द्वादश समुल्लास खण्ड-7
उस्सुत्त लेस विसलव, रहिओ निसुणेसु जिण धम्मं।। -प्रकनभान २। षष्टी०सू० १२८।।
संनअर्थ-जो मनुष्य जिनागम अर्थात् जैनों के शास्त्रें को सुनूंगा, उत्सूत्र अर्थात् अन्य मत के ग्रन्थों को कभी न सुनूंगा। इतनी इच्छा करे वह इतनी इच्छामात्र ही से दुःखसागर से तर जाता है।।१२८।।
(समीक्षक) यह भी बात भोले मनुष्यों को फंसाने के लिए है। क्योंकि इस पूर्वोक्त इच्छा से यहां के दुःखसागर से भी नहीं तरता और पूर्वजन्म के भी संचित पापों के दुःखरूपी फल भोगे विना नहीं छूट सकता। जो ऐसी-ऐसी झूठ अर्थात् विद्याविरुद्ध बातें न लिखते तो इन के अविद्यारूप ग्रन्थों को वेदादि शास्त्र देख सुन सत्याऽसत्य जान कर इनके पोकल ग्रन्थों को छोड़ देते। परन्तु ऐसा जकड़ कर इन अविद्वानों को बांधा है कि इस जाल से कोई एक बुद्धिमान् सत्संगी चाहें छूट सके तो सम्भव है परन्तु अन्य जड़बुद्धियों का छूटना तो अति कठिन है।
मूल- जम्हा जेणहि भणियं, सुय ववहारं विसोहियं तस्स ।
जायइ विसुद्ध बोही, जिण आणाराहगत्ताओ।। - प्रकनभान २। षष्टी०सू० १३८।।
संनअर्थ- जो जिनाचार्यों ने कहे सूत्र निरुक्ति वृत्ति भाष्यचूर्णी मानते हैं वे ही शुभ व्यवहार और दुःसह व्यवहार के करने से चारित्रयुक्त होकर सुखों को प्राप्त होते हैं; अन्य मत के ग्रन्थ देखने से नहीं।।१३८।।
(समीक्षक) क्या अत्यन्त भूखे मरने आदि कष्ट सहने को चारित्र कहते हैं? जो भूखा, प्यासा मरना आदि ही चारित्र है तो बहुत से मनुष्य अकाल वा जिन को अन्नादि नहीं मिलते भूखे मरते हैं वे शुद्ध हो कर शुभ फलों को प्राप्त होने चाहिये। सो न ये शुद्ध होवें और न तुम किन्तु पित्तादि के प्रकोप से रोगी होकर सुख के बदले दुःख को प्राप्त होते हैं। धर्म तो न्यायाचरण, ब्रह्मचर्य्य, सत्यभाषणादि है और असत्यभाषण अन्यायाचरणादि पाप है और सब से प्रीतिपूर्वक परोपकारार्थ वर्त्तना शुभ चरित्र कहाता है। जैनमतस्थों का भूखा, प्यासा रहना आदि धर्म नहीं। इन सूत्रदि को मानने से थोड़ा सा सत्य और अधिक झूठ को प्राप्त होकर दुःखसागर में डूबते हैं।
मूल- जइ जाणिसि जिण नाहो, लोयायारा विपरकए भूओ।
ता तं तं मन्नंतो, कह मन्नसि लोअ आयारं।। - प्रकनभान २। षष्टी०सू० १४८।।
संनअर्थ-जो उत्तम प्रारब्धवान् मनुष्य होते हैं वे ही जिन धर्म का ग्रहण करते हैं अर्थात् जो जिनधर्म्म का ग्रहण नहीं करते उन का प्रारब्ध नष्ट है।।१४८।।
