दशम समुल्लास खण्ड-3
(प्रश्न) जो सभी अहिसक हो जायें तो व्याघ्रादि पशु इतने बढ़ जायें कि सब गाय आदि पशुओं को मार खायें तुम्हारा पुरुषार्थ ही व्यर्थ जाय?
(उत्तर) यह राजपुरुषों का काम है कि जो हानिकारक पशु वा मनुष्य हों उन्हें दण्ड देवें और प्राण भी वियुक्त कर दें।
(प्रश्न) फिर क्या उन का मांस फेंक दें?
(उत्तर) चाहें फेंक दें, चाहें कुत्ते आदि मांसाहारियों को खिला देवें वा जला देवें अथवा कोई मांसाहारी खावे तो भी संसार की कुछ हानि नहीं होती किन्तु उस मनुष्य का स्वभाव मांसाहारी होकर हिसक हो सकता है। जितना हिसा और चोरी विश्वासघात, छल, कपट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है वह अभक्ष्य और अहिसा धर्मादि कर्मों से प्राप्त होकर भोजनादि करना भक्ष्य है। जिन पदार्थों से स्वास्थ्य रोगनाश बुद्धिबलपराक्रमवृद्धि और आयुवृद्धि होवे उन तण्डुलादि, गोधूम, फल, मूल, कन्द, दूध, घी, मिष्टादि पदार्थों का सेवन यथायोग्य पाक मेल करके यथोचित समय पर मिताहार भोजन करना सब भक्ष्य कहाता है। जितने पदार्थ अपनी प्रकृति से विरुद्ध विकार करने वाले हैं जिस-जिस के लिये जो-जो पदार्थ वैद्यकशास्त्र में वर्जित किये हैं, उन-उन का सर्वथा त्याग करना और जो-जो जिस के लिये विहित हैं उन-उन पदार्थों का ग्रहण करना यह भी भक्ष्य है।
(प्रश्न) एक साथ खाने में कुछ दोष है वा नहीं?
(उत्तर) दोष है। क्योंकि एक के साथ दूसरे का स्वभाव और प्रकृति नहीं मिलती। जैसे कुष्ठी आदि के साथ खाने से अच्छे मनुष्य का भी रुधिर बिगड़ जाता है वैसे दूसरे के साथ खाने में भी कुछ बिगाड़ ही होता है; सुधार नहीं। इसीलिये-
नोच्छिष्टं कस्यचिद्दद्यान्नाद्याच्चैव तथान्तरा।
न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्टः क्वचिद् व्रजेत्।। मनु०।।
न किसी को अपना झूँठा पदार्थ दे और न किसी के भोजन के बीच आप खावे। न अधिक भोजन करे और न भोजन किये पश्चात् हाथ मुख धोये विना कहीं इधर-उधर जाय।
(प्रश्न) ‘गुरोरुच्छिष्टभोजनम्’ इस वाक्य का क्या अर्थ होगा?
(उत्तर) इस का यह अर्थ है कि गुरु के भोजन किये पश्चात् जो पृथक् अन्न शुद्ध स्थित है उस का भोजन करना अर्थात् गुरु को प्रथम भोजन कराके पश्चात् शिष्य को भोजन करना चाहिये।
(प्रश्न) जो उच्छिष्टमात्र का निषेध है तो मक्खियों का उच्छिष्ट सहत, बछड़े का उच्छिष्ट दूध और एक ग्रास खाने के पश्चात् अपना भी उच्छिष्ट होता है; पुनः उन को भी न खाना चाहिये।
(उत्तर) सहत कथनमात्र ही उच्छिष्ट होता है परन्तु वह बहुत सी औषधियों का सार ग्राह्य; बछड़ा अपनी मां के बाहिर का दूध पीता है भीतर के दूध को नहीं पी सकता, इसलिये उच्छिष्ट नहीं परन्तु बछड़े के पिये पश्चात् जल से उस की मां का स्तन धोकर शुद्ध पात्र में दोहना चाहिये। और अपना उच्छिष्ट अपने को विकारकारक नहीं होता। देखो! स्वभाव से यह बात सिद्ध है कि किसी का उच्छिष्ट कोई भी न खावे। जैसे अपने मुख, नाक, कान, आंख, उपस्थ और गुह्येन्द्रियों के मलमूत्रदि के स्पर्श में घृणा नहीं होती वैसे किसी दूसरे के मल मूत्र के स्पर्श में होती है। इस से यह सिद्ध होता है कि यह व्यवहार सृष्टिक्रम से विपरीत नहीं है। इसलिये मनुष्यमात्र को उचित है कि किसी का उच्छिष्ट अर्थात् जूँठा न खायें।
(प्रश्न) भला स्त्री पुरुष भी परस्पर उच्छिष्ट न खावें?
