भारत वर्ष कृषि प्रधान और धर्म प्रधान देश है। यह कहते-सुनते हम बड़े हुए। सोने की चिड़िया कहलाने वाले देश की चिड़िया, न जाने कब और कहाँ उड़ गयी, पता ही नहीं चला। परम्परा के नाम पर धार्मिकता सिर्फ त्यौहारों में ही बची रह गयी है। भारतीय संस्कृति, अनुशासन, मानवता और शिष्टाचार जैसे संस्कारों से लबालब पूर्वजों की धरोहर पर विदेशी चाल-चलन का तड़का लग चुका है। इस तड़के को युवा पीढी ने हाथों हाथ लिया है। पाश्चात्य संस्कृति भारतीय संस्कृति पर भारी पड़ती नजर आ रही है। अभिभावकों की सीख को दकियानूसी मानकर अपनी जड़ों को खोखली कर रही युवा पीढी भी भटक सी गयी है। इस बदलाव का श्रेय स्वयं माता-पिता अथवा अभिभावकों को ही जाता है।
बच्चों को सदा दूसरों से बेहतर बनाने की होड़ में उन्हें पता ही नहीं चला कि बच्चे कब अपनी मर्यादा लांघ गए। महत्वाकांक्षी होना अच्छी बात है, लेकिन हर बात की एक सीमा होती है। अपनी निजी स्वतंत्रता को सर्वोपरि मानकर जीने में तरक्की समझने वाली युवा पीढी किसी भी सीमा रेखा को जानना भी नहीं चाहती। यही कारण है कि आज परिवार टूट रहे हैं और रिश्ते छिन्न-भिन्न हो रहे हैं। अनुशासन और शिष्टाचार की धज्जियाँ उड़ रहीं है, जिसे अभिभावक खुली आँखों से विवश होकर देखते हुए जी रहे हैं।
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