(समीक्षक) क्या यह बात भूल की और झूठ नहीं? क्या अन्य मत में श्रेष्ठ प्रारब्धी और जैन मत में नष्ट प्रारब्धी कोई भी नहीं है? और जो यह कहा कि सधर्मी अर्थात् जैन धर्म वाले आपस में क्लेश न करें किन्तु प्रीतिपूर्वक वर्त्तें। इस से यह बात सिद्ध होती है कि दूसरे के साथ कलह करने में बुराई जैन लोग नहीं मानते होंगे। यह भी इन की बात अयुक्त है क्योंकि सज्जन पुरुष सज्जनों के साथ प्रेम और दुष्टों को शिक्षा देकर सुशिक्षित करते हैं। और जो यह लिखा कि ब्राह्मण, त्रिदण्डी, परिव्राजकाचार्य अर्थात् संन्यासी और तापसादि अर्थात् वैरागी आदि सब जैनमत के शत्रु हैं। अब देखिये कि सब को शत्रुभाव से देखते और निन्दा करते हैं तो जैनियों की दया और क्षमारूप धर्म कहां रहा? क्योंकि जब दूसरे पर द्वेष रखना दया, क्षमा का नाश और इस के समान कोई दूसरा हिसारूप दोष नहीं। जैसे द्वेषमूर्त्तियां जैनी लोग हैं वैसे दूसरे थोड़े ही होंगे। ऋषभदेव से लेके महावीरपर्यन्त २४ तीर्थंकरों को रागी, द्वेषी, मिथ्यात्वी कहें और जैनमत मानने वालों को सन्निपातज्वर में फंसे हुए मानें और उन का धर्म नरक और विष के समान समझें तो जैनियों को कितना बुरा लगेगा? इसलिये जैनी लोग निन्दा और परमतद्वेषरूप नरक में डूब कर महाक्लेश भोग रहे हैं। इस बात को छोड़ दें तो बहुत अच्छा होवे।
मूल- एगो अ गुरु एगो वि सावगो चेइआणि विवहाणि।
तच्छय जं जिणदव्वं, परुप्परं तं न विच्चन्ति।। - प्रकन भा० २। षष्टी० सू० १५०।।
संनअर्थ-सब श्रावकों का देव गुरु धर्म एक है, चैत्यवन्दन अर्थात् जिन प्रतिबिम्ब मूर्त्तिदेवल और जिन द्रव्य की रक्षा और मूर्त्ति की पूजा करना धर्म है।।१५०।।
(समीक्षक) अब देखो! जितना मूर्त्तिपूजा का झगड़ा चला है वह सब जैनियों के घर से! और पाखण्डों का मूल भी जैनमत है। श्राद्धदिनकृत्य पृष्ठ १ में मूर्त्तिपूजा के प्रमाण-
नवकारेण विवोहो।।१।। अणुसरणं सावउ।।२।। वयाइं इमे।।३।।
जोगो।।४।। चिय वन्दणगो।।५।। पच्चरकाणं तु विहि पुच्छम्।।६।।
इत्यादि श्रावकों को पहले द्वार में नवकार का जप कर जाना।।१।। दूसरा नवकार जपे पीछे मैं श्रावक हूं स्मरण करना।।२।। तीसरे अणुव्रतादिक हमारे कितने हैं।।३।। चौथे द्वारे चार वर्ग में अग्रगामी मोक्ष है उस का कारण ज्ञानादिक है सो योग, उस का सब अतीचार निर्मल करने से छः आवश्यक कारण सो भी उपचार से योग कहाता है सो योग कहेंगे।।४।। पांचवें चैत्यवन्दन अर्थात् मूर्त्ति को नमस्कार द्रव्यभाव पूजा कहेंगे।।५।। छठा प्रत्याख्यान द्वार नवकारसीप्रमुख विधिपूर्वक कहूंगा इत्यादि।।६।। और इसी ग्रन्थ में आगे-आगे बहुत सी विधि लिखी हैं अर्थात् सन्ध्या के भोजन समय में जिनबिम्ब अर्थात् तीर्थंकरों की मूर्त्ति पूजना और द्वार पूजना और द्वार पूजना में बड़े-बड़े बखेड़े हैं। मन्दिर बनाने के नियम, पुराने मन्दिरों को बनवाने और सुधारने से मुक्ति हो जाती है। मन्दिर में इस प्रकार जाकर बैठे। बड़े भाव प्रीति से पूजा करें। “नमो जिनेन्द्रेभ्य:” इत्यादि मन्त्रें से स्नानादि कराना। और “जलचन्दनपुष्पधूपदीपनै” इत्यादि से गन्धादि चढ़ावें। रत्नसार भाग के १२वें पृष्ठ में मूर्त्तिपूजा का फल यह लिखा है कि पुजारी को राजा वा प्रजा कोई भी न रोक सके।
