस्तक हैं।
मूल- अरिहं देवो सुगुरु सुद्धं धम्मं च पंच नवकारो।
धन्नाणं कयच्छाणं, निरन्तरं वसइ हिययम्मि।। -प्रकन भा०२। षष्टी० ६०। सूत्र० १।।
जो अरिहन् देवेन्द्रकृत पूजादिकन के योग्य दूसरा पदार्थ उत्तम कोई नहीं ऐसा जो देवों का देव शोभायमान अरिहन्त देव ज्ञान क्रियावान्, शास्त्रें का उपदेष्टा, शुद्ध कषाय मलरहित सम्यक्त्व विनय दयामूल श्रीजिनभाषित जो धर्म है वही दुर्गति में पड़ने वाले प्राणियों का उद्धार करने वाला है और अन्य हरिहरादि का धर्म संसार से उद्धार करने वाला नहीं। और पञ्च अरिहन्तादिक परमेष्ठी तत्सम्बन्धी उन को नमस्कार। ये चार पदार्थ धन्य हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं अर्थात् दया, क्षमा, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन और चारित्र यह जैनों का धर्म है।।१।।
(समीक्षक) जब मनुष्यमात्र पर दया नहीं वह दया न क्षमा। ज्ञान के बदले अज्ञान दर्शन अन्धेर और चारित्र के बदले भूखे मरना कौनसी अच्छी बात है? जैन मत के धर्म की प्रशंसा-
मूल- जइ न कुणसि तव चरणं, न पढसि न गुणेसि देसि नो दाणम्।
ता इत्तियं न सक्किसि, जं देवो इक्क अरिहन्तो।। -प्रकरण० भा० २। षष्टी ६०। सू० २।
हे मनुष्य! जो तू तप चारित्र नहीं कर सकता, न सूत्र पढ़ सकता, न प्रकरणादि का विचार कर सकता और सुपात्रदि को दान नहीं दे सकता तो भी जो तू देवता एक अरिहन्त ही हमारे आराधना के योग्य सुगुरु सुधर्म जैन मत में श्रद्धा रखना सर्वोत्तम बात और उद्धार का कारण है।।२।।
(समीक्षक) यद्यपि दया और क्षमा अच्छी वस्तु है तथापि पक्षपात में फंसने से दया अदया और क्षमा अक्षमा हो जाती है। इस का प्रयोजन यह है कि किसी भी जीव को दुःख न देना यह बात सर्वथा सम्भव नहीं हो सकती क्योंकि दुष्टों को दण्ड देना भी दया में गणनीय है। जो एक दुष्ट को दण्ड न दिया जाय तो सहस्रों मनुष्यों को दुःख प्राप्त हो, इसलिये वह दया अदया और क्षमा अक्षमा हो जाय। यह तो ठीक है कि सब प्राणियों के दुःखनाश और सुख की प्राप्ति का उपाय करना दया कहाती है। केवल जल छान के पीना, क्षुद्र जन्तुओं को बचाना ही दया नहीं कहाती किन्तु इस प्रकार की दया जैनियों के कथनमात्र ही है क्योंकि वैसा वर्त्तते नहीं। क्या मनुष्यादि पर चाहें किसी मत में क्यों न हो दया करके उस को अन्नपानादि से सत्कार करना और दूसरे मत के विद्वानों का मान्य और सेवा करना दया नहीं है? जो इन की सच्ची दया होती तो ‘विवेकसार’ के पृष्ठ २२१ में देखो क्या लिखा है। एक ‘परमती की स्तुति’ अर्थात् उन का गुणकीर्तन कभी न करना। दूसरा ‘उनको नमस्कार’ अर्थात् वन्दना भी न करनी। तीसरा ‘आलपन’ अर्थात् अन्य मत वालों के साथ थोड़ा बोलना। चौथा ‘संलपन’ अर्थात् उन से बार-बार न बोलना। पांचवां ‘उन को अन्न वस्त्रदि दान’ अर्थात् उन को खाने पीने की वस्तु भी न देनी। छठा ‘गन्धपुष्पादि दान’ अन्य मत की प्रतिमा पूजन के लिए गन्धपुष्पादि भी न देना। ये छ यतना अर्थात् इन छः प्रकार के कर्मों को जैन लोग कभी न करें।
(समीक्षक) अब बुद्धिमानों को विचारना चाहिए कि इन जैनी लोगों की अन्य मत वाले मनुष्यों पर कितनी अदया, कुदृष्टि और द्वेष है। जब अन्य मतस्थ मनुष्यों पर इतनी अदया है तो फिर जैनियों को दयाहीन कहना सम्भव है क्योंकि अपने घर वालों ही की सेवा करना विशेष धर्म नहीं कहाता। उन के मत के मनुष्य उन के घर के समान हैं। इसलिए उन की सेवा करते; अन्य मतस्थों की नहीं; फिर उन को दयावान् कौन बुद्धिमान् कह सकता है? विवेक० पृष्ठ १०८ में लिखा है कि मथुरा के राजा के नमुची नामक दीवान को जैनयतियों ने अपना विरोधी समझ कर मार डाला और आलोयणा करके शुद्ध हो गये।