(उत्तर) नहीं। क्योंकि उनके भी शरीरों का स्वभाव भिन्न-भिन्न है।
(प्रश्न) कहो जी! मनुष्यमात्र के हाथ की की हुई रसोई उस अन्न के खाने में क्या दोष है? क्योंकि ब्राह्मण से लेके चाण्डाल पर्यन्त के शरीर हाड़, मांस, चमडे़ के हैं और जैसा रुधिर ब्राह्मण के शरीर में वैसा ही चाण्डाल आदि के; पुनः मनुष्यमात्र के हाथ की पकी हुई रसोई के खाने में क्या दोष है?
(उत्तर) दोष है। क्योंकि जिन उत्तम पदार्थों के खाने पीने से ब्राह्मण और ब्राह्मणी के शरीर में दुर्गन्धादि दोष रहित रज वीर्य उत्पन्न होता है वैसा चाण्डाल और चाण्डाली के शरीर में नहीं। क्योंकि चाण्डाल का शरीर दुर्गन्ध के परमाणुओं से भरा हुआ होता है वैसा ब्राह्मणादि वर्णों का नहीं। इसलिये ब्राह्मणादि उत्तम वर्णों के हाथ का खाना और चाण्डालादि नीच भंगी चमार आदि का न खाना। भला जब कोई तुम से पूछेगा कि जैसा चमड़े का शरीर माता, सास, बहिन, कन्या, पुत्रवधू का है वैसा ही अपनी स्त्री का भी है तो क्या माता आदि स्त्रियों के साथ स्वस्त्री के समान वर्तोगे? तब तुम को संकुचित होकर चुप ही रहना पड़ेगा। जैसे उत्तम अन्न हाथ और मुख से खाया जाता है वैसे दुर्गन्ध भी खाया जा सकता है तो क्या मलादि भी खाओगे? क्या ऐसा भी कोई हो सकता है?
(प्रश्न) जो गाय के गोबर से चौका लगाते हो तो अपने गोबर से क्यों नहीं लगाते ? और गोबर के चौके में जाने से चौका अशुद्ध क्यों नहीं होता?
(उत्तर) गाय के गोबर से वैसा दुर्गन्ध नहीं होता जैसा कि मनुष्य के मल से। यह चिकना होने से शीघ्र नहीं उखड़ता न कपड़ा बिगड़ता न मलीन होता है। जैसा मिट्टी से मैल चढ़ता है वैसा सूखे गोबर से नहीं होता। मट्टी और गोबर से जिस स्थान का लेपन करते हैं वह देखने में अतिसुन्दर होता है। और जहां रसोई बनती है वहां भोजनादि करने से घी, मिष्ट और उच्छिष्ट भी गिरता है। उस से मक्खी, कीड़ी आदि बहुत से जीव मलिन स्थान के रहने से आते हैं। जो उस में झाड़ू लेपन से शुद्धि प्रतिदिन न की जावे तो जानो पाखाने के समान वह स्थान हो जाता है। इसलिये प्रतिदिन गोबर मिट्टी झाड़ू से सर्वथा शुद्ध रखना। और जो पक्का मकान हो तो जल से धोकर शुद्ध रखना चाहिये। इस से पूर्वोक्त दोषों की निवृत्ति हो जाती है। जैसे मियां जी के रसोई के स्थान में कहीं कोयला, कहीं राख, कहीं लकड़ी, कहीं फूटी हांडी, जूंठी रकेबी, कहीं हाड़ गोड़ पड़े रहते हैं और मक्खियों का तो क्या कहना! वह स्थान ऐसा बुरा लगता है कि जो कोई श्रेष्ठ मनुष्य जाकर बैठे तो उसे वान्त होने का भी सम्भव है और उस दुर्गन्ध स्थान के समान ही वह स्थान दीखता है। भला जो कोई इन से पूछे कि यदि गोबर से चौका लगने में तो तुम दोष गिनते हो परन्तु चूल्हे में कण्डे जलाने, उस की आग से तमाखू पीने, घर की भीति पर लेपन करने आदि से मियां जी का भी चौका भ्रष्ट हो जाता होगा इस में क्या सन्देह!
(प्रश्न) चौके में बैठ के भोजन करना अच्छा वा बाहर बैठ के?
(उत्तर) जहां पर अच्छा रमणीय सुन्दर स्थान दीखे वहां भोजन करना चाहिये। परन्तु आवश्यक युद्धादिकों में तो घोडे़ आदि यानों पर बैठ के वा खड़े-खड़े भी खाना पीना अत्यन्त उचित है।
(प्रश्न) क्या अपने ही हाथ का खाना और दूसरे के हाथ का नहीं?