(समीक्षक) ये बातें सब कपोलकल्पित हैं क्योंकि बहुत से जैन पूजारियों को राजादि रोकते हैं। रत्नसार० पृष्ठ १३ में लिखा है- मूर्त्तिपूजा से रोग, पीड़ा और महादोष छूट जाते हैं। एक किसी ने ५ कौड़ी का फूल चढ़ाया। उसने १८ देश का राज पाया। उसका नाम कुमारपाल हुआ था इत्यादि सब बातें झूठी और मूर्खों को लुभाने की हैं क्योंकि अनेक जैनी लोग पूजा करते-करते रोगी रहते हैं और एक बीघे का भी राज्य पाषाणादि मूर्त्तिपूजा से नहीं मिलता! और जो पांच कौड़ी के फूल चढ़ाने से राज मिले तो पांच-पांच कौड़ी के फूल चढ़ा के सब भूगोल का राज क्यों नहीं कर लेते? और राजदण्ड क्यों भोगते हैं? और जो मूर्त्तिपूजा करके भवसागर से तर जाते हो तो ज्ञान सम्यग्दर्शन और चारित्र क्यों करते हो? रत्नसार भाग पृष्ठ १३ में लिखा है कि गोतम के अंगूठे में अमृत और उस के स्मरण से मनोवांछित फल पाता है।
(समीक्षक) जो ऐसा हो तो सब जैनी लोग अमर हो जाने चाहियें सो नहीं होते। इस से यह इन की केवल मूर्खों के बहकाने की बात है, दूसरा इस में कुछ भी तत्त्व नहीं। इन की पूजा करने का श्लोक विवेकसार पृष्ठ ५२ में-
जलचन्दनधूपनैरथदीपाक्षतकैर्निवेद्यवस्त्रै ।
उपचारवरैर्जिनेन्द्रान् रुचिरैरद्य यजामहे।।
हम जल, चन्दन चावल, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, वस्त्र और अतिश्रेष्ठ उपचारों से जिनेन्द्र अर्थात् तीर्थंकरों की पूजा करें।
(समीक्षक) इसी से हम कहते हैं कि मूर्त्तिपूजा जैनियों से चली है। विवेकसार पृष्ठ २१ -जिनमन्दिर में मोह नहीं आता और भवसागर के पार उतारने वाला है। विवेकसार पृष्ठ ५१-५२- मूर्त्तिपूजा से मुक्ति होती है और जिनमन्दिर में जाने से सद्गुण आते हैं। जो जल चन्दनादि से तीर्थंकरों की पूजा करे वह नरक से छूट स्वर्ग को जाय। विवेकसार पृष्ठ ५५-जिनमन्दिर में ऋषभदेवादि की मूर्त्तियों के पूजने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है। विवेकसार पृष्ठ ६१-जिनमूर्नियों की पूजा करें तो सब जगत् के क्लेश छूट जायें।
(समीक्षक) अब देखो इन की अविद्यायुक्त असम्भव बातें! जो इस प्रकार से पापादि बुरे कर्म छूट जायें; मोह न आवे, भवसागर से पार उतर जायें; सद्गुण आ जायें; नरक को छोड़ स्वर्ग में जायें; धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को प्राप्त होवें और सब क्लेश छूट जायें तो सब जैनी लोग सुखी और सब पदार्थों की सिद्धि को प्राप्त क्यों नहीं होते? इसी विवेकसार के ३ पृष्ठ में लिखा है कि जिन्होंने जिन मूर्त्ति का स्थापन किया है उन्होंने अपनी और अपने कुटुम्ब की जीविका खड़ी की है। विवेकसार पृष्ठ २२५-शिव, विष्णु आदि की मूर्त्तियों की पूजा करनी बहुत बुरी है अर्थात् नरक का साधन है।