(समीक्षक) क्या यह भी दया और क्षमा का नाशक कर्म नहीं है? जब अन्य मत वालों पर प्राण लेने पर्यन्त वैरबुद्धि रखते हैं तो इन को दयालु के स्थान पर हिसक कहना ही सार्थक है। अब सम्यक्त्व दर्शनादि के लक्षण आर्हत प्रवचनसंग्रह परमागम सार में कथित हैं। सम्यक् श्रद्धान, सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये चार मोक्ष मार्ग के साधन हैं। इन की व्याख्या योगदेव ने की है। जिस रूप से जीवादि द्रव्य अवस्थित हैं उसी रूप से जिनप्रतिपादित ग्रन्थानुसार विपरीत अभिनिवेशादिरहित जो श्रद्धा अर्थात् जिनमत में प्रीति है सो ‘सम्यक् श्रद्धान’ और ‘सम्यक् दर्शन है’।
रुचिर्जिनोक्ततत्त्वेषु सम्यक् श्रद्धानमुच्यते।
जिनोक्त तत्त्वों में सम्यक् श्रद्धा करनी चाहिए अर्थात् अन्यत्र कहीं नहीं।
यथावस्थिततत्त्वानां संक्षेपाद्विस्तरेण वा।
योऽवबोधस्तमत्रहु सम्यग्ज्ञानं मनीषिण ।।
जिस प्रकार के जीवादि तत्त्व हैं उन का संक्षेप वा विस्तार से जो बोध होता है उसी को ‘सम्यक् ज्ञान’ बुद्धिमान् कहते हैं।
सर्वथाऽनवद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमुच्यते।
कीर्त्तितं तदहिसादिव्रतभेदेन पञ्चधा।
अहिसासूनृतास्तेयब्रह्मचर्य्यापरिग्रहा ।।
सब प्रकार से निन्दनीय अन्य मत सम्बन्ध का त्याग चारित्र कहाता है और अहिसादि भेद से पांच प्रकार का व्रत है। एक (अहिसा) किसी प्राणिमात्र का न मारना। दूसरा (सूनृता) प्रिय वाणी बोलना। तीसरा (अस्तेय) चोरी न करना। चौथा (ब्रह्मचर्य्य) उपस्थ इन्द्रिय का संयमन। और पांचवां (अपरिग्रह) सब वस्तुओं का त्याग करना। इन में बहुत सी बातें अच्छी हैं अर्थात् अहिसा और चोरी आदि निन्दनीय कर्मों का त्याग अच्छी बात है परन्तु ये सब अन्य मत की निन्दा करनी आदि दोषों से सब अच्छी बातें भी दोषयुक्त हो गई हैं। जैसे प्रथम सूत्र में लिखी है-‘अन्य हरिहरादि का धर्म संसार में उद्धार करने वाला नहीं। क्या यह छोटी निन्दा है कि जिन के ग्रन्थ देखने से ही पूर्ण विद्या और धार्मिकता पाई जाती है उन को बुरा कहना? और अपने महा असम्भव जैसा कि पूर्व लिख आये वैसी बातों के कहने वाले अपने तीर्थंकरों की स्तुति करना? केवल हठ की बातें हैं। भला जो जैनी कुछ चारित्र न कर सके, न पढ़ सके, न दान देने का सामर्थ्य हो तो भी जैन मत सच्चा है। क्या इतना कहने ही से वह उत्तम हो जाये? और अन्य मत वाले श्रेष्ठ भी अश्रेष्ठ हो जायें? ऐसे कथन करने वाले मनुष्यों को भ्रान्त और बालबुद्धि न कहा जाय तो क्या कहें? इस में यही विदित होता है कि इनके आचार्य स्वार्थी थे; पूर्ण विद्वान् नहीं। क्योंकि जो सब की निन्दा न करते तो ऐसी झूठी बातों में कोई न फंसता, न उन का प्रयोजन सिद्ध होता। देखो! यह तो सिद्ध होता है कि जैनियों का मत डुबाने वाला और वेदमत सब का उद्धार करनेहारा, हरिहरादि देव सुदेव और इन के ऋषभदेवादि सब कुदेव दूसरे लोग कहें तो क्या वैसा ही इन को बुरा न लगेगा? और भी इन के आचार्य्य और मानने वालों की भूल देख लो-
मूल- जिणवर आणा भंगं, उमग्ग उस्सुत्त लेस देसणउ।
आणा भंगे पावं ता जिणमय दुक्करं धम्मम्।। -प्रकरण भाग २। षष्टी श० ६१। सू० ११।।
उन्मार्ग उत्सूत्र के लेख दिखाने से जो जिनवर अर्थात् वीतराग तीर्थंकरों की आज्ञा का भंग होता है वह दुःख का हेतु पाप है। जिनेश्वर कहे सम्यक्त्वादि धर्म ग्रहण करना बड़ा कठिन है। इसलिये जिस प्रकार जिन आज्ञा का भंग न हो वैसा करना चाहये।।११।।
(समीक्षक) जो अपने ही मुख से अपनी प्रशंसा और अपने ही धर्म को बड़ा कहना और दूसरे की निन्दा करनी है वह मूर्खता की बात है क्योंकि प्रशंसा उसी की ठीक है कि जिस की दूसरे विद्वान् करें। अपने मुख से अपनी प्रशंसा तो चोर भी करते हैं तो क्या वे प्रशंसनीय हो सकते हैं? इसी प्रकार की इन की बातें हैं।
