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द्वादश समुल्लास खण्ड-9

(प्रश्न) इस को सब कोई जानता है कि जब किसी बड़े मनुष्य से छोटा मनुष्य कान में वा निकट होकर बात कहता है तब मुख पर पल्ला वा हाथ लगाता है। इसलिये कि मुख से थूक उड़ कर वा दुर्गन्ध उस को न लगे और जब पुस्तक बांचता है तब अवश्य थूक उड़ कर उस पर गिरने से उच्छिष्ट होकर बिगड़ जाता है इसलिये मुख पर पट्टी का बांधना अच्छा है।

(उत्तर) इस से यह सिद्ध हुआ कि जीवरक्षार्थ मुखपट्टी बांधना व्यर्थ है। और जब कोई बड़े मनुष्य से बात करता है तब मुख पर हाथ वा पल्ला इसलिये रखता है कि उस गुप्त बात को दूसरा कोई न सुन लेवे। क्योंकि जब कोई प्रसिद्ध बात करता है तब कोई भी मुख पर हाथ वा पल्ला नहीं धरता। इस से क्या विदित होता है कि गुप्त बात के लिये यह बात है। दन्तधावनादि न करने से तुम्हारे मुखादि अवयवों से अत्यन्त दुर्गन्ध निकलता है और जब तुम किसी के पास वा कोई तुम्हारे पास बैठता होगा तो विना दुर्गन्ध के अन्य क्या आता होगा? इत्यादि मुख के आड़ा हाथ वा पल्ला देने के प्रयोजन अन्य बहुत हैं। जैसे बहुत मनुष्यों के सामने गुप्त बात करने में जो हाथ वा पल्ला न लगाया जाय तो दूसरों की ओर वायु के फैलने से बात भी फैल जाय। जब वे दोनों एकान्त में बात करते हैं तब मुख पर हाथ वा पल्ला इसलिये नहीं लगाते कि यहां तीसरा कोई सुनने वाला नहीं। जो बड़ों ही के ऊपर थूक न गिरे इस से क्या छोटों के ऊपर थूक गिराना चाहिये? और उस थूक से बच भी नहीं सकता क्योंकि हम दूरस्थ बात करें और वायु हमारी ओर से दूसरे की ओर जाता हो तो सूक्ष्म होकर उस के शरीर पर वायु के साथ त्रसरेणु अवश्य गिरेंगे। उस का दोष गिनना अविद्या की बात है। क्योंकि जो मुख की उष्णता से जीव मरते वा उन को पीड़ा पहुंचती हो तो वैशाख वा ज्येष्ठ महीने में सूर्य्य की महा उष्णता से वायुकाय के जीवों में से मरे विना एक भी न बच सके। सो उस उष्णता से भी वे जीव नहीं मर सकते। इसलिये यह तुम्हारा सिद्धान्त झूठा है, क्योंकि जो तुम्हारे तीर्थंकर भी पूर्ण विद्वान् होते तो ऐसी व्यर्थ बातें क्यों करते? देखो! पीड़ा उसी जीव को पहुंचती है जिस की वृत्ति सब अवयवों के साथ विद्यमान हो।

इस में प्रमाण-

पञ्चावयवयोगात्सुखसंवित्ति ।। -यह सांख्यशास्त्र का सूत्र है।

जब पांचों इन्द्रियों का पांच विषयों के साथ सम्बन्ध होता है तभी सुख वा दुख की प्राप्ति जीव को होती है। जैसे बधिर को गाली प्रदान, अन्धे को रूप वा आगे से सर्प्प व्याघ्रादि भयदायक जीवों का चला जाना, शून्य बहिरी वालों को स्पर्श, पिन्नस रोग वाले को गन्ध और शून्य जिह्वा वाले को रस प्राप्त नहीं हो सकता, इसी प्रकार उन जीवों की भी व्यवस्था है। देखो! जब मनुष्य का जीव सुषप्ति दशा में रहता है तब उस की सुख वा दुःख की प्राप्ति कुछ भी नहीं होती, क्योंकि वह शरीर के भीतर तो है परन्तु उस का बाहर के अवयवों के साथ उस समय सम्बन्ध न रहने से सुख दुःख की प्राप्ति नहीं कर सकता। और जैसे वैद्य वा आजकल के डॉक्टर लोग नशे की वस्तु खिला वा सुंघा के रोगी पुरुष के शरीर के अवयवों को काटते वा चीरते हैं उस को उस समय कुछ भी दुःख विदित नहीं होता। वैसे वायुकाय अथवा अन्य स्थावर शरीर वाले जीवों को सुख वा दु ख प्राप्त कभी नहीं हो सकता। जैसे मूर्छित प्राणी सुख दु ख को प्राप्त कभी नहीं हो सकता वैसे वे वायुकायादि के जीव भी अत्यन्त मूर्छित होने से सुख दु ख को प्राप्त नहीं हो सकते। फिर इन को पीड़ा से बचाने की बात सिद्ध कैसे हो सकती है? जब उन को सुख, दुःख की प्राप्ति प्रत्यक्ष नहीं होती तो अनुमानादि यहां कैसे युक्त हो सकते हैं।

(प्रश्न) जब वे जीव हैं तो उन को सुख, दुःख क्यों नहीं होता होगा?