(समीक्षक) भला जब शिवादि की मूर्त्तियां नरक के साधन हैं तो जैनियों की मूर्त्तियां क्या वैसी नहीं? जो कहें कि हमारी मूर्त्तियां त्यागी, शान्त और शुभमुद्रायुक्त हैं इसलिये अच्छी और शिवादि की मूर्त्ति वैसी नहीं इसलिये बुरी हैं तो इन से कहना चाहिए कि तुम्हारी मूर्त्तियां तो लाखों रुपयों के मन्दिर में रहती हैं और चन्दन केशरादि चढ़ता है पुनः त्यागी कैसी? और शिवादि की मूर्त्तियां तो विना छाया के भी रहती हैं वे त्यागी क्यों नहीं? और जो शान्त कहो तो जड़ पदार्थ सब निश्चल होने से शान्त हैं। सब मतों की मूर्त्तिपूजा व्यर्थ है।
(प्रश्न) हमारी मूर्त्तियां वस्त्र आभूषणादि धारण नहीं करतीं इसलिये अच्छी हैं।
(उत्तर) सब के सामने नंगी मूर्त्तियों का रहना और रखना पशुवत् लीला है।
(प्रश्न) जैसे स्त्री का चित्र या मूर्त्ति देखने से कामोत्पत्ति होती है वैसे साधु और योगियों की मूर्त्ति को देखने से शुभ गुण प्राप्त होते हैं।
(उत्तर) जो पाषाणमूर्त्तियों को देखने से शुभ परिणाम मानते हो तो उस के जड़त्वादि गुण भी तुम्हारे में आ जायेंगे। जब जड़बुद्धि होंगे तो सर्वथा नष्ट हो जाओगे। दूसरे जो उत्तम विद्वान् हैं उन के संग सेवा से छूटने से मूढ़ता भी अधिक होगी। और जो-जो दोष ग्यारहवें समुल्लास में लिखे हैं वे सब पाषाणादि मूर्त्तिपूजा करने वालों को लगते हैं। इसलिये जैसा जैनियों ने मूर्त्तिपूजा का झूठा कोलाहल चलाया है वैसे इन के मन्त्रें में भी बहुत सी असम्भव बातें लिखी हैं। यह इन का मन्त्र है। रत्नसार भाग १। पृष्ठ १ में-
नमो अरिहन्ताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उबज्झायाणं नमो लोए सब्बसाहूणं । एसो पंच नमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो मंगलाचरणं च सव्वेसि पढमं हवइ मंगलम्।।१।।
इस मन्त्र का बड़ा माहात्म्य लिखा है और सब जैनियों का यह गुरुमन्त्र है। इस का ऐसा माहात्म्य धरा है कि तन्त्र, पुराण, भाटों की भी कथा को पराजय कर दिया है। श्राद्धदिनकृत्य पृष्ठ ३।
नमुक्कारं तउ पढ़े।।९।। जउ कब्बं। मंताणमंतो परमो इमुत्ति । धेयाण- धेयं परमं इमुत्ति। तत्ताणतत्तं परमं पवित्तं। संसारसत्ताण दुहाइयाणं।।१०।।
ताणं अन्नं तु नो अत्थि जीवाणं भवसायरे। बुड्डुं ताणं इमं मुत्तुं। नमुक्कारं सुपोययम्।।।११।। कब्बं अणेगजम्मं तरसंचिआणं। दुहाणं सारीरिअमाणुसाणं।
कत्तोय भव्वाणभविज्जनासो। न जावपत्तो नवकारमन्तो।।१२।।