मूल- बहुगुण विज्झा निलओ, उसुत्त भासी तहा विमुत्तव्वो।
जह वर मणि जुत्तो विहु, विग्घकरी विसहरो लोए।। -प्रकरण भा०२। षष्टी० सू० १८।
जैसे विषधर सर्प में मणि त्यागने योग्य है वैसे जो जैनमत में नहीं वह चाहै कितना बड़ा धार्मिक पण्डित हो उस को त्याग देना ही जैनियों को उचित है।।१८।।
(समीक्षक) देखिये! कितनी भूल की बात है। जो इन के चेले और आचार्य्य विद्वान् होते तो विद्वानों से प्रेम करते। जब इन के तीर्थंकर सहित अविद्वान् हैं तो विद्वानों का मान्य क्यों करें? क्या सुवर्ण को मल वा धूल में पड़े को कोई त्यागता है? इस से यह सिद्ध हुआ कि विना जैनियों के वैसे दूसरे कौन पक्षपाती हठी दुराग्रही विद्याहीन होंगे?
मूल- अइसय पाविय पावा, धम्मिअ पव्वेसु तोवि पाव रया।
न चलन्ति सुद्ध धम्मा, धन्ना किविपाव पव्वेसु।। -प्रकरण भा० २। षष्टी० सू० २९।।
अन्य दर्शनी कुलिगी अर्थात् जैनमत विरोधी उन का दर्शन भी जैनी लोग न करें।।२९।।
(समीक्षक) बुद्धिमान् लोग विचार लेंगे कि यह कितनी पामरपन की बात है। सच तो यह है कि जिस का मत सत्य है उस को किसी से डर नहीं होता। इन के आचार्य जानते थे कि हमारा मत पोलपाल है जो दूसरे को सुनावेंगे तो खण्डन हो जायेगा इसलिये सब की निन्दा करो और मूर्ख जनों को फंसाओ।
मूल- नामंपि तस्स असुहं, जेण निदिठाइ मिच्छ पव्वाइ।
जेसि अणुसंगाउ, धम्मीणवि होइ पाव मई।। -प्रकनभान २। षष्टी० सू० २७।।
जो जैनधर्म से विरुद्ध धर्म हैं वे मनुष्यों को पापी करने वाले हैं इसलिये किसी के अन्य धर्म को न मान कर जैनधर्म ही को मानना श्रेष्ठ है।।२७।।
(समीक्षक) इस से यह सिद्ध होता है कि सब से वैर, विरोध, निन्दा, ईर्ष्या आदि दुष्ट कर्मरूप सागर में डुबाने वाला जैन मार्ग है। जैसे जैनी लोग सब के निन्दक हैं वैसा कोई भी दूसरा मत वाला महानिन्दक और अधर्मी न होगा। क्या एक ओर से सब की निन्दा और अपनी अतिप्रशंसा करना शठ मनुष्यों की बातें नहीं हैं? विवेकी लोग तो चाहें किसी के मत के हों उन में अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहते हैं।
मूल- हा हा गुरु अ अकज्झं, सामी न हु अच्छि कस्स पुक्करिमो।
कह जिण वयण कह सुगुरु; सावया कह इय अकज्झं।। -प्रकन भा० २। षष्टी सू० ३५।।
सर्वज्ञभाषित जिन वचन, जैन के सुगुरु और जैनधर्म कहां और उन से विरुद्ध कुगुरु अन्य मार्गी के उपदेशक कहां अर्थात् हमारे सुगुरु, सुदेव, सुधर्म और अन्य के कुदेव, कुगुरु, कुधर्म हैं।।३५।।
(समीक्षक) यह बात बेर बेचनेहारी कूंजड़ी के समान है। जैसे वह अपने खट्टे बेरों को मीठा और दूसरी के मीठों को भी खट्टा और निकम्मे बतलाती है, इसी प्रकार की जैनियों की बातें हैं। ये लोग अपने मत से भिन्न मत वालों की सेवा में बड़ा अकार्य्य अर्थात् पाप गिनते हैं।
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In all respects, the renunciation of other unacceptable relationships is called Charitra and Ahisadi is a five-time fast with distinction. One (Ahisa) not to kill any animal. Second (Sunruta) To speak dear voice. Third (asthe) not to steal. The fourth (brahmacharya) restraint of the Upasthya sense. And the fifth (aparigraha) renounce everything. Many things are good in these, that is, renunciation of abusive acts like Ahisa and theft is a good thing, but all these good things have also become defective due to the blasphemy of blaming all other opinions.
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