(उत्तर) सुनो भोले भाइयो! जब तुम सुषुप्ति में होते हो तब तुम को सुख, दुःख प्राप्त क्यों नहीं होते? सुख, दुःख की प्राप्ति का हेतु प्रसिद्ध सम्बन्ध है। अभी हम इस का उत्तर दे आये हैं कि नशा सुंघा के डाॅक्टर लोग अंगों को चीरते, फाड़ते और काटते हैं। जैसे उन को दुःख विदित नहीं होता इसी प्रकार अतिमूर्छित जीवों को सुख, दुःख क्योंकर प्राप्त होवें? क्योंकि वहां प्राप्ति होने का साधन कोई भी नहीं।

(प्रश्न) देखो! निलोति अर्थात् जितने हरे शाक, पात और कन्दमूल हैं उन को हम लोग नहीं खाते क्योंकि निलोति में बहुत और कन्दमूल में अनन्त जीव हैं। जो हम इन को खावें तो उन जीवों को मारने और पीड़ा पहुंचाने से हम लोग पापी हो जावें।

(उत्तर) यह तुम्हारी बड़ी अविद्या की बात है क्योंकि हरित शाक के खाने में जीव का मरना उन को पीड़ा पहुंचनी क्योंकर मानते हो? भला जब तुम को पीड़ा प्राप्त होती प्रत्यक्ष नहीं दीखती और जो दीखती है तो हम को भी दिखलाओ। तुम कभी न प्रत्यक्ष देख वा हम को दिखा सकोगे। जब प्रत्यक्ष नहीं तो अनुमान, उपमान और शब्दप्रमाण भी कभी नहीं घट सकता। फिर जो हम ऊपर उत्तर दे आये हैं वह इस बात का भी उत्तर है-क्योंकि जो अत्यन्त अन्धकार महासुषुप्ति और महानशा में जीव हैं इन को सुख दु ख की प्राप्ति मानना तुम्हारे तीर्थंकरों की भी भूल विदित होती है; जिन्होंने तुम को ऐसी युक्ति और विद्याविरुद्ध उपदेश किया है। भला! जब घर का अन्त है तो उस में रहने वाले अनन्त क्योंकर हो सकते हैं? जब कन्द का अन्त हम देखते हैं तो उस में रहने वाले जीवों का अन्त क्यों नहीं? इस से यह तुम्हारी बात बड़ी भूल की है।

(प्रश्न) देखो! तुम लोग विना उष्ण किये कच्चा पानी पीते हो वह बड़ा पाप करते हो। जैसे हम उष्ण पानी पीते हैं वैसे तुम लोग भी पिया करो।

(उत्तर) यह भी तुम्हारी बात भ्रमजाल की है क्योंकि जब तुम पानी को उष्ण करते हो तब पानी के जीव सब मरते होंगे । और उन का शरीर भी जल में रंधकर वह पानी सोंफ के अर्क के तुल्य होने से जानो तुम उन के शरीरों का ‘तेजाब’ पीते हो, इस में तुम बड़े पापी हो। और जो ठण्डा जल पीते हैं वे नहीं क्योंकि जब ठण्डा पानी पियेंगे तब उदर में जाने से किञ्चित् उष्णता पाकर श्वास के साथ वे जीव बाहर निकल जायेंगे। जलकाय जीवों को सुख, दुःख प्राप्त पूर्वोक्त रीति से नहीं हो सकता पुनः इस में पाप किसी को नहीं होगा।

(प्रश्न) जैसे जाठराग्नि से वैसे उष्णता पाके जल से बाहर जीव क्यों न निकल जायेंगे?

(उत्तर) हां! निकल तो जाते परन्तु जब तुम मुख के वायु की उष्णता से जीव का मरना मानते हो तो जल उष्ण करने से तुम्हारे मतानुसार जीव मर जावेंगे वा अधिक पीड़ा पाकर निकलेंगे और उन के शरीर उस जल में रंध जायेंगे इस से तुम अधिक पापी होगे वा नहीं?

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