जो यह मन्त्र है पवित्र और परम मन्त्र है। यह ध्यान के योग्य में परम ध्येय है। तत्त्वों में परम तत्त्व है। दुःखों से पीड़ित संसारी जीवों को नवकार मन्त्र ऐसा है कि जैसी समुद्र के पार उतारने की नौका होती है।।१०।। जो यह नवकार मन्त्र है वह नौका के समान है। जो इस को छोड़ देते हैं वे भवसागर में डूबते हैं और जो इस का ग्रहण करते हैं वे दुःखों से तर जाते हैं। जीवों को दुःखों से पृथक् रखने वाला, सब पापों का नाशक मुक्तिकारक इस मन्त्र के विना दूसरा कोई नहीं।।११।। अनेक भवान्तर में उत्पन्न हुआ शरीर सम्बन्धी दुःख से भव्य जीवों को भवसागर से तारने वाला यही है। जब तक नवकार मन्त्र नहीं पाया तब तक भवसागर से जीव नहीं तर सकता।।१२।। यह अर्थ सूत्र में कहा है। और जो अग्निप्रमुख अष्ट महाभयों में सहायक एक नवकार मन्त्र को छोड़कर दूसरा कोई नहीं। जैसे महारत्न वैडूर्य नामक मणि ग्रहण करने में आवे अथवा शत्रु के भय में अमोघ शस्त्र ग्रहण करने में आवे वैसे श्रुत केवली का ग्रहण करे और सब द्वाद्वशांगी का नवकार मन्त्र रहस्य है।
इस मन्त्र का अर्थ यह है-(नमो अरिहन्ताणं) सब तीर्थंकरों को नमस्कार (नमो सिद्धाणं) जैन मत के सब सिद्धों को नमस्कार। (नमो आयरियाणं) जैनमत के सब आचार्यों को नमस्कार। (नमो उवज्भफ़ायाणं) जैनमत के सब उपाध्यायों को नमस्कार। (नमो लोए सब्ब साहूणं) जितने जैन मत के साधु इस लोक में हैं उन सब को नमस्कार है। यद्यपि मन्त्र में जैन पद नहीं है तथापि जैनियों के अनेक ग्रन्थों में सिवाय जैनमत के अन्य किसी को नमस्कार भी न करना लिखा है, इसलिए यही अर्थ ठीक है। तत्त्वविवेक पृष्ठ नवन-जो मनुष्य लकड़ी, पत्थर को देवबुद्धि कर पूजता है वह अच्छे फलों को प्राप्त होता है।
(समीक्षक) जो ऐसा हो तो सब कोई दर्शन करके सुखरूप फलों को प्राप्त क्यों नहीं होते? रत्नसारभाग १ पृष्ठ १०-पार्श्वनाथ की मूर्त्ति के दर्शन से पाप नष्ट हो जाते हैं। कल्पभाष्य पृष्ठ ५१ में लिखा है कि सवा लाख मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया इत्यादि। मूर्त्तिपूजा विषय में इन का बहुत सा लेख है। इसी से समझा जाता है कि मूर्त्तिपूजा का मूल कारण जैनमत है। अब इन जैनियों के साधुओं की लीला देखिये-(विवेकसार पृष्ठ २२८) एक जैनमत का साधु कोशा वेश्या से भोग करके पश्चात् त्यागी होकर स्वर्ग लोक को गया। (विवेकसार पृष्ठ १०१) अर्णकमुनि चारित्र से चूककर कई वर्ष पर्य्यन्त दत्त सेठ के घर में विषयभोग करके पश्चात् देवलोक को गया। श्रीकृष्ण के पुत्र ढंढण मुनि को स्यालिया उठा ले गया पश्चात् देवता हुआ। (विवेकसार पृष्ठ १५६) जैनमत का साधु लिंगधारी अर्थात् वेशधारी मात्र हो तो भी उस का सत्कार श्रावक लोग करें। चाहैं साधु शुद्धचरित्र हों चाहैं अशुद्धचरित्र सब पूजनीय हैं। (विवेकसार पृष्ठ १६८) जैनमत का साधु चरित्रहीन हो तो भी अन्य मत के साधुओं से श्रेष्ठ है। (विवेकसार पृष्ठ १७१) श्रावक लोग जैनमत के साधुओं को चरित्ररहित भ्रष्टाचारी देखें तो भी उन की सेवा करनी चहिये। (विवेकसार पृष्ठ २१६) एक चोर ने पांच मूठी लोंच कर चारित्र ग्रहण किया। बड़ा कष्ट और पश्चात्ताप किया। छठे महीने में केवल ज्ञान पाके सिद्ध हो गया।