(उत्तर) जो आर्यों में शुद्ध रीति से बनावे तो बराबर सब आर्यों के हाथ का खाने में कुछ भी हानि नहीं। क्योंकि जो ब्राह्मणादि वर्णस्थ स्त्री पुरुष रसोई बनाने, चौका देने, वर्त्तन भांडे मांजने आदि बखेड़ों में पड़े रहैं तो विद्यादि शुभगुणों की वृद्धि कभी नहीं हो सके।
देखो! महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भूगोल के राजा, ऋषि, महर्षि आये थे। एक ही पाकशाला से भोजन किया करते थे। जब से ईसाई, मुसलमान आदि के मतमतान्तर चले; आपस में वैर विरोध हुआ; उन्होंने मद्यपान, गोमांसादि का खाना पीना स्वीकार किया उसी समय से भोजनादि में बखेड़ा हो गया। देखो! काबुल, कन्धार, ईरान, अमेरिका, यूरोप आदि देशों के राजाओं की कन्या गान्धारी, माद्री, उलोपी आदि के साथ आर्य्यावर्त्तदेशीय राजा लोग विवाह आदि व्यवहार करते थे। शकुनि आदि, कौरव पाण्डवों के साथ खाते पीते थे; कुछ विरोध नहीं करते थे। क्योंकि उस समय सर्व भूगोल में वेदोक्त एक मत था। उसी में सब की निष्ठा थी और एक दूसरे का सुख-दुःख हानि-लाभ आपस में अपने समान समझते थे। तभी भूगोल में सुख था। अब तो बहुत से मत वाले होने से बहुत सा दुःख विरोध बढ़ गया है। इस का निवारण करना बुद्धिमानों का काम है।
परमात्मा सब के मन में सत्य मत का ऐसा अंकुर डाले कि जिससे मिथ्या मत शीघ्र ही प्रलय को प्राप्त हों। इस में सब विद्वान् लोग विचार कर विरोधभाव छोड़ के अविरुद्धमत के स्वीकार से सब जने मिल कर सब के आनन्द को बढ़ावें।
यह थोड़ा सा आचार अनाचार भक्ष्याभक्ष्य विषय में लिखा।
इस ग्रन्थ का पूर्वार्द्ध इसी दशमे समुल्लास के साथ पूरा हो गया। इन समुल्लासों में विशेष खण्डन-मण्डन इसलिये नहीं लिखा कि जब तक मनुष्य सत्यासत्य के विचार में कुछ भी सामर्थ्य न बढ़ाते तब तक स्थूल और सूक्ष्म खण्डनों के अभिप्राय को नहीं समझ सकते-इसलिये प्रथम सब को सत्य शिक्षा का उपदेश करके अब उत्तरार्द्ध अर्थात् जिसमें चार समुल्लास हैं उन में विशेष खण्डन-मण्डन लिखेंगे। इन चारों में से प्रथम समुल्लास में आर्य्यावर्त्तीय मतमतान्तर, दूसरे में जैनियों के तीसरे में ईसाइयों और चौथे में मुसलमानों के मतमतान्तरों के खण्डन मण्डन के विषय में लिखेंगे। और पश्चात् चौदहवें समुल्लास के अन्त में स्वमत भी दिखलाया जायगा। जो कोई विशेष खण्डन मण्डन देखना चाहें वे इन चारों समुल्लासों में देखें। परन्तु सामान्य करके कहीं-कहीं दश समुल्लासों में भी कुछ थोड़ा सा खण्डन-मण्डन किया है। इन चौदह समुल्लासों को पक्षपात छोड़ न्यायदृष्टि से जो देखेगा उस के आत्मा में सत्य अर्थ का प्रकाश होकर आनन्द होगा। और जो हठ दुराग्रह और ईर्ष्या से देखे सुनेगा उस को इस ग्रन्थ का अभिप्राय यथार्थ विदित होना बहुत कठिन है। इसलिये जो कोई इस को यथावत् न विचारेगा वह इस का अभिप्राय न पाकर गोता खाया करेगा। और विद्वानों का यही काम है कि सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण असत्य का त्याग करके परम आनन्दित होते हैं। वे ही गुणग्राहक पुरुष विद्वान् होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप फलों को प्राप्त हो कर प्रसन्न रहते हैं।।१०।।
इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे
सुभाषाविभूषित आचारानाचारभक्ष्याभक्ष्यविषये
दशमः समुल्लासः सम्पूर्णः।।१०।।
समाप्तोऽयं पूर्वार्द्धः।।
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Till humans do not increase the power of truth in the idea of truth, they cannot understand the meaning of gross and subtle divisions - hence, preaching the truth to everyone first, now they will write a special rebuttal in the latter, which has four communities. In the first of these four, Aryavartiya will vote in the Samudas, in the second the Jains will write about the disbanding of the votes of Christians and the fourth in the fourth.
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