(समीक्षक) अब देखिये इन के साधु और गृहस्थों की लीला। इन के मत में बहुत कुकर्म करने वाला साधु भी सद्गति को गया। और- विवकेसार पृष्ठ १०६ में लिखा है कि श्रीकृष्ण तीसरे नरक में गया। (विवेकसार पृष्ठ १४५) में लिखा है कि धन्वन्तरि वैद्य नरक में गया। विवेकसार पृष्ठ ४८ में जोगी, जंगम, काजी, मुल्ला कितने ही अज्ञान से तप कष्ट करके भी कुगति को पाते हैं। रत्नसार भा० १ पृष्ठ १७१ में लिखा है कि नव वासुदेव अर्थात् त्रिपृष्ठ वासुदेव, द्विपृष्ठ वासुदेव, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम वासुदेव, सिहपुरुष वासुदेव, पुरुषपुण्डरीक वासुदेव, दत्तवासुदेव, लक्ष्मण वासुदेव और ९ श्रीकृष्ण वासुदेव, ये सब ग्यारहवें, बारहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें, अठारहवें, बीसवें और बाईसवें तीर्थंकरों के समय में नरक को गये और नव प्रतिवासुदेव अर्थात् अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव, तारक प्रतिवासुदेव, मोरक प्रतिवासुदेव, मधु प्रतिवासुदेव, निशुम्भ प्रतिवासुदेव, बली प्रतिवासुदेव, प्रह्लाद प्रतिवासुदेव, रावण प्रतिवासुदेव और जरासन्ध प्रतिवासुदेव ये भी सब नरक को गये। और कल्पभाष्य में लिखा है कि ऋषभदेव से लेके महावीर पर्य्यन्त २४ तीर्थंकर सब मोक्ष को प्राप्त हुए।
(समीक्षक) भला! कोई बुद्धिमान् पुरुष विचारे कि इन के साधु गृहस्थ और तीर्थंकर जिन में बहुत से वेश्यागामी, परस्त्रीगामी, चोर आदि सब जैनमतस्थ स्वर्ग और मुक्ति को गये और श्रीकृष्णादि महाधार्मिक महात्मा सब नरक को गये। यह कितनी बड़ी बुरी बात है? प्रत्युत विचार के देखें तो अच्छे पुरुष को जैनियों का संग करना वा उनको देखना भी बुरा है। क्योंकि जो इन का संग करे तो ऐसी ही झूठी-झूठी बातें उन के भी हृदय में स्थित हो जायेंगी, क्योंकि इन महाहठी, दुराग्रही मनुष्यों के संग से सिवाय बुराइयों के अन्य कुछ भी पल्ले न पड़ेगा। हां! जो जैनियों में उत्तमजन· हैं उन से सत्संगादि करने में कुछ भी दोष नहीं। विवेकसार पृष्ठ ५५ में लिखा है कि गंगादि तीर्थ और काशी आदि क्षेत्रें के सेवने से कुछ भी परमार्थ सिद्ध नहीं होता और अपने गिरनार, पालीटाणा और आबू आदि तीर्थ, क्षेत्र मुक्तिपर्यन्त के देने वाले लिखे हैं।
(समीक्षक) यहां विचारना चाहिये कि जैसे शैव, वैष्णवादि के तीर्थ और क्षेत्र, जल, स्थल जड़स्वरूप हैं वैसे जैनियों के भी हैं। इन में से एक की निन्दा और दूसरे की स्तुति करना मूर्खता का काम है।
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